दूध की सुध
यह मानवीय मूल्यों के पराभव की पराकाष्ठा है कि दूध की जगह रासायनिक पदार्थों से बना जहरीला पदार्थ धड़ल्ले से बिक रहा है। हकीकत में दूध दुनिया में सबसे ज्यादा मिलावटी खाद्य पदार्थ है, लेकिन भारत में यह संकट बड़ा है। वैसे भारत पिछले दो दशक से दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है। लेकिन लगातार पशुधन संख्या में गिरावट के बावजूद दूध से जुड़े आंकड़े संदेह भी पैदा करते हैं। दूध में पानी मिलाने की कथाएं तो सदियों पुरानी हैं। लेकिन हाल के दशकों में उन खबरों ने डराया है, जिनमें कहा गया कि आपराधिक मानसिकता के मुनाफाखोर दूध में डिटर्जेंट, यूरिया, ग्लुकोज और फॉर्मेलिन आदि मिला रहे हैं। विडंबना देखिये कि सदियों से कहा जाता रहा है कि दूध बलवर्धक व स्वास्थ्यवर्धक पेय पदार्थ है। आज के दौर में खाने-पीने की चीजों में तमाम रासायनिक पदार्थों की मिलावट के बाद एक दूध से उम्मीद होती है कि बच्चे दूध पीकर तंदुरुस्त बनें। लेकिन जब वे रासायनिक पदार्थों से बना दूध पीएंगे तो उनका क्या स्वास्थ्य सुधरेगा? कल्पना कीजिए कि किसी मरीज को डॉक्टर स्वस्थ होने के लिये दूध पीने को कहे और वह नकली दूध पीने से और बीमार पड़ जाए। वहीं दूसरी ओर रेलवे स्टेशनों व बस स्टैंडों पर भी लगातार नकली दूध की चाय बिकने की शिकायतें आती रही हैं। कुछ वर्ष पहले उ.प्र. के एक रेलवे स्टेशन में सफेद रंग से बने दूध की चाय बिकने की शिकायत सामने आई थी। लेकिन इसके बावजूद इस मिलावट पर अंकुश लगाने के लिये हितधारकों की तरफ से कोई गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आते। यह दुखद ही है कि हर घर में प्रयुक्त होने वाले दूध की गुणवत्ता में भारी गिरावट के बाद भी शासन-प्रशासन की दृष्टि में यह गंभीर मुद्दा नहीं है। न ही राजनीतिक दल ही इस गंभीर मुद्दे को संबोधित करते हैं। जिसकी वजह से मिलावट करने वालों के हौसले बुलंद हैं।
बहरहाल, आज यदि समाज में सेहत के लिये घातक रासायनिक पदार्थों से बना नकली दूध धड़ल्ले से बिक रहा है तो स्वाभाविक प्रश्न है कि जिन खाद्य सुरक्षा अधिकारियों के पास खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने का जिम्मा है, क्या वे ईमानदारी से अपने दायित्वों को निभा रहे हैं? दरअसल, इन मलाईदार पदों पर नियुक्ति में जिस तरह धनबल व राजनीतिक बल चलता है, वह पद कालांतर सोने का अंडा देने वाली मुर्गी में बदल जाता है। तभी दिवाली आदि त्योहारों में मिठाई के लिये बाजार में दूध, मावे और पनीर की बाढ़ आ जाती है, लेकिन ऐसी स्थिति वर्ष के शेष महीनों में नहीं होती। सवाल स्वाभाविक है कि दिवाली व अन्य त्योहारों के समय दूध व उसके उत्पादों से जो बाजार भर जाता है, साल के शेष महीनों में वह दूध आदि क्यों नजर नहीं आता? इस खेल की तह तक जाने की जरूरत है। वहीं क्या उपभोक्ताओं को मिलावटी दूध से स्वास्थ्य को पैदा होने वाले खतरों के प्रति जागरूक किया जाता है? विडंबना देखिए कि पंजाब, जहां प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता देश में सर्वाधिक है, वह मिलावटी दूध के दाग को धोने के लिये संघर्षरत है। पिछले तीन वर्षों में राज्य में एकत्र किए गए दूध व दूध से बने उत्पादों के लगभग 18 प्रतिशत नमूने फेल हुए हैं। वहीं दूध-दही के खाने के लिये प्रसिद्ध हरियाणा में भी 28 फीसदी नमूने मानक कसौटी पर खरे नहीं उतरे । जैसे-जैसे त्योहारी सीजन नजदीक आ रहा है नमूने भरने, तलाशी लेने और मिलावट करने वालों की धरपकड़ की रस्मी कार्रवाई तेज हो जाएगी। लेकिन अब तक सुना नहीं गया कि किसी दोषी को कोई बड़ी सजा मिली हो। दरअसल, इन मामलों में कड़ी सजा न मिलने से मिलावट करने वालों के हौसले बुलंद रहते हैं। उन्हें पता है कि आखिरकार येन-केन-प्रकारेण वे बच ही जाएंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि आम उपभोक्ता के लिये दूध में मिलावट की पहचान करने वाली किट बाजार में सहजता से उपलब्ध हों। इस किट को किफायती, उपयोगकर्ता के अनुकूल तथा सटीक जानकारी देने वाला बनाया जाए। खाद्य सुरक्षा एजेंसियों को उत्पादों की जांच, नमूने लेने तथा दोषी पाये जाने पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।