धनबल छल
हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय के छापे में झारखंड की राजधानी रांची में राज्य सरकार के एक मंत्री के निजी सचिव के सहायक के घर से करोड़ों रुपये के ढेर बरामद होना, हर नागरिक को परेशान कर गया। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि यह धन कैसे जुटाया गया होगा और चुनाव के दौरान इसकी क्या भूमिका हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि एक अदने से आदमी के घर इतना धन कैसे पहुंचा? कौन इस खेल के खिलाड़ी हैं? पैसा किसका था? निस्संदेह, ऐसे तमाम सवाल आम नागरिकों को परेशान करते हैं। हालांकि,यह छापेमारी झारखंड ग्रामीण विकास विभाग के मुख्य अभियंता से जुड़े एक मामले में हुई थी, जिसे पिछले वर्ष ईडी ने धन शोधन के मामले में गिरफ्तार किया था। धनशोधन का एक हिस्सा मंत्री के निजी सचिव व उसके घरेलू सहायक से भी जुड़ा था। जाहिर बात है कि सचिव व सहायक तो मात्र मोहरे हैं और बड़े स्तर के संरक्षण के बिना नोटों के अंबार नहीं लगाये जा सकते। प्रकरण यह भी बताता है कि कैसे विकास कार्यों का पैसा उच्च अधिकारियों की मिलीभगत से राजनेताओं तक पहुंचता है। बहरहाल, हाल के दिनों में आम चुनाव की प्रक्रिया में चुनाव आयोग की सख्ती के चलते भारी मात्रा में जो नगदी आदि बरामद की गई है, वह भी चौंकाने वाली है। पहले चरण के मतदान से पूर्व चार हजार छह सौ करोड़ रुपये मूल्य की बरामदगी हो चुकी थी। यह बरामदगी आजाद भारत के आम चुनावों के दौरान हुई सबसे बड़ी बरामदगी है। आयोग के अधिकारियों का कहना है कि हर रोज सौ करोड़ रुपये मूल्य की बरामदगी हो रही है। इस बरामदगी में पैंतालीस प्रतिशत हिस्सा मादक पदार्थों का रहा है। जाहिर है ये नगदी, सामान व नशीले पदार्थ मतदाताओं को बहकाने,भ्रमित करने व लुभाने के लिये ही ले जाए जा रहे थे। ये कोशिशें धनबल के जरिये चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की हो रही थीं।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि चुनाव के दौरान काले धन को सफेद करने की कवायदें खासी तेज हो जाती हैं। इस कालेधन का महज एक छोटा हिस्सा ही चुनाव आयोग और दूसरी नियामक एजेंसियों की नजर में आता है। राजनीतिक दल भी पांच साल तक ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से अर्जित धन को चुनावी चंदा बताकर मतदाताओं को बहकाने-लुभाने में खर्च करते रहे हैं। बहुत सारे अनैतिक धंधों से जुड़े लोग भी चुनाव के दौरान जीतने वाले राजनीतिक दल या प्रत्याशी को आर्थिक सहायता देकर बाद में मोटा मुनाफा हासिल करते हैं। यह विडंबना ही है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी हम अपनी चुनाव प्रणाली को पारदर्शी व स्वतंत्र नहीं बना सके। यही वजह है कि चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले संदिग्ध धन का उपयोग कई तरीके से किया जाता रहा है। हाल के दिनों में शीर्ष अदालत की सक्रियता से चुनावी बॉन्डों के लेनदेन में जो विसंगतियां उजागर हुई उसे सारे देश ने देखा। कैसे दागदार कंपनियां भी चुनावी बॉन्ड खरीदकर पाक-साफ बनी और बड़ी योजनाएं हासिल करने में सफल हुई। जाहिर है कि बड़ी कंपनियां राजनीतिक दलों के चंदे में निवेश इसी मकसद से करती हैं कि जब उनकी सरकार बने तो मुनाफे के शार्टकट हासिल किये जा सकें। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की कारगुजारी पर नजर रखने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने कई ऐसे रुझान उजागर भी किये। इस मामले में अदालतों के अलावा चुनाव आयोग को भी अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप लोकतंत्र को प्रभावित करने वाले धनबल पर अंकुश लगाने के लिये सख्त कदम उठाने होंगे। इस दौरान उन सरकारी अधिकारियों पर भी निगाह रखी जानी चाहिए जो अनुचित ढंग से राजनीतिक दलों को मदद करने का प्रयास करते हैं। उनकी कोशिश होती है कि भविष्य में उस दल की सरकार बनने पर मलाईदार पद व मनचाही पोस्टिंग हासिल की जा सके। आयोग को चुनाव प्रक्रिया के दौरान अनुचित धन के प्रवाह पर अंकुश लगाने के लिये कठोर कदम उठाने चाहिए। इस दौरान मादक पदार्थों व शराब की बड़ी मात्रा में बरामदगी भी गंभीर चिंता का विषय है। चुनाव आयोग की शक्तियों के विस्तार की भी जरूरत महसूस की जा रही है।