अंतर प्रकाश को फैलाने का परम पावन पर्व
राम के पास कुछ भी नहीं था लेकिन उनके पास दैवीय सम्पत्ति भरी हुई थी। रावण के पास सब कुछ था लेकिन उसके पास आसुरी सम्पत्ति भरी हुई थी। दैवीय सम्पत्ति के मालिक राम की विजय का मतलब है कि हमें भी अपने अंदर आसुरी सम्पत्ति के ऊपर दैवीय सम्पत्ति की विजय पानी चाहिए। आज न तो राम हैं और न तो रावण ही। लेकिन दोनों के कार्य हमारे बीच आज भी मौजूद हैं। हमें दीपावली को उसी रूप में मनाना चाहिए जिससे हमारे अंदर दैवीय सम्पत्ति बढ़े और आसुरी सम्पत्ति का नाश हो सके।
अखिलेश आर्येन्दु
हमारी संस्कृति की पहचान उन पर्वों, त्योहारों और उत्सवों से है जो हमारे जीवन, परिवार और समाज के अभिन्न हिस्से हैं। ऐसा ही त्योहार है दीपावली। इसका संबंध खरीफ की नयी फसल का पककर घर आने की खुशी में किसानों और वणिकों द्वारा मनाए जाने का त्योहार माना जाता रहा है। इसके अलावा भगवान महावीर, गुरु नानक, महषि दयानंद, स्वामी रामतीर्थ, राजा बलि, महाराज विक्रमादित्य से भी इसका संदर्भ कहीं न कहीं, किसी रूप में जुड़ता ही है। इस तरह दीपावली की महत्ता जितना हिंदुओं से है उतना ही जैनियों से, जितना सिखों से है उतना ही अन्य मतावलम्बियों से। यानी दीपावली प्रत्येक समुदाय का उत्सव है, जो यह संदेश देता है कि जीवन में कहीं भी किसी भी रूप में कोई खामी या दोष हो उसे ज्ञानरूपी दीप जलाकर दूर करना चाहिए, जिससे जीवन सार्थक बन सके।
प्रकाश का यह पावन उत्सव हमारे जीवन का सबसे जीवंत और अखंड उत्सव है। इस उत्सव को हम महज पटाखे फोड़कर प्रदूषण बढ़ा कर या मंहगे बिजली के झालरों को सजाकर पूर्ण न मान लें बल्कि इसकी उत्सवधर्मिता को समझने की कोशिश करें, तो दीपावली अपने पूर्व स्वरूप को ग्रहणकर अपनी सार्थकता को हासिल कर सकती है। लेकिन हम जिस कुबेरी संस्कृति के अंग बनते जा रहे हैं वहां तो अपना कुछ भी ऐसा नहीं होता जिसे हम अपने अंतर में उतार कर अपनी ‘मन की आंखों से देख सकें और अपना कह सकें। जिस दीपक को हम जलाते हैं वह हमारे ज्ञान का भी तो प्रतीक है। ज्ञान से अज्ञानता का नाश होता है। ज्ञान को सत्य माना गया है। पहले शुभ फिर लाभ।
भारतीय बाजार में नये धन कुबेरों का जमावड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इन धन कुबेरों में केवल भारत के नहीं हैं बल्कि विदेशी कंपनियों के स्वामियों की अच्छी खासी तादाद है। ये दीवाली को बाजार के रूप में देखते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ब्रांडों ने पूरे भारत के बाजार पर जो कब्जा जमाया है, उससे दीपावली भी अछूती नहीं है।
जिस माटी के दीये, ‘शुद्ध रुई की बातीं, ‘शुद्ध तेल या देशी घी और ‘शुद्ध मन के जरिए दीवाली की पहचान हुआ करती थी अब वह कहां चली गई? हम दीपावली का उत्सव मनाते हैं, इसका मतलब यह हुआ हमने कुछ अच्छा कार्य कर लिया है। जिस राम-रावण के युद्ध के बाद राम की विजय हुई और रावण की हार हुई उसको हमें समझने की जरूरत है। राम दैवीय सम्पदा के प्रतीक हैं और रावण आसुरी। राम के पास कुछ भी नहीं था लेकिन उनके पास दैवीय सम्पत्ति भरी हुई थी। रावण के पास सब कुछ था लेकिन उसके पास आसुरी सम्पत्ति भरी हुई थी। दैवीय सम्पत्ति के मालिक राम की विजय का मतलब है कि हमें भी अपने अंदर आसुरी सम्पत्ति के ऊपर दैवीय सम्पत्ति की विजय पानी चाहिए। आज न तो राम हैं और न तो रावण ही। लेकिन दोनों के कार्य हमारे बीच आज भी मौजूद हैं। हमें दीपावली को उसी रूप में मनाना चाहिए जिससे हमारे अंदर दैवीय सम्पत्ति बढ़े और आसुरी सम्पत्ति का नाश हो सके।
दीपावली हमारे लिए विचार उत्सव का महापर्व है जहां हम अपने अंदर ही नहीं समाज और संस्कृति में बढ़ रहे अंधेरे को नाश करने के लिए आत्मदीप जलाएं। इससे परिवार, वातावरण और समाज में एक नई रोशनी रौशन हो सकेगी। हे ग्राम देवता नमस्कार कविता लिखने वाले डॉ. राम कुमार वर्मा ने किसान का अभिवादन उसके श्रम, सच्चाई और तपस्या पूर्ण जीवन को देखकर किया रहा होगा। लेकिन, यह अभिवादन कविता में ही सिमट कर क्यों रह गया।
सरकार और राजनीति के बड़े धुरंधरों के दिल में ‘नमस्कार’ क्यों नहीं उदित हुआ? फिर दीपावली के दीये की रोशनी की जीवंतता कैसे बच सकती है? कृषि संस्कृति की प्रतीक कही जानी वाली दीवाली का यह हस्र गुलामी के दिनों में भी ऐसा नहीं हुआ था जैसा आज देखने को मिल रहा है। 75 साल पहले जो दीया दीवाली का जला था उसकी सुगंध यदि कहीं बची है तो, वह उस गरीब की मंडई में बची है जो आज भी दीये की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध है। अपनी मौलिकता, सुचिता और सात्विकता को बरकरार रखते हुए।