मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

प्रवासी की पहेली

06:49 AM Sep 17, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

डॉ. विमल कालिया
शायद ही कोई शहर होगा जहां चौराहे न हों। चौराहे मतलब सड़क की वो जगह जहां चारों दिशाओं से आती हुई चार सड़कें आपस में मिलती हैं। उस जगह पर एक गोल आकार की एक छोटी या बड़ी संरचना बना दी जाती है और चौराहा या गोल चक्कर तैयार। फिर उस पर फूल, घास, रोशनी, मूर्ति या फव्वारा लगा दिया जाता है। हैरानी की बात यह कि कई चौराहे जीवंतता के पर्याय हो जाते हैं, उनका नामकरण हो जाता है और वो प्रतीक चिन्ह बन जाते हैं। कहीं गोल डिक्की, कहीं गांधी चौक, मटका चौक हर शहर में मिल जाते हैं? नामचीन चौराहे।
हमारा शहर तो जाना ही जाता है हमारे बड़े, गोल और विस्तृत चौराहों की वजह से। मेरे सेक्टर के पास वाला राउंड अबाउट कुछ खास नहीं था। मैं रोज़ गुज़रता था ऑफिस जाते वक्त, ऑफिस से लौटते हुए, बाजार जाते और आते, इस गोलचक्कर से स्कूटर पर। मेरे यहां शिफ्ट होने से पहले से ही मौजूद था, चार सेक्टरों के कोनों को मिलाता-सा यह बड़ा-सा, गोल राउंड अबाउट। सो, उसके अबाउट चक्कर लग ही जाता था रोज़ ही बिना नागा।
यूं तो हरी घास के द्वीप से बने हुए थे पर फूल या क्यारियां मैंने वहां कभी नहीं देखी। अगर वहां एक फव्वारा लग जाता तो बस चार चांद लग जाते उसकी खूबसूरती पर। शायद कभी लग भी जाये, लेकिन अभी तो बड़ा परित्यक्त-सा लगता वो चक्रिल परिपथ। शायद, इसलिए कि शहर के बाहर वाले सेक्टरों में स्थित था वो। खैर, इस चौराहे पर चारों ओर के सेक्टर खत्म होते थे और उनकी बड़ी-बड़ी कोठियों के पिछवाड़े उस चौराहे पर झांकते। इन अट्टालिकाओं के गलियारे दिखते चौक से, ऊपर छत पर बने नौकरों का हिस्सा भी और उनके लिए बनी सीढ़ियां भी। कहीं सूखते कपड़े दिख जाते और आम के पेड़ की फुनगियां भी।
इन घरों की पिछली दीवारों पर लोहे की बाड़ लगी हुई थी और उन दीवारों और चौक की परिधि के बीच में एक खाली-सी जमीन थी, फिर एक पटरीनुमा कुछ था, फिर अभिगम मार्ग, फिर एक पटरी और फिर सड़क। जब चक्रदौला से अर्द्धचक्कर लगा कर स्कूटर दौड़ता तो सारा हिस्सा चारों ओर से विशाल लगता। कभी इक्का-दुक्का कुत्ते दिख जाते बैठे हुए अथवा लड़ते हुए और कभी कोई गाय भटक आती और मैदान की घास चरती दिखाई दे जाती।
कोई छह-आठ महीने पहले मैंने ध्यान से देखा कि पटरी पर अट्टालिका की छाया में एक भिखारी पड़ा हुआ था। मन में कई ख़्याल उठ आये। ‘कौन होगा? कैसे पहुंचा होगा यहां? कोई छोड़ गया होगा उसे? क्या लिवाने भी आयेगा?’ पर सवाल मन में उठे और स्कूटर की हवा के साथ ही हवा हो गये।
शाम को लौटते वक्त फेरदार के दूसरी ओर से गुजरा तो उस ओर ध्यान ही नहीं गया। हां, सुबह ऑफिस जाते वक्त फिर उस पर नज़र पड़ गयी। मैंने स्कूटर कुछ धीमा कर दिया। चार खाली बोरियों के बिस्तर पर वह आदमी लेटा हुआ था। सिरहाना भी खाली बोरियों का बनाया हुआ था। कुछ पॉलिथीन-नुमा चद्दर भी बिछी हुई थी, शायद भीख के सिक्कों के लिए। एक एल्यूमीनियम का कटोरा, एक पानी से भरी प्लास्टिक की हरी-सी बोतल भी वहीं पड़ी थी। बस इतना ही देख पाया और स्कूटर दौड़ा लिया। साथ में ही ख्याल दौड़ने लगा। ‘कौन देखता होगा इसे? खाना कौन देता होगा? कौन भीख देता होगा? बहुत कम लोग गुज़रते हैं यहां से। गाड़ियां, स्कूटर तो रुकते ही नहीं।’ बाद में ऑफिस के काम में व्यस्त हो गया और वह मेरे दिमाग से उतर गया।
एक रविवार के दिन चौक से गुज़रा तो वह फिर दिखाई दे गया। वहीं पर, वैसे ही। मैंने स्कूटर सड़क के किनारे खड़ा किया और उतर गया। उसने मेरी तरफ देखा ही नहीं। अपनी कोहनी के सहारे वैसे ही लेटा रहा आसमान की ओर ताकता हुआ। उसके बाल अस्त-व्यस्त से थे और दाढ़ी बढ़ी हुई थी। चेहरे की और बाहों की चमड़ी बता रही थी कि कई दिनों से वह नहाया नहीं था। मैला-कुचैला सा कुर्ता-पायजामा शायद कभी बदला ही नहीं गया था। नाखून लेकिन बढ़े हुए नहीं थे। शायद नाखून खाने की आदत होगी उसे। मैं और नज़दीक जाने की सोच रहा था, कि उसने मुझे हाथ से झिड़क सा दिया। बोला कुछ नहीं। मुझे लगा, शायद मैंने इसकी तंद्रा तोड़ दी इसलिए वो गुस्सा हो गया।
मैंने झट से कुछ नोट वहां फेंके और लौट गया। पर वो मेरे साथ ही लौट आया विचारों में। ‘क्या उसका परिवार है?’ क्या उसके परिवार ने उसे त्याग दिया है? क्या वो परिवार छोड़ कर भगोड़ा होकर तो नहीं आ गया? पढ़ा-लिखा है क्या? बोल-सुन सकता है या गूंगा-बहरा तो नहीं? कहीं भिखारियों की मंडली का सदस्य तो नहीं और उसका पेशा ही भीख मांगना हो। कुछ पता नहीं था, सो उसका विचार घर पहुंच कर भी कुरेदता रहा मुझे।
मैंने अपनी अर्द्धांगिनी से जिक्र किया और उसके बारे में वार्तालाप करते हुए ही कब उसका नामाकरण ‘भीखू’ हो गया मालूम ही नहीं हुआ।
मनोरमा कभी रोटी-सब्ज़ी देती भीखू के लिए, कभी फ्रिज से मिठाई।
मैं चौराहे के किनारे स्कूटर खड़ा कर उसे वह पकड़ा आता। नहीं, रख आता क्योंकि वह कभी भी हाथ नहीं पसारता था। अनभिज्ञ-सा लेटा रहता और मैं वह खाने का सामान कटोरे के पास रख कर चला आता। मैं जाते-जाते उसे देखता, तो वह अपनों में ही मग्न होता, जैसे कोई सरोकार ही न हो, मुझसे, उस भोजन से, उस चौराहे से और वहां से गुज़रने वालों से। कौन था वो? और ऐसा क्यों था? और कब से ऐसा था? क्या उसकी मानसिक स्थिति ठीक थी? और, वह कभी सामान्य था, हमारी-तुम्हारी तरह। सो, इन बेहिसाब सवालों के जवाब, बगैर लिए मैं स्कूटर दौड़ा लेता ऑफिस की तरफ।
सर्दियां आ पहुंची और चौक धुंध की चपेट में आ गया। वो बड़ी-बहुमंजिला इमारतें छाया मात्र प्रतीत होने लगीं। जब सुबह ऑफिस जाता तो हाथ सुन्न हो जाते। उस धुंध में तो चौक भी एक केंद्रीय द्वीप-सा दिखता। भीखू भी एक अधलेटी-सी छाया-सा लगता। हां, कोई एक जैकेट दे गया था उसे और उसने वह पहन भी ली थी। कोई और भी था जो उसके लिए सोचता था। यह सोचकर कुछ सुकून मिला।
मौसम खुलने लगा। एक दिन मैंने पाया कि भीखू जहां रहता था, उसकी कुछ दूरी पर एक मौसमी वाले ने रेहड़ी लगा ली है। एक लाल-सी बड़ी-सी छतरी उसने गाड़ रखी थी और उसके नीचे उसका ठेला था। पैंट-शर्ट पहने वह रेहड़ी वाला खड़ा था। उसने कोई आवाज़ नहीं लगाई। बस एक कपड़े से मौसंबियां पोंछ-पोंछ कर ढेर पर सजा रहा था। मैंने स्कूटर ऑफिस की तरफ बढ़ा दिया। खुश था कि भीखू के पास भी अब कोई है। थोड़ी-सी चिंता कम हुई। पर अब वो मौसंबी वाला विचारों में आ गया। कौन होगा वह? क्या पढ़ा-लिखा होगा? यहां क्यों आ गया रेहड़ी लगाने? कौन रोकेगा गाड़ी उसके मीठे नींबू खरीदने के लिए?
शाम को ऑफिस से लौटा तो पाया, इस पार भीखू भी था और मौसंबी वाला भी। उसने बैटरी से एक बल्ब भी जला लिया था। उसकी रोशनी में उसकी पानी की हरी बोतल चमक रही थी। मैंने घर जाकर जिक्र किया तो अर्द्धांगिनी जी ने कहा, ‘कल लौटते वक्त मौसंबियां लेते आना। और हां, भीखू के लिए कुछ मीठी रोटियां ले जाना। काफी दिन चल जाती हैं। खराब नहीं होतीं। और हां, मौसंबिया ज्यादा लाना। जूस बना लेंगे। कमाल का फल है, आधा महीना यह फल खराब नहीं होता।’
सो अगले दिन ऑफिस से वापसी पर पूरा चौराहा पार किया। गर्मी थी, सो घुमावदार काली सड़क आंख में काजल-सी प्रतीत हो रही थी। मैं रुका और भीखू को देखा। वो हमेशा की तरह बोरी से टेक लगाये अपने जटा स्वरूप बालों को अंगुली पर घुमा रहा था। मैं मौसंबी वाले की तरफ हो लिया। मैंने उसे कभी हांक लगाते हुए नहीं सुना था। आज भी वह कपड़ा ले मौसंबियों को साफ कर सलीके से एक-दूसरे के ऊपर जंचा-जंचा कर रख रहा था। बड़े संयमित हो उसने मुझे तीन किलो मौसंबियां दीं। जैसे बाकी फल वाले होते हैं न जो तौलते-तौलते आपके छंटे हुए फलों में एक-आध सड़ा फल डाल देते हैं, उसने ऐसा कुछ नहीं किया।
मुझे विचार आया कि शहर में कभी मलेरिया, कभी डेंगू, कभी अनाम वायरल बुखार, टाइफाइड फैला ही रहता है। हर मौसम में कोई न कोई बीमारी और मौसंबियां तो हर एक को चाहिए। सो इसकी दुकान तो खूब चलती होगी मौसंबियों के सहारे। लाल रंग की फ्लेक्स पर हरी-हरी मौसंबियां बहुत ही सुंदर लग रही थीं। इतने में पीछे वाली कोठी से एक नौकर दो कुत्ते लेकर आता दिखा। ये बड़े-बड़े जवान और तगड़े जर्मन शैपर्ड नस्ल के कुत्ते। उनके गले में चमड़े के पट्टे थे और स्टील की चेन जो उसके हाथ में थी। दोनों, नहीं तीनों ही बड़े शांत भाव से इधर की ओर आ रहे थे। नौकर ने सिगरेट सुलगा ली और पास के पत्थर पर बैठ गया। बीच-बीच में वह कुत्तों को पुचकार लेता या दुलार देता।
चौक के इस तरफ कुछ रौनक-सी होने लगी। मैं जब भी गुज़रता स्कूटर पर तो भीखू अपने स्थान पर बैठा मिलता। मौसंबी वाला भी हमेशा ही होता। कभी-कभी वह वहां नहीं होता। पर बहुत कम छुट्टी पर होता। मैं कितनी ही बार उससे मौसंबी खरीदता। उसकी मौसंबी हमेशा ताजा होती। हरी और रसदार। कभी-कभी वो नौकर दोनों कुत्तों के साथ दिख जाता सिगरेट पीता हुआ। कुत्ते कभी आते-जाते मोटरसाइकिल पर भौंकते या आपस में कुश्ती लड़ रहे होते। मैंने तीनों को कभी आपस में बात करते नहीं देखा। क्या वो आपस में बात करते होंगे? अपनी जिन्दगी के बारे में बताते होंगे? यहां कैसे आ गये? अपनी कहानी बतायी होगी क्या? या, कभी एक-दूसरे से सिगरेट मांग सुलगायी होगी क्या? मेरी जिज्ञासा मुझे चैन ही नहीं लेने देती थी। मैंने कभी पूछने की कोशिश नहीं की। पर लगा कि अगर पूछता तो वो जाने जवाब देते या बुरा मान जाते।
अचानक एक दिन मैं चौराहे से गुजरा तो अजीब मंज़र था। भीखू गायब था। जहां उसका बोरिया-बिस्तर हुआ करता था, वहां से सब कुछ नदारद था।
मौसंबी वाले की छतरी भी नहीं थी और और न ही रेहड़ी। मैं जाने क्यों एक बार फिर चिन्तित हो उठा। यह सवाल मन में उठता रहा कि अचानक दोनों चौराहे पर नहीं थे। दोनों गायब जैसे प्रवासी पंछी वक्त से अपने देश चले जाते हैं। वह जगह वीरान-सी लगी। एक भयानक सन्नाटा पसरा था वहां। शायद, शाम को वो नौकर और कुत्ते दिख जाएं, यह सोच मैं ऑफिस चला गया। ऑफिस में मेरा मन नहीं लगा। वो मेरे दिन का हिस्सा हो चले थे और अचानक आये नहीं।
शाम को मैं चौराहे की तरफ गया ही नहीं। दूसरी तरफ से स्कूटर ले गया और घर चला आया। मन बड़ा खिन्न था। मेरे सवाल, उस घुमावदार काली सड़क की भांति हो गये थे जो चौक-चौराहे के चारों ओर घूमती है पर पहुंचती कहीं नहीं।
अगली सुबह अखबार देखी तो उसी बड़े से घर की तस्वीर थी। उसके आगे की तरफ की। एक अफसर उन कुत्तों को लेकर खड़ा था, और इनकम टैक्स के अफसर छापा मार रहे थे। एक अफसर कुछ भीखू-सा था, एक मौसंबी वाले-सा।
हो सकता है मेरा वहम हो, संयोगवश ऐसा हो। वो तीनों फिर कभी चौराहे पर दिखाई नहीं दिये। जब भी स्कूटर पर चौराहे से निकलता हूं, तो वीरान चौराहा बहुत से सवाल मुझ से करता है और मैं प्रवासी-सा स्कूटर की स्पीड बढ़ा, वहां से भाग जाता हूं।

Advertisement

Advertisement