मौसम की तल्खी व अनियोजित विकास से दरकते पहाड़
पंकज चतुर्वेदी
फिलहाल बरसात थमी और उत्तराखंड के उत्तुंग पर्वतों पर विराजमान बद्रीनाथ और केदारनाथ की तरफ लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। वैसे मौसम विभाग बता चुका है कि इस साल अल-प्रभाव के कारण आने वाले तीन महीने कभी-कभी भारी बरसात होगी, इससे बेपरवाह पर्यटक और प्रशासन लोगों की आवाजाही को प्रोत्साहित कर रहा है। अभी दस दिनों पहले तक पहाड़ खिसकने, सड़कें टूटने और लोगों की मौत की खबरें आती रहीं। इस बार उत्तराखंड में सर्वाधिक भूस्खलन की घटनाएं दर्ज की गईं। राज्य के बड़े हिस्से में अभी भी सड़कें जर्जर हैं। यह कड़वा सच है कि इन सड़कों और उस पर आ रहे भारी यातायात के कारण पहाड़ दरक रहे हैं।
उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के चार जिलों में 1100 से अधिक सड़कें इस साल बारिश व आपदा की भेंट चढ़ गईं, जिसमें कोई 900 ग्रामीण क्षेत्रों की हैं। लैंड स्लाइड एटलस ऑफ इंडिया के मुताबिक उत्तराखंड के 13 में से 8 जिले भूस्खलन के लिहाज से अति संवेदनशील जिलों की सूची में आते हैं। गंगोत्री और यमुनोत्री का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला उत्तरकाशी भागीरथी नदी के किनारे वरुणावत पर्वत की तलहटी में बसा है। यहां भूस्खलन का मतलब पूरे रिहायशी इलाके का खतरे की जद में आना है। वरुणावत पर्वत का पूरा क्षेत्र कई मायनों में बेहद संवेदनशील है। भूकंप के लिहाज से यह बेहद खतरनाक है। साल 1991 में यहां रिक्टर स्केल पर 6.1 तीव्रता का भूकंप आ चुका है। जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव के चलते पहाड़ों की पारंपरिक रिमझिम बरसात की जगह अब अचानक बहुत भारी बरसात हो रही है और इन सब का मिला-जुला कारण है कि मजबूत चट्टानों वाले पहाड़ भी अर्रा कर गिर रहे हैं।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के डाटा के अनुसार 1988 से 2023 के बीच उत्तराखंड में भूस्खलन की 12,319 घटनाएं हुईं। सन् 2018 में प्रदेश में भूस्खलन की 216 घटनाएं हुई थीं जबकि 2023 में यह संख्या पांच गुना बढ़कर 1100 पहुंच गई। 2022 की तुलना में भी 2023 में करीब साढ़े चार गुना की वृद्धि भूस्खलन की घटनाओं में देखी गई है। इस साल अगस्त-24 तक बरसात के दौरान भूस्खलन की 2946 घटनाएं दर्ज की गईं। ऐसा भी नहीं कि इस बार बरसात अधिक हुई हो। मानसूनी बारिश सामान्य कोटे (1060 मिमी) से महज 2 प्रतिशत ही ज्यादा हुई, जबकि भूस्खलन की घटनाएं पिछले साल से करीब दोगुनी हैं। अगस्त, 2024 तक भूस्खलन के चलते 67 लोगों की मौत हुई, जो कि बीते तीन साल में सर्वाधिक है।
उत्तराखंड में 40 से अधिक गांव और शहरी कस्बे ऐसे हैं जहां घरों में दरारें आ चुकी हैं या फिर वहां धंसाव का खतरा है। इस साल नैनीताल के निकट सूपी गांव, टिहरी के तिनगढ़, चमोली के कनियाज और भाटगांव नामेतोक गांव में भी धंसाव और भूस्खलन के मामले आ चुके हैं। चीन सीमा के करीब नीती घाटी के जुग्जू गांव के लोग बीते दो सालों से बेशुमार भूस्खलन से तंग हैं।
उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल नैनीताल का अस्तित्व ही भूस्खलन के कारण खतरे में है। याद करें सन् 1880 में यहां भयानक पहाड़ क्षरण हुआ था, जिसमें कोई डेढ़ सौ लोग मारे गये थे, उन दिनों नैनीताल की आबादी बमुश्किल दस हज़ार थी, तब की ब्रितानी हुकूमत ने पहाड़ गिरने से सजग होकर नए निर्माण पर तो रोक लगाई ही थी, शेर का डांडा पहाड़ी पर तो घास काटने, चरागाह के रूप में उपयोग करने और बागवानी पर प्रतिबंध के साथ बड़े स्तर पर वृक्षारोपण हुआ था।
कुमाऊं विवि के भूवैज्ञानिक प्रो. बीएस कोटलिया बताते हैं कि नैनीताल और नैनीझील के बीच से गुजरने वाले फॉल्ट के एक्टिव होने से भूस्खलन और भूधंसाव की घटनाएं हो रही हैं। शहर में लगातार बढ़ता भवनों का दबाव और भूगर्भीय हलचल इसका कारण हो सकते हैं।
उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विश्व बैंक ने सन् 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार छोटे से उत्तराखंड में 6300 से अधिक स्थान भूस्खलन ज़ोन के रूप में चिन्हित किये गये। रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हज़ारों करोड़ रुपयों की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काटकर या जंगल उजाड़ कर ही बन रही हैं और इसी से भूस्खलन ज़ोन की संख्या में इजाफा हो रहा है। दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय के पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी सन् 2013 की केदारनाथ त्रासदी को भुलाकर उसकी हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविष्य के लिए खतरा बनी हुई हैं। गत नवंबर, 2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। यही नहीं, वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम न हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाषा में बदलाव का असल इरादा ऐसे कई इलाकों को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कि कथित विकास की राह में रोड़े बने हुए हैं।
उत्तराखंड में भूस्खलन की तीन चौथाई घटनाएं बरसात के कारण हो रही हैं, इससे स्पष्ट है कि अनियमित और अचानक तेज बारिश आने वाले दिनों में पहाड़ के लिए अस्तित्व का संकट बनेगी।