स्त्री अस्मिता और कवि जीवन का दर्पण
सुभाष रस्ताेगी
उषा शर्मा भले ही लेखिका नहीं थीं, लेकिन शब्दों के मर्म से वे भली-भांति परिचित थीं। उनकी सद्यः प्रकाशित डायरी ‘रोजनामचा एक कवि-पत्नी का’ एक समर्पित संस्कारवान कवि-पत्नी के सीधे-सच्चे मन की संपूर्ण उमड़न-घुमड़न और उनके संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व के आईने के रूप में सामने आई है। यह डायरी उनके निधन के बाद प्रकाशित हुई है। काश! यह उनके जीते जी प्रकाशित हुई होती, तो शायद अनुभूति के कुछ अन्य तरल क्षितिज भी उजागर हो पाते।
उषा शर्मा की इस डायरी का संपादन उनके पति, जाने-माने वरिष्ठ साहित्यकार उद्भ्रांत ने किया है। कवि उद्भ्रांत के शब्दों में, कवि-पत्नी उषा जी की इस डायरी की ‘कैफियत’: ‘इसे एक कवि-पत्नी की आत्मकथा भी कहा जा सकता है, जिसमें एक अव्यावहारिक, तुनकमिज़ाज, गुस्सैल पति के कभी-कभी शक-अो-शुब्हा के यंत्रणादायक तीरों से छलनी हृदय को बचाए रखने के कठिन संघर्ष का वर्णन है।’ उषा जी के 3/2/80 के रोजनामचे के इस प्रकरण को इसके साक्ष्य के रूप में देखा जा सकता है: ‘आज सवेरे राजू बोले, ‘तुमको कहीं छोड़ आऊं। तुमको तो तलाक दे देना चाहिए।’ ठीक है, मैं तलाक दे दूंगी, एक शर्त पर कि ये दूसरी शादी कर लें। मेरे बच्चों की देखरेख हो जाएगी।’
दरअसल, यह नोक-झोंक पति-पत्नी की गृहस्थी का एक हिस्सा है, लेकिन तरल संवेदनाएं उन्हें अभिन्न बनाए रखती हैं। सच तो यह है कि पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। तभी तो अपनी पत्नी उषा जी की मृत्यु के बाद महीनों तक वे एक तरह से नीम-बेहोशी की हालत में रहते हैं। दरअसल, पति या पत्नी के बिना जीवन एक-दूसरे के लिए एक अभिशाप बनकर रह जाता है।
उषा शर्मा की सद्यः प्रकाशित कृति ‘रोजनामचा एक कवि-पत्नी का’ में यों तो 20.1.77 से 28.12.83 तक का रोजनामचा दर्ज है, लेकिन यह डायरी नियमित रूप से नहीं लिखी गई है, जैसे इसमें 5.8.80 के बाद 1982 की चर्चा दर्ज है। 4.11.79 के रोजनामचे की यह पंक्तियां काबिलेगौर हैं, जिनकी मार्फत पति-पत्नी के संबंधों की तरलता के आरपार सहसा ही झांका जा सकता है : ‘मुझे तो केवल राजू के साथ ही रहना है। राजू बेचारे चाहे कितना भी डांटते हैं, लेकिन थोड़ी देर में कितना प्यार करते हैं।’
समग्रतः उषा शर्मा की यह डायरी स्त्री की अस्मिता के प्रश्नों को तो उठाती ही है, इसके साथ ही कवि जीवन के सच को भी उजागर करती है।
पुस्तक : रोजनामचा एक कवि-पत्नी का (डायरी) लेखिका : उषा शर्मा संपादक : उद्भ्रांत प्रकाशक ः रश्मि प्रकाशन, लखनऊ पृष्ठ : 105 मूल्य : रु. 200.