मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

अमावस की रात

06:26 AM Nov 12, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

रतन चंद ‘रत्नेश’
परसों दिवाली है। साइकिल के स्पेयर-पार्ट्स बनाने वाली एक छोटी-सी फैक्टरी के कैबिन में बैठा दीपक अपने मालिक की हिदायतों को एक पैड पर नोट किए जा रहा था। आज शाम तक कुछ पार्ट्स दो-एक स्थानों तक जरूरी पहुंचाए जाने थे। साथ ही कल दोपहर तक कर्मचारियों को एक-एक मिठाई का पैकेट और कुछ धनराशि देकर उन्हें दिवाली की छुट्टी पर भेजने का कार्यक्रम बन रहा था।
‘कल दोपहर को ही सबको फ्री कर दो।’ फैक्टरी मालिक अग्रवाल ने दीपक से कहा।
कुल मिलाकर उन्नीस कर्मचारी होंगे इस लघु इकाई में। मज़दूर, कारीगर, एक क्लर्क और स्वयं दीपक एक सुपरवाइज़र की हैसियत से। दीपक यहां तब से है, जब अभी यह औद्योगिक क्षेत्र आबाद हो ही रहा था। अब तो यह छोटी-बड़ी इकाइयों से रमरमा गया है। यहां सुबह से शाम तक एक व्यस्तता छायी रहती है। मोटर-कारों, ट्रकों, रेहड़ियों, रिक्शा और मज़दूर-कर्मचारियों की आवाजाही से सरगर्म। दीपक बतौर एक क्लर्क विनायक इंडस्ट्रीज से जुड़ा था। उन दिनों सिर्फ साइकिल के कुछ पार्ट्स बनते थे। अब तो दूसरे कई पार्ट्स बनने लगे हैं। दीपक ने तीन सौ रुपए से अपनी यह नौकरी शुरू की थी। आज उसकी जो तनख्वाह है, वह गुजारे लायक यथेष्ट है, बशर्ते महीने में कोई अनावश्यक खर्च अलग से न आन पड़े। इससे अधिक तनख्वाह अब मिलने से रही। इस औद्योगिक क्षेत्र की कई इकाइयों में उस जैसे सुपरवाइज़र, क्लर्कों को इससे भी कम तनख्वाह मिल रही है। पत्नी और एक तीन वर्ष की बच्ची के साथ कुल मिलाकर उसका जीवन सुचारु रूप से चल रहा है।
मोबाइल पर रिंगटोन बजते ही दीपक ने कान से लगाया। गांव से छोटे भाई ने कुशलक्षेम पूछने के बाद आग्रह किया-- ‘भाई साहब, परसों दिवाली है। सोच रहा था कि इस बार हम सब मिलकर एक साथ दिवाली मनाएं। वर्षों हो गए, अब तो यह भी याद नहीं रहा कि सारे परिवार ने मिलकर कब दिवाली मनायी थी? इस बार भाभी, मुन्नी के साथ आ जाइए। मैं इंतज़ार करूंगा।’
दीपक सोच-विचार के उधेड़बुन में उलझा रहा। फिर न जाने क्या सोचकर कह ही दिया, ‘ठीक है छोटे, हम आ जाएंगे। शाम को घर पहुंचकर तैयारी करता हूं।’
मोबाइल जेब में रखते ही उसकी आंखें पनीली हो गईं। कितना मान-सम्मान देता है छोटा उसे। दे भी क्यों नहीं? उसने भी कभी बड़े भाई के फर्ज़ से मुंह मोड़ा?
कुछ देर के लिए वह अपने छोटे भाई के बचपन में खो गया। जितनी बड़ी आज मुन्नी है, उससे भी बहुत छोटा था वह उन दिनों। हमेशा गोद में रहता। जहां भी वह जाता, वह साथ चिपका रहता। दीपक को याद आया कि बचपन में वह कितना दुबला-पतला था, मानो मुन्नी से भी हल्का। एक बार उसे टायफायड हुआ था तो वह चार दिनों तक हर पल, हर क्षण उसके साथ घर पर ही उसके बिस्तर के पास बैठा रहा था। उसकी अपनी उम्र भी उस समय कहां अधिक थी। महज पंद्रह का होगा। उन चार दिनों तक न वह स्कूल गया और न ही कहीं बाहर खेलने। उसे वह पल भी याद हो आया जब पहली बार उसने छोटे को उंगली पकड़-पकड़कर चलना सिखाया था।
स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद दीपक ने निर्णय ले लिया था कि आगे पढ़ने के बजाय अब वह शहर जाकर नौकरी करेगा। तब से वह इसी शहर में है। छोटा पढ़ता गया, ग्रेजुएशन की और फिर गृह-राज्य के एक सहकारी बैंक में अफसर बन गया। एक अर्से से गांव के समीप के ही शहर में नियुक्त है। एक-दो बार दूसरे जिलों में तबादला भी हुआ, परंतु थोड़े ही दिनों में पुनः वहीं लौट आया।
शाम को दीपक ने अपने किराये के घर पहुंचकर पत्नी से चहकते हुए कहा, ‘प्रभा, जानती हो आज छोटे का फोन आया था। बड़ा आग्रह कर रहा था कि इस बार दिवाली गांव में एक ही साथ मनाएं। मैंने भी उसी वक्त हां कह दी।’ कहते हुए उसके चेहरे से प्रसन्नता टपक रही थी परंतु पत्नी ने सुनकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बस निर्निमेष चेहरे से अपने पति की आंखों में कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करती रही।
‘मेरा मुंह क्या देख रही हो? अभी से तैयारी शुरू कर देते हैं। कल शाम चार बजे की बस ले लेंगे। नौ-साढ़े नौ बजे तक पहुंच ही जाएंगे। बाजार से कुछ लाना हो तो ले आते हैं। मिठाई खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हर वर्ष की तरह फैक्टरी से कल मिलेगी ही।’ दीपक ने उत्सुकता से कहा।
मुन्नी पड़ोस की एक बच्ची के साथ खेलने में मगन थी। पापा के घर पहुंचने पर दौड़कर पास आई और इतना बताकर चली गई कि गुडि़या की गंदी फ्रॉक आज उसने स्वयं अपने हाथों से धोयी, सुखायी और फिर उसे पहनायी भी। इस समय वह उस बच्ची के साथ गुडि़या के बनाव-शृंगार में व्यस्त थी।
प्रभा ने अपने पति की ओर देखते हुए कहा, ‘गांव जाना क्या ज़रूरी है? यों ही दो-तीन हजार रुपए खर्च हो जाएंगे। मैं सोच रही थी कि अगले महीने तक ठंड का मौसम शुरू हो जाएगा। इस बार एक रजाई बनवा लेते। पहले की जहां-तहां से फट गई है। उस पर घर पर कोई मेहमान आ जाये तो पड़ोसियों से मांगना पड़ता है। मुन्नी और आपके लिए गर्म ऊन की एक-एक स्वेटर भी बना देती।’
‘वह भी हो जाएगा।’ दीपक ने कहा-- ‘तुम परेशान क्यों होती हो? अग्रवाल साहब पहले ही पूछ रहे थे, एडवांस लेना हो तो बता देना। न हुआ तो अगले महीने एडवांस ले लूंगा।’
प्रभा अपने पति की आदत से वाकिफ थी। उन्होंने गांव जाने का निर्णय ले लिया है तो अब तर्क-वितर्क करने से कोई लाभ नहीं। जो पैसे तीन-चार महीनों से जमा करके रखे थे, उनकी नियति यही होनी है।
दूसरे दिन यानी कि दिवाली की पूर्व संध्या को वे अपने आवास से दस किलोमीटर दूर अंतर्राज्यीय बस-अड्डे पर थे। चार बजे वाली बस पहले से ही इतनी भरी हुई आई थी कि उस पर सवार होना नामुमकिन था। छोटी बच्ची के साथ इस भीड़ में, वह भी खड़े-खड़े, असंभव। साढ़े छह की बस आई, पर उसमें भी वही हाल। दीपक के चेहरे पर चिंता और खीझ की आड़ी-तिरछी रेखाएं बनने-बिगड़ने लगीं। पत्नी के साथ एक बेंच पर बैठा वह परिवहन सेवा पर बड़बड़ाने लगा-- ‘अच्छा-भला पता है कि त्योहारों में भीड़ बढ़ जाती है, पर ये ट्रांसपोर्ट वाले इन दिनों अतिरिक्त बस नहीं चलाएंगे। बाकी दिनों बेशक खाली बसें दौड़ती रहें।’
मुन्नी ऊंघने लगी थी। गोद में उसे लिटाये पत्नी ने इतना भर कहा, ‘घर से इतनी दूर बस-अड्डे आकर लौटना भी उचित नहीं लगता वरना सुबह-सुबह आकर कोशिश कर लेते। सुबह तो बहुत बसें होंगी।’
प्रत्युत्तर में दीपक ने कुछ नहीं कहा और उठकर पूछताछ वाली खिड़की की ओर चला गया। थोड़ी देर बाद लौटकर बताया कि रात साढ़े ग्यारह बजे एक बस यहीं से चलेगी। उसमें सीट मिल जाने की पूरी संभावना है। हालांकि इसके पहले भी बाहर से आने वाली तीन बसें हैं पर जैसा कि ज्ञात हुआ आज सभी बसें भरकर जा रही हैं।
‘क्या कहती हो, इंतज़ार कर लोगी या फिर लौट चलें?’
‘अब लौटकर क्या करेंगे, परेशानी ही होगी। इससे तो अच्छा है कि यहां के शोरगुल से परे हटकर बस-अड्डे के सामने उस घास के लॉन में जाकर बैठते हैं। मुन्नी को भी नींद आने लगी है।’
अगली बस को देख लेते हैं। उसके बाद मैं कुछ खाने के लिए ले आऊंगा। साढ़े ग्यारह की बस में सीट मिल ही जाएगी। मैंने इन्क्वायरी में बैठे सज्जन से अपनी समस्या बतायी थी। उसने कहा कि अगर भीड़ हुई भी तो वह कंडक्टर से कहकर कम से कम एक सीट की व्यवस्था कर ही देगा।’
गांव की ओर जाने वाली वे तीन बसें भी आईं पर दीपक ने काउंटर पर उमड़ आई भीड़ देखकर उनमें जाने का विचार ही त्याग दिया। दस बजे वाली बस भी पूरी तरह भरकर चली गई।
इसी बीच मुन्नी ने नींद की एक पारी समाप्त कर ली। उसे अपनी उंगली थमाए दीपक बस-अड्डे पर चहलकदमी करने लगा। मुन्नी उत्सुकता से वहां का नज़ारा देख रही थी। शायद उसे लगा हो कि पापा मेले में ले आए हैं।
साढ़े ग्यारह की बस जैसे ही काउंटर पर लगी, गुड़ की मक्खियों की तरह न जाने कहां से लोग आकर वहां चिपक गए। दीपक को चिंता हो आई। तेजी से आकर उसने अपनी पत्नी से कहा, ‘औरतें सिर्फ दो ही हैं। तुम जल्दी से काउंटर पर पहुंचो।’
बिना समय गंवाए प्रभा जाकर दो महिलाओं के पीछे खड़ी हो गई, परंतु जब तक उसकी बारी आती, काउंटर पर बैठे क्लर्क ने ऐलान कर दिया कि बैठकर जाने के लिए अब कोई सीट नहीं है। खड़े-खड़े जाना पड़ेगा। दरअसल हुआ यह कि पुरुषों ने महिलाओं को टिकट-खिड़की तक पहुंचने का अवसर ही नहीं दिया। झुंड बनाए लोगों ने सारा काउंटर ही घेर रखा था।
दीपक मुन्नी को गोद में उठाए इन्क्वायरी की तरफ भागा। वहां बैठे सज्जन ने कहा, ‘बाबू जी इतनी देर तक कहां रहे? जल्दी से जाइए, मैंने कंडक्टर से कह सात नंबर सीट आपके लिए आरक्षित कर रखी है।’
वह बदहवास बस के पास पहुंचा। थैला और टिकट थामे एक कंडक्टर से पूछा तो ज्ञात हुआ कि वही उस बस के साथ है। उसने सात नंबर सीट का जि़क्र किया। कंडक्टर ने दबी जुबान में उससे कहा, ‘जाकर बैठ जाइए। टिकट बस में ही दे दूंगा।’
‘ज़नाब, कोई परेशानी तो नहीं होगी? पत्नी और बच्ची साथ में हैं। ऐसा न हो कि कोई दूसरा व्यक्ति आकर टिकट पर सीट नंबर दिखाकर अपना हक जताने लगे।’
बस-कंडक्टर ने भरोसा दिलाया, ‘बाबू जी, जब मैं कह रहा हूं तो आप चिंता क्यों करते हैं? मुझे इन्क्वायरी में बताया गया कि आप लोग चार बजे से बस-अड्डे पर हैं।’
दीपक आश्वस्त हुआ कि उनकी सीट आरक्षित है, एक ही सही। उसने अपनी पत्नी को वहां बिठाया और मुन्नी को गोद में देकर स्वयं लोगों की भीड़ में रैलिंग थामे खड़ा हो गया। नियत समय पर बस चली। कम से कम पांच घंटे का सफर था, परंतु कर ही क्या सकते थे। कल दिवाली है। छोटा आज से ही प्रतीक्षा कर रहा होगा। अब चल ही पड़े हैं तो जैसे-तैसे पहुंच ही जाएंगे।
थोड़ी देर में खड़े लोग बैठने के लिए थोड़ी-थोड़ी जगह बनाने लगे। दीपक भी पत्नी की बगल में अपने सूटकेस के सहारे बैठ गया। जिन्हें सीट मिली थी, वे धीरे-धीरे ऊंघने लगे थे। खचाखच भरी बस, कुछ को आराम तो कुछ परेशान।
सुबह पांच बजे के लगभग दीपक का गंतव्य आया। उसके गांव के पास का कस्बा। कस्बे से गांव आधा किलोमीटर दूर है। उनींदी और बोझिल आंखों से अपनी पत्नी और मुन्नी को देखकर वह मुस्कुराया, थका-थका सा।
उसके कदम गांव की ओर बढ़ने लगे। घर पहुंचते ही मां-बाबूजी के पांव छुए। फिर उत्सुकता से पूछा, ‘छोटा अभी तक सो रहा है क्या?’
मां का स्वर लरजा, ‘न... वे घर पर कहां हैं? कल शाम ही शहर चले गए थे। छोटा कह रहा था कि होटल में कोई पार्टी रखी गई है। रात वहीं रहेंगे। सुबह वह ससुराल होकर आएगा। छोटी बहू को भी मायके गए दो महीने हो गए हैं।’
बाबू जी ने कहा, ‘दोपहर बाद वे आ जाएंगे। तुम लोग स्नान करना है तो कर लो। पानी गरम कर रखा है।’
‘मुझे तो बड़े जोरों की नींद आ रही है। बस में भीड़ के कारण बड़ी परेशानी हुई। अभी पूरी नींद लूंगा। उठकर स्नान करूंगा। फिर शाम की पूजा की तैयारी भी तो करनी है।’ दीपक ने प्रत्युत्तर में कहा।
‘पूजा की तैयारी पूरी है। छोटा कह गया था कि मिठाइयां और मोमबत्तियां वगैरह लेता आएगा।’
दीपक अपने कमरे में जाकर सो गया। दस बजे जब नींद से जागा तो स्वयं को थकान से मुक्त पाया। उठकर स्नान किया, नाश्ता करने के बाद मुन्नी को लेकर खेतों की ओर निकल गया।
लगभग घंटे भर बाद लौटकर पत्नी के साथ घर की साफ-सफाई में थोड़ा समय गुजारा। दोपहर का भोजन किया और छोटे का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। इसी बीच उसने तीन-चार बार छोटे को मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश की परंतु नेटवर्क की समस्या के कारण असफल रहा।
धीरे-धीरे शाम हो आई, पर छोटा नहीं आया। वह मुन्नी को साथ लेकर कस्बे की ओर बढ़ गया, जहां सुबह बस से उतरे थे। कई दुकानें हैं वहां और आवश्यकता की सभी चीजें मिल जाती हैं। वहां से मोमबत्तियां, फुलझडि़यां और अन्य कुछ जरूरी सामान लेकर वह लौट आया।
अंधेरा पसरने पर उसने मोमबत्तियों की कतारें घर के द्वार पर और पिछवाड़े सजा दीं। दीये जला दिए गए। बाबू जी ने पिछले वर्ष खरीदा रंगीन छोटी-छोटी बत्तियों का प्रकाश घर के मुख्यद्वार पर टांग दिया। बत्तियां टिमटिमाने लगीं और अमावसी अंधेरा भागकर पहाड़ों में खो गया। बसे अधिक खुश थी तो मुन्नी। इधर-उधर दौड़ रही थी और कभी जाकर मम्मी-पापा तो कभी दादा-दादी की गोद में बैठ जाती। बाबू जी अपनी दैनिक संध्या पर बैठ गए। मां भी वहां आ गई। दीपक और प्रभा भी पूजा में शामिल हो गए परंतु दीपक का मन छोटे की प्रतीक्षा में बाहर टंगा था।
तकरीबन नौ बजे बाबूजी बोले, ‘अब आज वे शायद नहीं आएंगे, पर आज के दिन तो...।’
दीपक बुझ-सा गया।
रात्रि के भोजन के बाद वह थोड़ी देर बैठा आपस में घर, खेत और नाते-रिश्तेदारों की बातें करता रहा। फिर साढ़े दस बजने पर सब अपने-अपने बिस्तर की ओर जाने ही लगे थे कि छोटे ने पत्नी के साथ घर में प्रवेश किया। आकर दीपक और प्रभा के पांव छुए। कुशलक्षेम पूछने के बाद उसने कहा, ‘भोजन तो कर लिया होगा आप लोगों ने। हम भी करके आए हैं। देर हो चुकी है। अब सुबह ही इत्मीनान से बातें करेंगे।’
अपने पीछे शराब की गंध का भभका छोड़ता छोटा अपने कमरे में चला गया।

Advertisement

Advertisement