एमफिल का विवाद
कहने को तो नई शिक्षा नीति-2020 का मकसद हमारी शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाना रहा है ताकि बदलते वक्त के साथ शिक्षण संस्थाएं कदमताल कर सकें। जिसका उद्देश्य देश की शिक्षा प्रणाली को सुव्यवस्थित करके सुधारों को गति देना रहा है। इसके अंतर्गत अन्य बदलावों के साथ ही दो साल की एमफिल डिग्री को वर्ष 2020 में देना बंद कर दिया गया था। तब इस बाबत दलील दी गई थी कि शोध छात्र इस पाठ्यक्रम में कम ही दाखिला ले रहे थे। एक तो छात्रों को नौकरी पाने के लिये फिर से पीएचडी में शोधकार्य को करना पड़ता था। वहीं उनका काफी समय व धन इसमें व्यय होता था। दरअसल, कोई भी पाठ्यक्रम इसलिये कम-ज्यादा लोकप्रिय होता है कि वह रोजगार दिलाने में कितना सहायक है। जैसा कि आज देश में इंजीनियरिंग व डॉक्टरी की पढ़ाई में दाखिला लेने के लिये कड़ी प्रतिस्पर्धा होती है। दरअसल, एमफिल को लेकर जो भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा हुई, उसके मूल में नीति-नियंताओं द्वारा अपने फैसले को तार्किक बनाने के लिये समय रहते पहल नहीं की गई थी। जिसके चलते निजी विश्वविद्यालयों के प्रलोभन के चलते छात्रों में असमंजस की स्थिति बनी रही। इस स्थिति से अनभिज्ञ एमफिल में दाखिला लेने वाले छात्रों को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। इसमें उनका समय व पैसा बेकार गया। बुधवार को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने छात्रों को इस पाठ्यक्रम में आगे दाखिला लेने पर चेतावनी दी। विडंबना यह है कि नई शिक्षा नीति में बदलाव के बावजूद कुछ विश्वविद्यालय अभी भी समाप्त किए गए पाठ्यक्रम की पेशकश कर रहे थे। ऐसे में बिना सोचे-समझे इस पाठ्यक्रम में भाग लेने वाले छात्रों का भविष्य असुरक्षित हो गया। यदि समय रहते इस संबंध में पर्याप्त सूचना दी गई होती तो निश्चित रूप से कई मेधावी छात्रों का समय व पैसा बचाया जा सकता था। इस तरह व्यवस्था की विसंगतियों व नीतिगत फैसलों में हीला-हवाली की कीमत अन्य लोगों को चुकानी पड़ती है।
दरअसल, इस फैसले के मूल में जहां पाठ्यक्रम की व्यावहारिकता से जुड़े प्रश्न शामिल हैं, वहीं निजी विश्वविद्यालयों व कालेजों द्वारा आर्थिक लाभ उठाने के मकसद से छात्रों को अंधेरे में रखना भी एक बड़ा कारण रहा है। यहां तक कि इस मामले में यूजीसी की प्रतिक्रिया भी अस्वाभाविक है। यदि यूजीसी ने अपने नये नियम को सख्ती से लागू किया होता और वर्ष 2020 से इस गैर-मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रम को लेकर प्रमुखता से विज्ञापित चेतावनी व नोटिस जारी किए होते तो यह पाठ्यक्रम तीन साल तक जारी नहीं रह पाता। निश्चित रूप से यह स्थिति देश में उच्च शिक्षा प्रणाली की विसंगति को भी दर्शाती है। विडंबना यह भी है कि देश के विश्वविद्यालय सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के केंद्र बन गये हैं। वे विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक मामलों और नियुक्ति प्रक्रियाओं में स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप कर रहे हैं। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का ह्रास और असहमति के प्रति बढ़ती असहिष्णुता विश्वविद्यालय परिसरों में स्वतंत्र बहस की संस्कृति को क्षति पहुंचा रही है। दरअसल, विश्वविद्यालयों के वित्तीय स्रोतों का संकुचन भी बड़ी चुनौती है। जो शिक्षकों और विद्यार्थियों को समान रूप से प्रभावित करता है। जिससे नवाचार और मानव संसाधनों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। वहीं इस विसंगति का एक पहलू यह भी है कि यूजीसी के फैसले के मूल में अन्य पक्षों का दबाव भी शामिल रहा है जो एमफिल के जरिये समाज में मनोचिकित्सा के क्षेत्र में बेहतर योगदान के बावजूद अन्य डिग्रीधारियों द्वारा प्रतिस्पर्धी के रूप में देखे जा रहे थे। मसलन मनोचिकित्सा के क्षेत्र में देखें तो मास्टर डिग्री के बाद एमफिल के जरिये लाइसेंस्ड कंसल्टेंट क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के रूप में बेहतर काम कर रहे प्रतिभागी, उन लोगों को नहीं सुहाते जो अन्य डिग्रियों के जरिये इस पेशे में मनोचिकित्सक के रूप में काम कर रहे हैं। दरअसल, पेशेगत प्रतिस्पर्धा का दबाव भी इस निर्णय के मूल में रहा है। निश्चित रूप से कोई भी फैसला व्यापक वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर ही लिया जाना चाहिए। जो तार्किक भी हो और समय के अनुरूप भी हो।