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पहचान नहीं, मानवता से परिभाषित हो नैतिकता

06:47 AM Nov 06, 2023 IST
पहचान नहीं  मानवता से परिभाषित हो नैतिकता
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राजेश रामचंद्रन

‘जहां तक हमास की बात है, उसे और उसके समर्थकों को इंसानियत अपनी बिरादरी से निकाल बाहर करे’- ये शब्द टाइम्स पत्रिका के नवीनतम अंक में मशहूर इतिहासकार और ‘सेपियन्स’ के लेखक नोह हरारी ने लिखे। बतौर एक इस्राइली उन्होंने माना कि यह घड़ी पीड़ादायक है- पहले हमास आतंकियों द्वारा इस्राइली आम नागरिकों पर किया गया हमला और फिर इस्राइलियों द्वारा बेगुनाह फलस्तीनी नागरिकों पर क्रूर प्रतिकर्म- जिसमें एक समूह दूसरे को और अधिक कष्ट देने में लिहाज नहीं कर रहा। सामूहिक पहचान के नाम पर हुई तमाम साम्प्रदायिक और कबीलाई लड़ाइयों का यही दुखांत रहा है। एक समुदाय के ज़हन में दूसरे को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति इस कदर भर जाती है कि यह भी नहीं देखता कि दूसरे को कितनी पीड़ा होगी।
हरारी चाहते हैं कि वे ‘बाहरी लोग जो खुद पीड़ा में न डूबे हों’, शांति के लिए जगह बनवाएं ताकि ‘एक दिन जब जख्म भर जाएं, तो इस्राइली और फलस्तीनी, दोनों उस जगह पर बस सकें’। शांति के लिए वह स्थान केवल तभी बन सकता है जब समुदायों के बीच सह-अस्तित्व हो, जहां नफरत की जगह दूसरे से सहचर की भावना हो। लेकिन जहां नफरत ही राजनीति और प्रशासन चलाने का प्रमुख आधार हो, तब परस्पर शिकायतों से भरे दो समुदायों के बसने के लिए साझी जगह कभी नहीं बन सकती। हमास और इस्राइली सरकार एक जैसे हैं, जिनका जीवन-मरण दूसरे से घृणा करने पर टिका है। जिस पक्ष को पश्चिमी जगत की मदद मिले, उसका वर्चस्व रहता है।
घृणा की प्रतिस्पर्धा में, विशुद्ध मानवता के गुण ही सह-अस्तित्व का माहौल बना सकते हैं, चाहे यह शिकायतकर्ता हो या आक्रमणकारी – हालांकि वे दशकों और सदियों से एक-दूजे की दर्पण-छवि हैं यानि जिसके हाथ जब ताकत आई, दूसरे पर हावी हो गया। दुर्भाग्यवश, किसी जनजाति या साम्प्रदायिक समूह की शिकायतें व्यापक भू-राजनीतिक ताकतों के खेल में एक औजार बन जाती हैं। यह अवस्था उन भारतीयों के लिए जानी-पहचानी है जो आज भी ब्रितानी हुक्मरानों द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन को भटकाने अथवा हराने के लिए पैदा की गई हिंदू-मुस्लिम रंजिश की लकीरों से बाहर नहीं निकल पाए हैं। फिर भी, इस्राइल-फलस्तीन संघर्ष ने जिस कदर तीव्र संकट पैदा किए हैं, इसके संदर्भ में, उस शख्स की याद फिर से हो आई है जिसने ‘शांति के लिए स्थान’ बनाने का प्रयास किया था।
बंटवारे के दु:ख को लेकर हरारी के पक्षपाती विचारों से उलट, ब्रितानी हुकूमत द्वारा पैदा किए विभाजन के सबसे बुरे दिनों की पीड़ा में डूबे होने के बावजूद गांधी ने हिंदू और सिखों से साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने में पहलकदमी करने को कहा था। वर्ष 1948 में गांधी से अपना आमरण अनशन त्यागने का अनुरोध करने वाले पत्र पर दो लाख लोगों ने हस्ताक्षर करके प्रण लिया : ‘हम हिंदू, सिख, ईसाई और दिल्ली के अन्य नागरिक, शपथपूर्ण घोषणा करते हैं कि भारतीय गणराज्य के मुस्लिम नागरिक भी दिल्ली के बाकी बाशिंदों की भांति शांति, सुरक्षा और आत्मसम्मान के साथ जीने और रोजगार करने को स्वतंत्र हैं और भारतीय गणराज्य की भलाई एवं बेहतरी के लिए काम कर पाएंगे’। यह शांति-प्रतिज्ञा भारतीय संविधान लिखे जाने से पहले आई, जिस वक्त यह उपमहाद्वीप लगभग 10 लाख हिंदू, सिखों और मुस्लिमों के खून और तकरीबन एक करोड़ बेघर हुए लोगों की मुसीबतों में अभी भी डूबा पड़ा था।
संविधान को बनाए रखने की दुहाई देने वाले हरेक लोकतांत्रिक शख्स को ठिठककर अपनी आत्मा को टटोलना चाहिए, क्योंकि यह उस 78 वर्षीय कृषकाय वृद्ध की देन है, जिसने इंसानियत को सर्वप्रथम और पहचान को अंतिम रखा। पीड़ा और साम्प्रदायिक संताप पर पक्षपाती रुख रखने से केवल नफरत की लकीर पुष्ट होती है, जोकि साम्राज्यवादियों की ईजाद है - नए हों या पुराने। यहां तक कि सबसे खराब घड़ी में भी गांधी जी ने, यह जानते हुए भी कि हिंसक आग के दरिया को पार करके, शरणार्थी बनकर पहुंचे हिंदू-सिखों के संताप के लिए गलती केवल ब्रिटिश और जिन्ना की है, दिल्ली में शांति स्थापना के लिए रखी सात शर्तों पर इन दोनों कौमों को राजी कर लिया था।
परस्पर शक की बिना पर एक-दूसरे से टकराने वाले गुटों पर केवल सार्वभौमिक नैतिकता एवं मानक गुण ही लागू हो सकते हैं और इस सार्वभौमिक नैतिकता के मानकों का विशुद्ध मापदंड है सर्व-हितकारी मानवता। अफसोस कि, वे सब जो भारत में फलस्तीनियों के मुद्दे पर एकतरफा रुचि ले रहे हैं, वे पहचान के आधार पर बदतरीन पक्षपात दिखा रहे हैं, जिसमें गैर-साम्प्रदायिक मानवीय सदाशयता की जरा परवाह नहीं है। हाल ही में दक्षिण भारत में हुई दो घटनाएं अति चिंतनीय हैं। एक में, तिरूवनंतपुरम से सांसद शशि थरूर ने जब युद्ध विरोधी रैली में हमास को आतंकी संगठन बताया तो उन्हें टोककर इसे सही करने को कहा गया। इसके तुरंत बाद हमास के पूर्व मुखिया माशल ने जमात-ए-इस्लामी की युवा शाखा को ऑनलाइन या पूर्व रिकॉर्डिड संबोधन दिया।
भारत के प्रत्येक स्वयंभू तरक्कीयाफ्ता मुस्लिम और मार्क्सवादी नेताओं को यह समझना होगा कि जब वे पश्चिम एशिया में चल रहे नृशंस संघर्ष में हमास की तरफदारी करते हैं तो यह करते वक्त वे अपनी नैतिकता और इंसानियत को त्याग रहे हैं। एक-दूजे का समूल नाश करने के लिए बच्चों की क्रूर हत्याएं, बेगुनाह आम नागरिकों के नृशंस कत्ल, महिलाओं को अगवा या बलात्कार करने के वहशी कृत्यों को केवल आतंकवाद ही कहा जाएगा। यदि हमास 1400 इस्राइलियों को मारने और 200 को बंधक बनाने को इसलिए न्यायोचित बताता है कि वे सब यहूदी थे, तब तो नस्लभेदी इस्राइल सरकार द्वारा गाज़ा को नेस्तनाबूद करने और 10000 फलस्तीनी मारने को सही करार दिया जाएगा। जैसा कि सबका कयास है, इस्राइली खुफिय़ा विभाग ने खुद ही हमास को लुभाकर जाल में फंसाया होगा ताकि गाज़ा का सम्पूर्ण विनाश सुनिश्चित हो सके। अंत में, हमास की सफलता केवल यही कही जाएगी कि उसने अस्पतालों और शरणार्थी कैम्पों पर बमबारी करने की इस्राइली हरकतों को वैधता दे डाली। कुल मिलाकर हमास फलस्तीनियों के लिए तबाही का बड़ा कारण सिद्ध हुआ है।
भारतीय मुस्लिम लीग के जिस नेता ने शशि थरूर को टोककर यह कहने को कहा कि हमास ‘प्रतिक्रियावादी लड़ाके’ हैं, इसके पीछे की वजह है, उनका मुस्लिम हम-बिरादर होना। जमात-ए-इस्लामी संगठन की बात करें, जिसने हमास के नेता का रिकॉर्डिड या ऑनलाइन संबोधन आयोजित किया, तो उसनेे भी यह पीड़ितों के प्रति मानवता से बंधकर नहीं बल्कि धार्मिक पहचान के आधार पर किया है- इस तथ्य पर कि वे भी मुस्लिम हैं और हमास वाले भी। यहां वे यह समझने में नाकाम रहे हैं कि पहचान की संबद्धता के इस तर्क के आधार पर अगर वे यहूदी पैदा हुए होते, तब क्या इस्राइली सरकार के साथ खड़े होते? एक मुस्लिम के बरक्स यहूदी की जान को तुच्छ समझने वाले ऐसे विचारों का गंभीर असर भारतीय राजनीति पर हो सकता है।
मुसीबत के वक्त भी केवल धार्मिक पहचान के आधार पर पाला पकड़ना, नैतिकता का इससे निम्न स्तर नहीं हो सकता। तमाम वे राजनीतिक दल जो इस प्रकार की धार्मिक पहचान के आधार पर वोट पाने को कहते हों, यह बच्चों के कातिलों को संत बनाने की उनकी कुत्सित कोशिशों को उजागर करता है। हमास से किनारा, इस्राइली सरकार की भर्त्सना और सह-अस्तित्व के लिए द्वि-राष्ट्र आधारित हल का आह्वान होना चाहिए न कि किसी का समर्थन अथवा आलोचना इसलिए हो कि वह अपने या पराये धर्म का है!

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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