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चंडीगढ़ का संदेश

08:57 AM Feb 22, 2024 IST
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चंडीगढ़ में मेयर पद के चुनाव के दौरान अनुचित तौर-तरीके अपनाए जाने के आरोपों के बाद सामने आए नतीजे के रूप में जो अलोकतांत्रिक स्थिति उपजी थी, उसे शीर्ष अदालत के निर्णय ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। अब सवाल यह है कि जब एक नगर निगम के मेयर के चुनाव में इस स्तर तक धांधली हो सकती है तो बड़े चुनावों को लेकर राजनीतिक दल किस स्तर तक तक जा सकते हैं? यहां सवाल सत्तारूढ़ राजनीतिक दल पर तो है ही, प्रश्न इस केंद्र शासित प्रदेश के उन आला अधिकारियों पर भी उठे हैं जिनकी जवाबदेही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुचिता बनाये रखने के लिये थी। चंडीगढ़ नगर निगम का सवाल इसीलिये अधिक संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि अन्य केंद्रशासित प्रदेशों की तरह यहां निर्वाचित जनप्रतिनिधि सभा नहीं है। इस प्रकरण से सवाल इस केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासन में दखल रखने वाले केंद्र के बड़े अधिकारियों पर भी उठते हैं। विपक्षी दल इस दौरान चंडीगढ़ के प्रशासक और पंजाब के राज्यपाल के इस्तीफे को भी इस घटनाक्रम से उपजी प्रतिक्रिया के रूप में देखते हैं। जिसके निहितार्थ चुनाव के दौरान अपनायी गई प्रक्रिया के प्रति असंतोष के रूप में देखे गये। बहरहाल,अदालत के फैसले के बाद उन अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए जिन्होंने सारे प्रकरण के प्रति आंखें मूंदे रखी। आखिर क्यों हमारे राजनीतिक दल भी चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता कायम नहीं रख पाते? क्यों हर मामले में कोर्ट को दखल देकर न्यायसंगत चुनाव का मार्ग प्रशस्त करना पड़ता है? यदि कोर्ट नगर निगम और पालिकाओं के छोटे मामलों में बार-बार हस्तक्षेप करने को बाध्य होगी तो क्या राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को सुलझाने के लिये अदालत का समय प्रभावित नहीं होगा? कहीं न कहीं अदालतों में लगे वादों के अंबार के मूल में यह वजह भी है कि राजनीतिक दलों के पचड़े सुलझाने में कोर्ट का समय अनावश्यक रूप से व्यय होता है। माना जाना चाहिए कि चंडीगढ़ महापौर के मामले में दिया गया शीर्ष अदालत का फैसला भ्रष्ट राजनेताओं के लिये सबक ही नहीं, मार्गदर्शक नजीर भी साबित होगी।
बहरहाल, शीर्ष अदालत के फैसले ने आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को प्राणवायु दे दी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री व आप सुप्रीमो ने पुरानी कहावत दोहराते हुए कहा भी कि ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’। अब वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा पर नये सिरे से हमलावर हो रहे हैं। बल्कि वे भाजपा के आगामी लोकसभा चुनाव में जीत के दावों को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं। दरअसल, चंडीगढ़ मेयर पद पर आप व कांग्रेस के साझे प्रत्याशी की जीत को अब इंडिया गठबंधन की जीत के रूप में दर्शाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि पिछले महापौर चुनाव में ऊंच-नीच हुई थी, लेकिन मामला इतनी चर्चा में नहीं आया। अब तो राष्ट्रीय स्तर पर लोकसभा चुनाव को लेकर आप व कांग्रेस के तालमेल को लेकर नये सिरे से चर्चा होने लगी है। निस्संदेह, आप व कांग्रेस खेमे में इस फैसले को लेकर उत्साह है और अपने-अपने हिसाब से इसकी व्याख्या की जा रही है। निश्चित रूप से लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों को न्यायसंगत ढंग से अपने वोट का इस्तेमाल करने का अधिकार होना चाहिए। वहीं लोकतंत्र में संख्याबल का सम्मान किया जाना चाहिए। मेयर चुनाव में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मजाक बनाने वाले पीठासीन अधिकारी को शीर्ष अदालत की लताड़ निश्चित रूप से अन्य लोगों के लिये सबक साबित होगा। सवाल यह भी है कि पीठासीन अधिकारी ने यह कृत्य पार्टी के प्रति वफादारी जताने के लिये किया या फिर उस पर बाहरी दबाव था। निश्चित रूप से भाजपा नेतृत्व को भी हालिया घटनाक्रम से असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है। उसकी छवि पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है। निस्संदेह, किसी लोकतंत्र की विश्वसनीयता तभी कायम रह सकती है जब चुनाव प्रक्रिया छल-बल के प्रभाव से मुक्त हो सके। हमारे तंत्र को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जनादेश का सम्मान करते हुए कोई चयन प्रक्रिया संपन्न हो। बाहरी दबाव से निर्णय बदलना लोकतंत्र का गला घोटने जैसा ही होगा।

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