आईना
कुछ आईने उसे बहुत अच्छे लगते, कुछ बहुत घटिया। किसी काम के न होते! वजह छोटी-सी थी। जिस आईने में उसकी शक्ल अच्छी दिखती, वही उसके लिए उम्दा होता। कुछ तो ऐसे बेशर्म आईने थे जिनमें उसका अच्छा-खासा चेहरा बूढ़ा दिखाई देता। झुर्रियों की परत-दर-परत खोलता हुआ। कभी ऐसा लगता, जैसे आईने पर धुंध जमा हो। ऐसी धुंध जो लाख साफ करने के बावजूद जमी रहती। सबसे बेकार तो मैग्नीफाइंग ग्लास थे, चेहरे की हर विकृति को और बड़ा करके दिखाते। काले धब्बे, छोटे बाल, झूलती चमड़ी…। कुल मिलाकर वह सब कुछ, जो किसी इंसान को निराश करने के लिए पर्याप्त होता है।
रचनाओं के साथ भी अकसर यही होता। तारीफ के पुल बांधने वाले लोग उसे बहुत अच्छे लगते। कमियां गिनाने वाले कट्टर दुश्मन। रोज-रोज कई गुलदस्ते, फूलों के ढेर और प्यार लुटाती रोमांटिक कविताओं की पंक्तियां सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर उसका स्वागत करते। चाहे फेसबुक पोस्ट हो, इनबॉक्स हो, व्हाट्सएप हो, इंस्टाग्राम हो, ट्विटर या फिर ईमेल।
और यह सब भेजने वाले एक नहीं, अनेक थे। बधाइयों, शुभकामनाओं के संदेशों में हर दिन नए-नए प्रेमी जन्म लेते जो रचनाओं पर नहीं, उसके व्यक्तित्व पर बात करते। चेहरे का तेज, शानदार व्यक्तित्व! छह नंबर के चश्मे से झांकती आंखें भी उन्हें झील-सी गहरी लगतीं, जिनमें वह डूब जाना चाहते। कलम के नहीं बल्कि उसके लिए खूब कसीदे काढ़े जाते। संदेश आते– ‘आपकी रचनाओं से तो पहले से ही खूब लगाव था, अब आपसे भी हो गया।’
‘ये मेरा नंबर है। आपकी मीठी आवाज सुनने को तरस रहा हूं।’
अलग-अलग दिशाओं से शुरू होता यह सिलसिला लगातार जैसे-जैसे बढ़ता रहा, उसका आत्मविश्वास भी डगमगाता गया। हालांकि तारीफें सुनकर खुश होने में उम्र कभी बाधा नहीं बनती, न ही वह सब सुनने का उत्साह कभी कम होता है लेकिन फिर भी, ये मक्खन उसके गले से नीचे नहीं उतर रहा था। भर-भर के मक्खन के कटोरे रोज उसकी खुराक में जबरन शामिल किए जा रहे थे। पुरुष मित्रों के मक्खन और महिला मित्रों के खुंदक भरे संदेशे, तन-मन में आग लगा देते। एक कहती- ‘इतना तेज दौड़ने पर मुंह के बल गिरता है इंसान।’ तो दूसरी सटाक से थप्पड़ ही मार देती- ‘आप फलां पत्रिका में बहुत छपती हैं, संपादक की प्राइवेट ईमेल आईडी हमें भी दीजिए।’
शरीर को भेदती हुई ठोकी जाने वाली ये कीलें चुभन छोड़ जातीं। मानो सारे मित्र उस पर चढ़ाई करते हुए हर तरफ़ से धावा बोल रहे हों। उसके दिलो-दिमाग में गुस्सा, तिलमिलाहट, चिड़चिड़ापन पैठता ही जा रहा था। ठीक उसी तरह, जैसे शेर को रोज-रोज घास खाने को दे देना और कहना- ‘आ शेर मुझे मार।’
क्रोध से बनता बैर, अचार और मुरब्बे की तरह तीखा और मीठा नहीं, कड़वा होता चला गया। जमा हो रहा आक्रोश बाहर निकलने को आतुर था। जल्द ही तीव्र आवेग के साथ लावे की तरह फूटने लगा। सोशल मीडिया पर अपना गुस्सा जाहिर करते उसकी पोस्ट आक्रामक होती, कटुता से भरी। आड़ी-तिरछी हर तरह की मिलती प्रतिक्रियाएं विवादों के घेरे बढ़ाती चली गईं।
बीपी भला क्यों पीछे रहता! तेज होता रक्त प्रवाह सेहत को चुनौती देने लगा। अब शारीरिक और मानसिक यातनाएं कमर कसकर रचनात्मकता को पीछे धकेलने में लगी थीं। अनावश्यक तनावों में झुलसता दिमाग अब एक ही दिशा में फोकस करता कि सबको सबक सिखाना है। उसकी कड़वी पोस्ट का लोग इंतजार करते। हर किसी से जुड़ी शिकायतों का अंबार, कंधों पर बोझ बढ़ाता रहा। झुकते कंधे, विषाक्त मन और शक्की नज़रिया, ये सब मिलकर भीतर ही भीतर फौज की एक बटालियन तैयार कर चुके थे।
कई मित्रों के साथ परिवार के सदस्य भी इस बदलाव से, जहर भरे शब्दों से बचने के लिए उससे कतराने लगे थे। एक अंतरंग मित्र ने उसके इस गुस्से को बेमतलब का बताते हुए सलाह दी- ‘गुस्सा करने के बजाय इनके मजे लेने शुरू करो। तुम्हें कौन इन सबके साथ डेट पर जाना है! जवाब देने की जरूरत ही नहीं। जो भी मैसेज आए, पढ़कर पतली गली से निकल जाओ। मेहनत से लिखा हो तो एक ईमोजी की मुस्कान भर दे दो। क्या बिगड़ता है तुम्हारा! अरे, हरी मिर्च बनने के बजाय तुम भी मक्खन बन जाओ। थोड़ा-सा पिघल जाओ।’
मित्र की इस शरारत पर उसने आंखें तरेर दीं। लेकिन फिर सोचा, सच तो कहा। मक्खन के इन कटोरों को ठुकराने के बजाय थाली में रखा जाए। एक के बाद एक। क्या बुराई है! मन चंगा तो कठौती में गंगा। अब वह रोज मिल रहे मुफ्त के मक्खन का घी बनाने लगी ताकि भूलने का कोई खतरा न रहे, चुने हुए संदेशों को सहेज कर रखने लगी। किसने भेजा, उससे मतलब नहीं था, क्या भेजा वह ज्यादा जरूरी था। कुछ अच्छा-सा, कुछ प्यारा-सा। कुछ भेजने वाले का श्रम और कुछ परिहास, मनोरंजन से भरपूर। एक अलग तरह की ऊर्जा का ज़खीरा। महिला मित्रों से मिलते तेज दौड़ने के तंज सक्रियता बढ़ाने लगे थे।
यह काम एक नया रचना संसार बनाने लगा। अब वह रोज प्रतीक्षा करती कि कहां से कब, क्या आए, और वह उस मक्खन को तपाकर अपने घी के कटोरे में डाल दे। चेहरे पर रौनक ऐसे बनी रहती जैसे पूनम का चांद अपनी संपूर्णता के साथ आकाश में डेरा डाले हुए हो। हर रोज थोड़ा-सा ताजा घी अपनी रोटी के लिए जरूर रखती। एक दिन की खुराक, चौड़ी मुस्कुराहट से भरी-पूरी।
एक सज्जन रोज उसे गुड मार्निंग भेजते थे। उसने कहा- ‘यह हमारा गुड नाइट का समय है, गुड मार्निंग का नहीं।’ जो जवाब मिला, उससे मन चारों खाने चित्त हो गया- ‘तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे... जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे...।’
किसी और मानसिकता में इसे स्वीकार करना मुश्किल था,मगर अब यह एक मजेदार खजाना था। उम्र के किसी भी मोड़ पर ऐसी वाकपटुता कानों में शहद ही उड़ेलती है। यह किसी भी कठोर मन को पिघला सकती है तो फिर ऐसा कौन-सा गुनाह किया था उसने कि इसे सहज नहीं ले सकती! आदमी और औरत के बीच का एक ऐसा रिश्ता जिसे शब्दों की जरूरत हो न हो, देखने की जरूरत हो न हो, पर महसूस करने की जरूरत हो। प्रेम की पींगें बढ़ाने को तो कोई कह नहीं रहा! जरा-सा विनम्र जवाब उस मेहनती इंसान का भी दिन बना देगा जो लगातार ऐसे संदेशों को भेजने की मशक्कत कर रहा है। इसी भलमनसाहत में इन सबको सहजता से लेने लगी थी वह। अब मन शांत रहता। तमाम सारे फूल, गुलाबों के गुलदस्ते, प्यार भरे संदेश, उसे न गुदगुदाते तो क्रोधित भी न करते।
आभासी दुनिया के मक्खन के इन कटोरों को ठुकराते हुए वह पहले अपनी जान जलाती रही थी, पर अब स्वीकार कर लेती। उस संदेश की रचनात्मकता पर लगाए गए समय की तारीफ करती। इससे ये हुआ कि उन मित्रों के बीच दोस्ती भले ही न बढ़ी हो लेकिन दुश्मनी दूर होती गयी। मित्र खुश थे। वह भी खुश थी। गनीमत यह थी कि पति, सुशीम भी इससे वाकिफ थे वरना बेकार ही पति-पत्नी के बीच पंगा हो जाता।
कुछ समय तक यह सिलसिला अच्छी तरह चलता रहा लेकिन उसकी भलमनसाहत लोगों के आईने में कुछ और दिखाने लगी- ‘आप द्वारा निर्मित शब्दों का उम्दा प्रदर्शन काबिलेतारीफ़ बन गया है। आप की मुस्कानयुक्त लेखनी क्षमता आधारित कलात्मक अभिव्यक्ति का कायल हो गया हूं। मैं सीनियर सिटीजन, विधुर, निःसंतान व्यक्ति आपको साधुवाद करता हूं।’
उसकी किसी पोस्ट पर मिली यह प्रतिक्रिया, एक सीधा प्रस्ताव था। खालिस मैट्रिमोनियल प्रस्ताव। सुशीम कहने लगे- ‘तुम्हारा जवाब नहीं, इस उम्र में भी रिश्ते आ रहे हैं।’ वह अपनी वृद्ध अल्हड़ता पर नाज नहीं कर पायी। इस बदसलूकी को घोलकर पी लिया। नाहक ही जान जलाने का क्या फायदा! मक्खन के साथ वह भी उतनी ही मक्खननुमा रहना चाहती थी। इस धैर्य को धारण किए आधा दिन ही बीता था कि एक वीडियो बार-बार इनबॉक्स में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा था। यह किसी बुजुर्ग मित्र से आया था जो प्रोफाइल पर बेहद संजीदा और कामकाजी व्यक्ति नज़र आते थे। इसीलिए उसे खोलकर बड़े चाव से जैसे ही उसने देखा, उसे लगा किसी गलत साइट को उसने खोल लिया है। वह एक बूढ़े का, एक जवान लड़की के साथ अश्लील नृत्य था।
अब उसके धैर्य की हदें पार हो गई थीं। ब्लॉक करना आसान था। पर उससे पहले सबक सिखाना ज़रूरी था। आखिरकार, इस बार उसने कमर कस ली। मित्र, सिर्फ मित्र क्यों नहीं! ऐसा मित्र, जिससे डर न लगे, बल्कि जिसे याद करके तकलीफों में राहत मिल सके। यहां तो मामला ही उलट था। ये सब तकलीफ में राहत की जगह और ज्यादा तकलीफ़ें, अनावश्यक तनाव दे रहे थे। उसने समझ लिया था कि मक्खन का समय अब खत्म हुआ और हरी मिर्ची का शुरू। उस वृद्ध मित्र को ऑन लाइन देखकर तत्काल फोन लगाया। नैतिक सपोर्ट की जरूरत थी इसीलिए सुशीम भी उसके साथ थे। मित्र ने फोन उठाया। उसकी फटकार सुनकर उन्होंने बड़ी सहजता से कहा– ‘मैं भी परेशान हूं। किसी ने मेरे अकाउंट को हैक कर लिया है और कोई मेरे चेहरे को फोटोशाॅप करके लगा रहा है।’
मामला और ज्यादा पेचीदा हो गया था। कौन, किसकी साजिश का शिकार था, कैसे समझ पाते! संदेहों से भरी दुनिया थी। यह पता लगाने का कोई उपाय नहीं था कि कौन अच्छा है, कौन बुरा! अगर बुरा है तो बुराई के पैमाने क्या हैं!
गरम-गरम तेल में डालने पर हरी मिर्ची को भी दर्द होता है। सबको खांसने पर मजबूर करके अपने उस दर्द को वह बांट देती है। उसे लगा कि वह खुद भी हरी मिर्ची में बदलती जा रही है। गरम तेल में तले जाने की छटपटाहट के दर्द को बांटना जरूरी लगा।
तकरीबन पांच हजार मित्रों की विशाल सेना में किसके सर बगावत का ताज पहना पाएगी? कितने अलग-अलग पटल पर युद्ध का बिगुल बजाएगी?
इसी ऊहापोह में सब्जी का छौंक लगाते हुए हरी मिर्च जल गई। इस कदर जली कि खांसते-खांसते उसका बुरा हाल हो गया। चेहरे और आंखों को ठंडे पानी से बार-बार धोया, तब कहीं जाकर कुछ राहत मिली। चेहरा पोंछते हुए आईना सामने था– सच्चाई उगलता। अपने प्रतिबिंब में ही सच्चा मित्र दिख रहा था। खुद को, खुद की आंखों से देखना। अब न मक्खन की जरूरत थी, न हरी मिर्च की।
आईने पर जमी धुंध साफ हो गई थी।