ब्लैक होल के रहस्यों की थाह लेने का मिशन
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वैज्ञानिक नहीं जानते कि इस ब्रह्मांड में कितने ब्लैक होल हैं और वे आते कहां से हैं। फिर भी यह एक अंदाज़ा है कि 10 करोड़ से ज्यादा ब्लैक होल सिर्फ हमारी आकाश गंगा में ही हैं। हालांकि वैज्ञानिक अपने प्रेक्षणों से इनमें से महज 20 ब्लैकहोल्स का पता लगा सके हैं। वर्ष 2022 में गाया बीएच-1 नाम का जो ब्लैक होल मिला था, उससे पृथ्वी के सबसे करीब माना जाता है। मिल्की वे यानी आकाशगंगा के ओफाशस तारामंडल में स्थित गाया बीएच-1 हमारी पृथ्वी से 1,610 प्रकाश-वर्ष दूर है। एक प्रकाश-वर्ष की दूरी करीब 94.6 खरब किलोमीटर होती है। यह हमारे सूर्य से 10 गुना ज्यादा बड़ा है। इससे पहले जो ब्लैक होल पृथ्वी के सबसे करीबी होने का तमगा रखता था, वह 3 हजार प्रकाशवर्ष दूर मोनोसेरोस तारामंडल में है। यहां एक सवाल यह है कि आखिर ब्लैकहोल्स की अभी इतनी चर्चा की जरूरत क्या है।
इसरो के एक्स्पोसैट से खुलेगा पिटारा
वजह है भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन- इसरो का एक नया अभियान, जिसका एक उद्देश्य ब्लैक होल की उपस्थिति का पता लगाना। यूं तो ब्लैक होल को लेकर कई प्रस्थापनाएं सामने आ चुकी हैं। कुछ साल पहले इसकी एक तस्वीर भी प्रेक्षणों के आधार पर सृजित की जा चुकी है। पर यह विषय इतना पेचीदा, रहस्यमय और दिलचस्प है कि इस संबंध में होने वाली कोई भी नई पहल दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचती है। इसीलिए इधर पहली जनवरी 2024 को इसरो ने जब एक्सरे पोलारीमीटर सैटेलाइट (एक्सपोसेट) का प्रक्षेपण किया तो ब्लैक होल एक बार फिर चर्चा में आ गए। इसरो के मुताबिक यह उपग्रह ब्लैक होल और न्यूट्रॉन तारों समेत ब्रह्मांड के 50 सबसे चमकीले ज्ञात स्रोतों का करीबी अध्ययन करेगा। यह उपग्रह खास तौर से एक्स-रे स्रोतों की सूचनाएं जमा करेगा। दुनिया में यह अपनी किस्म का सिर्फ दूसरा अभियान है। इसरो से पहले अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा 2021 में जिस उपग्रह- इमेजिंग एक्सरे पोलारिमेट्री को प्रक्षेपित किया था। उसका उद्देश्य भी अंतरिक्ष में स्थित एक्स-रे स्रोतों का पता लगाना था। इससे आगे बढ़कर इसरो ने जिस एक्सपोसेट को अंतरिक्ष में भेजा है, वह ब्लैक होल के साथ-साथ आकाशगंगाओं के सक्रिय नाभिक, न्यूट्रॉन तारों और और गैर-तापीय सुपरनोवा तारों के अवशेषों की जानकारी भी जुटाएगा। निश्चय है इनमें सबसे ज्यादा दिलचस्पी ब्लैकहोल्स को लेकर है।
पहेली क्यों हैं ब्लैक होल
असल में ब्रह्मांड की अनेक रहस्यमय गतिविधियों की सूची में ब्लैक होल शीर्ष पर माने जाते हैं। अब तक की वैज्ञानिक समझ यह बताती है कि ब्लैकहोल ज्ञात अंतरिक्ष में मौजूद ऐसी जगहें हैं, जिनमें जाने के बाद कोई चीज बाहर नहीं आती और वह उस ब्लैक होल के द्रव्यमान में शामिल हो जाती है। यहां तक कि प्रकाश की किरणें भी ब्लैक होल में जाकर खो जाती हैं। इसलिए ब्लैक होल की उपस्थिति का पता ही नहीं चलता। ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण भी इतना अधिक होता है कि वह अपने आसपास की सभी चीजों को अपनी ओर खींचता और अवशोषित करता रहता है। एक बार अवशोषित करने के बाद ये चीजें कहां जाती हैं- इसकी भी कोई जानकारी वैज्ञानिकों के पास नहीं है। इतना जरूर कहा जाता है कि बहुत से बड़े तारे बुझने यानी मरने यानी खत्म होने की प्रक्रिया में होते हैं, तो ब्लैक होल में बदल जाते हैं। जैसे एक दावा किया जाता है कि हमारा अपना सूर्य भी कुछ अरब साल बाद बूढ़ा होकर मरते हुए ब्लैक होल में बदल जाएगा। इस प्रक्रिया में सूर्य पहले व्हाइट ड्वार्फ (श्वेत वामन) तारे में बदलेगा और फिर धीरे-धीरे ब्लैक होल में तब्दील हो जाएगा। तब हो सकता है कि यह सौरमंडल में मौजूद पृथ्वी समेत अन्य सभी ग्रहों को निगल जाए। एक रोचक तथ्य यह कि ब्रह्मांड की सभी मंदाकिनियों (गैलेक्सी) के केंद्र में ब्लैक होल हैं। ये असल में वे तारे हैं जो खत्म होने की प्रक्रिया में है।
ऐसा नहीं है कि अब तक के अध्ययनों और प्रेक्षणों के बल पर वैज्ञानिकों को ब्लैक होल के निर्माण और व्यवहार के बारे में कुछ न पता चल पाया हो। असल में, इनमें से कुछ प्रस्थापनाएं अवधारणा के स्तर पर हैं तो कुछ के बारे में टेलीस्कोपों, उपग्रहों और अध्ययनों से मिली जानकारियों और आंकड़ों (डाटा) के आधार पर अनुमान लगाए गए हैं। जैसे, मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने ब्लैक होल की शक्ति का वर्णन करते हुए कहा था कि ये अंतरिक्ष में जहां मौजूद होते हैं, वहां भौतिकी के सामान्य नियम काम नहीं करते। ये अपनी जगह पर अपने ताकतवर गुरुत्वाकर्षण के बल पर इतना अधिक खिंचाव पैदा करते हैं कि आसपास की सारी चीजें – यहां तक छोटे ब्लैक होल भी- खिंचकर इसके केंद्र की तरफ उड़ते हुए चले जाते हैं। तब ब्लैक होल उन सारी चीजों को चूसकर गायब कर देता है। आइंस्टाइन ने यह भी कहा था कि ब्लैक होल का ताकतवर गुरुत्वाकर्षण अपने आसपास के अंतरिक्ष को लपेटकर एक घुमावदार (कर्व) संरचना पैदा कर देता है। लेकिन क्या ऐसी भी कोई स्थिति आती है, जब खुद ब्लैक होल भी गायब हो जाता है। इस बारे में एक अन्य मशहूर भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिंग ने अपने अध्ययन के आधार पर कहा था कि विकिरण की एक खास प्रक्रिया (हॉकिंग रेडिएशन) की वजह से एक ऐसी स्थिति भी है, जब ब्लैक होल पूरी तरह द्रव्यमान से मुक्त हो जाता है और ब्रह्मांड से गायब हो जाता है। इसके बाद क्या होगा, इस पर विज्ञान अभी खामोश है। इस स्थिति के बारे में अभी सिर्फ ये अंदाज़े पेश किए गए हैं कि एक ब्रह्मांड से गायब होने के बाद ब्लैक होल किसी दूसरे ब्रह्मांड में पहुंच जाते हैं।
ब्लैक होल की तस्वीर!
ब्लैक होल के एक स्थान से गायब होकर दूसरे स्थान पर पहुंच जाने की अवधारणा की एक चर्चा वर्ष 2019 में भी उठी थी। असल में, उस समय यानी 10 अप्रैल 2019 को दुनिया में पहली बार किसी ब्लैक होल की जो तस्वीर प्रेक्षणों के आधार पर सृजित कर वैज्ञानिकों ने दुनिया से साझा की थी। इस तस्वीर को वास्तविकता के काफी करीब माना जाता है। इससे पहले ब्लैक होल की जितनी भी तस्वीरें या रेखांकन हैं, वे पूरी तरह कल्पना पर आधारित हैं। या कहें कि वैज्ञानिक अनुमानों-कल्पनाओं पर आधारित कलाकार की प्रस्तुति मात्र हैं। हालांकि 2019 वाली तस्वीर भी वास्तविक ब्लैक होल की छाया मात्र है क्योंकि कोई भी ब्लैक होल प्रकाश की किरणें उत्सर्जित नहीं करता, उन्हें सोख लेता है। इससे उसकी तस्वीर लेना ही नहीं, बल्कि बेहद ताकतवर टेलीस्कोप से भी उसकी उपस्थिति का अनुमान लगाना भी असंभव होता है। लेकिन खगोलविदों ने पहली बार मिस्सीर-87 नामक आकाशगंगा में उसकी मौजूदगी साबित करते हुए उसकी छाया को पकड़ा और उस छाया में चमकदार सुनहरा रंग भरते हुए उसे दिखने लायक बनाया था। यह तस्वीर आग के गोले या चक्र का आभास देती है जिसके किनारे भीतर की ओर मुड़े हुए प्रतीत होते हैं। खगोलविदों के मुताबिक चक्र के भीतर ब्लैक होल मौजूद है। पृथ्वी से 5.4 करोड़ प्रकाशवर्ष दूर एम-87 गैलेक्सी में मौजूद स्थित ब्लैक होल के इस चित्र को फ्रांस, हवाई, मैक्सिको, चिली, स्पेन और अंटार्कटिका में लगे आठ टेलीस्कोप (दूरबीनों) के वैश्विक नेटवर्क से 2012 में शुरू की गई परियोजना इवेंट होराइजन टेलीस्कोप (ईएचटी) के शोधार्थियों ने जमा किए गए डाटा के आधार पर बनाया था। ईएचटी के निदेशक शेफर्ड डेअलमैन ने तब इस तस्वीर के बारे में कहा था कि ब्लैक होल की यह तस्वीर ऐसी है, जैसे पृथ्वी से चंद्रमा पर किसी संतरे या फिर कंकड़ की तस्वीर खींची गई हो। चालीस लाख सूर्यों के बराबर वजनी और 1.5 करोड़ मील लंबे-चौड़े इस ब्लैक होल की तस्वीर से जुड़े डाटा को सिकोड़ते हुए देखने योग्य बनाने में ही खगोलविदों को दो साल लग गए थे।
यात्रा का आरंभ या अंत
पर क्या इतना विशाल ब्लैक होल भी किसी दिन ब्रह्मांड से अचानक ओझल हो सकता है। हमारे सूर्य से 650 करोड़ गुना ज्यादा द्रव्यमान वाले और पृथ्वी से साढ़े पांच करोड़ प्रकाश वर्ष दूर स्थित इस ब्लैक होल के बारे में यह सवाल उठ चुका है कि इतना बड़ा पिंड अचानक गायब होकर कहां जा सकता है। हो सकता है कि मरने के बाद ये विशालकाय बुझे हुए तारे यानी ब्लैक होल कहीं जाते न हों, बल्कि कथित तौर पर दृश्य अंतरिक्ष में सिर्फ दिखना बंद हो जाते हों। वैसे भी ब्लैक होल अपनी उपस्थिति के दौरान ही नहीं दिखाई देते, खत्म होने के बाद कहां जाते हैं- इसके भी सिर्फ अंदाजे ही लगाए जा सकते हैं। अलबत्ता बड़े तारों या ब्लैक होल के खत्म होने या मरने की प्रक्रिया का एक अनुमानित खाका वज्ञानिक खींच चुके हैं। खगोलविज्ञानियों के मुताबिक सूर्य से कई गुना ज्यादा द्रव्यमान वाले बड़े तारों का अंत उनमें हुए प्रचंड विस्फोट यानी सुपरनोवा से शुरू होता है। इस विस्फोट से तारों का ढेर सारा पदार्थ ब्रह्मांड में चारों ओर फैल जाता है। इसके बाद तारे के केंद्र में एक बेहद छोटा और अति-सघन पिंड बचता है। तारों के पदार्थ की सघनता का अंदाजा इससे लगाया सकता है कि इनके एक चम्मच पदार्थ का वजन कई टन हो सकता है। तारा यदि हमारे सूरज जितना बड़ा हुआ, तो सुपरनोवा विस्फोट के बाद वह श्वेत वामन तारा बन सकता है। लेकिन जो तारे हमारे सूर्य से कई गुना ज्यादा बड़े होते हैं, वे नष्ट होने की प्रक्रिया में न्यूट्रॉन तारों में बदल जाते हैं। ऐसे कुछ तारे जो इनसे भी बड़े होते हैं, उनमें सुपरनोवा विस्फोट के बाद भी बचे सघन पिंड का गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ना जारी रहता है। खत्म होते तारों में सुपरनोवा विस्फोट के बाद इतनी अधिक गुरुत्वाकर्षण शक्ति आ जाती है कि वे ब्रह्मांड में अपने निकट मौजूद सभी चीजों को अपनी ओर खींचते हैं, यहां तक कि वे प्रकाश भी सोखने लगते हैं। तारों की यही अवस्था ब्लैक होल कहलाती है। ब्लैक होल बन रहे तारों में एक अवस्था ऐसी आती है जब उनसे प्रकाश के कणों का बाहर निकलना बंद हो जाता है। ऐसा उनके प्रचंड गुरुत्वाकर्षण की वजह से होता है। लेकिन इससे ठीक पहले की अवस्था में उन तारों को महसूस किया जा सकता है। तारों की यह अवस्था इवेंट होराइजन कहलाती है। कह सकते हैं कि इवेंट होराइजन लगातार संकुचित होते और मरते तारे के अंतिम दर्शन की एक अवस्था है। जब कोई ब्लैक होल भीतर की ओर सिकुड़ते हुए सब कुछ अपने में समेटने लगता है तो उसके बाहरी किनारे पर क्वांटम प्रभाव के कारण गर्म कण टूट-टूटकर ब्रह्मांड में फैलने लगते हैं। उस दौर में बाहरी हिस्सा इवेंट होराइजन कहलाता है, जहां से भीतर जाने पर समय (टाइम) और अंतरिक्ष (स्पेस) अपना अर्थ खो देते हैं और तब भौतिक विज्ञान का कोई नियम वहां काम नहीं करता है। एक तरह से किसी तारे का ब्लैक होल में बदलना एक प्रकार से जीवन को लेकर उसके वैराग्य यानी मोह-बंधन छूटने का पल कहला सकता है। ऐसे में न सिर्फ उस तारे के मोह-बंध टूट जाते हैं, बल्कि वह अपने इर्दगिर्द के ग्रह-नक्षत्रों और प्रकाश की किरणों तक को विलुप्त करते हुए अंतरिक्ष की उन गहराइयों में खो जाता है जहां से हो सकता है कि उसके किसी नए सफर की शुरुआत होती हो।
सस्ते अभियान जो कामयाब भी
ब्लैक होल और 50 अन्य खगोलीय पिंडों के गहन शोध अभियान पर अंतरिक्ष में पहुंचे इसरो के एक्सपोसैट की एक जानी-मानी खासियत इसका बेहद सस्ता होना है। पांच साल तक काम करने वाला यह एक्स-रे पॉलिमीटर सैटेलाइट महज 30 मिलियन डॉलर में तैयार कर लिया है। नासा के मिशन की तुलना में यह आज भी कई गुना सस्ता है, ठीक उसी तरह जैसे भारत का मंगल मिशन – मार्स ऑर्बिटर 100 करोड़ डॉलर में बनी हॉलीवुड की फिल्म- ग्रैविटी के मुकाबले सिर्फ 72 करोड़ डॉलर में तैयार कर लिया गया था। मामला सिर्फ लागत या कीमत का नहीं है। भारतीय रॉकेटों की सफलता दर भी काफी ऊंची है। पिछले कई वर्षों से पीएसएलवी रॉकेट कई विदेशी सैटेलाइटों को अंतरिक्ष की कक्षा में सफलतापूर्वक भेज चुके हैं। असल में, अब इसरो का खास ध्यान अंतरिक्ष संबंधी शोध और कारोबार से देश के लिए पूंजी जुटाने पर है। स्पेस मिशनों में तकरीबन आत्मनिर्भर हो चुके इसरो को इसके लिए निजी सेक्टर से सहयोग लेने में भी कोई गुरेज नहीं है। अब उसकी कोशिश है कि प्राइवेट सेक्टर की मदद से वह उपग्रहों और रॉकेटों के निर्माण में तेजी लाए और उन रॉकेटों के जरिये विभिन्न देशों के सैटेलाइट बेहद प्रतिस्पर्धी कीमतों पर अंतरिक्ष में छोड़े और इससे राजस्व कमाए। इसी एक मिसाल तो पीएसएलवी के लगातार सफल प्रक्षेपण हैं। पीएसएलवी की शुरुआत सितंबर 1993 में हुई थी। हालांकि उसका पहला ही प्रक्षेपण नाकाम रहा था, लेकिन उसके बाद लगातार सफल प्रक्षेपणों के बलबूते उसने अपनी कामयाबी और उपयोगिता साबित कर दी है। उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण के मामले में स्थिति यह है कि अमेरिका की स्पेस एजेंसी- नासा की सिद्धहस्तता भी अब इसरो से कम आंकी जा रही है। जहां तक सफलता और अचूकता का सवाल है, तो इसरो के पीएसएलवी की तुलना सिर्फ रूस के सोयूज यानों से की जा सकती है, जिनका इस्तेमाल मानवसहित यानों के प्रक्षेपण में किया जाता रहा है। प्रक्षेपण की अचूकता ही पीएसएलवी की एकमात्र सफलता नहीं है। बल्कि जिस कीमत में पीएसएलवी से दुनिया भर के उपग्रह छोड़े जाते हैं, उससे भी दुनिया का भरोसा इस रॉकेट में और इसरो में जगा है। इसरो पीएसएलवी से जिस कीमत पर देसी-विदेशी उपग्रह अंतरिक्ष में भेजता है, उस कीमत में सैटेलाइट लॉन्चिंग विकसित मुल्कों के लिए फायदेमंद नहीं है। अनुमान है कि इसरो से उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने की लागत अन्य देशों के मुकाबले 30-35 प्रतिशत कम है। हालांकि इसरो इस कीमत का खुलासा नहीं करता, पर माना जाता है कि वह एक उपग्रह को लॉन्च करने के लिए अमूमन 25-30 हजार डॉलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से शुल्क लेता है और इसके पास 500 से 5000 किलोग्राम वजन तक के सैटेलाइट छोड़ने लायक रॉकेट हैं।
लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं।