पूर्वाग्रहों से ग्रसित सोच का दंश झेलते पुरुष
07:08 AM Aug 12, 2023 IST
हाल ही में देश की शीर्ष अदालत ने एक मामले में अहम टिप्पणी देते हुए कहा कि ‘किसी पुरुष पर दुष्कर्म का झूठा आरोप उतना ही भयावह और पीड़ा देने वाला होता है जितना किसी महिला के साथ दुष्कर्म का झूठा आरोप, आरोपी को भी कष्ट, अपमान और नुकसान पहुंचाता है…। ऐसे मामलों में अदालत का कर्तव्य बनता है कि वह सावधानी और बारीकी से हर पहलू को देखें।’
उल्लेखनीय है कि कुछ इसी तरह के मामले में पिछले माह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था ‘दुष्कर्म के झूठे मुकदमों की प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ रही है कि वास्तविक मामले अपवाद जैसे लगने लगे हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि समय आ गया है कि अदालतें ऐसे मामलों में जमानत याचिकाओं की सुनवाई करते समय बहुत सतर्क रहें। कानून पुरुष के खिलाफ बहुत पक्षपाती है। एफआईआर में बेबुनियाद आरोप लगाना और किसी को भी फंसा देना बहुत आसान है। इसलिए यौन अपराधों से जुड़े मामलों में आरोपियों के अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए तथा उनका पक्ष भी गंभीरता से सुना जाना चाहिए।’ देश की उच्च अदालतों की यह टिप्पणियां एक ऐसे सामाजिक बदलाव की ओर संकेत कर रही हैं जहां बदला लेने का भाव मर्यादा के हर बंधन को तोड़ते हुए अमानवीयता का पक्षधर बनता हुआ दिखाई दे रहा है। यह तय है कि अगर भविष्य में इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगी तो समाज पूरी तरह बिखर जाएगा।
प्रश्न यह है कि यकायक पिछले दशकों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति क्यों बढ़ी? इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर है हमारा वह सामाजिक ढांचा जो उस विचारधारा के इर्द-गिर्द घूमता है कि महिलाएं बेहद संजीदा व संवेदनशील होती हैं।
उल्लेखनीय है कि 2013 में देश की शीर्ष अदालत ने ‘कैनी राजन बनाम केरल राज्य’ के मामले में निर्णय देते हुए इस बात को लेकर चिंता जताई थी कि ‘दुष्कर्म के मामलों में न केवल पीड़िता के बयान को अत्यधिक महत्व दिया जाता है बल्कि उसे ससम्मान स्वीकार भी कर लिया जाता है लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी भी होती हैं जब न्यायालय को संशय होता है और अगर इन परिस्थितियों के मध्य पीड़िता के प्रमाणित बयान को स्वीकार किया जाए तो वह उचित नहीं होगा।’ विद्रूपता यह है कि पुरुषों को बिना किसी तथ्यात्मक आधार के असंवेदनशील व उच्छृंखल माना जाता है। महिलाएं स्वयं इस सत्य से भलीभांति परिचित हैं कि समाज से लेकर पुलिस महकमा भी उनके प्रति सहानुभूति का भाव रखता है और उनके हर कथन को सत्य मानकर चलता है बिना इस तथ्य पर विचार किए कि महिलाएं एवं पुरुष स्वभावगत एक जैसे होते हैं। दोनों में ही ईर्ष्या, द्वेष तथा क्रोध जैसे भाव समान रूप से प्रवाहित होते हैं परंतु पुरुषों के प्रति घोर पूर्वाग्रह उन्हें आरंभ से ही अपराधी मानकर चलता है।
जॉन डेविस ने अपनी पुस्तक ‘फॉल्स एक्यूजेशंस ऑप रेप : लिंचिंग इन द फर्स्ट सेंचुरी’ में उन मिथकों का वैज्ञानिक खंडन प्रस्तुत किया है कि महिलाएं दुष्कर्म के बारे में झूठ नहीं बोलती हैं। डेविस ने अनेक आंकड़ों के आधार पर अपने विस्तृत शोध में इस तथ्य को गंभीरता से उठाया है कि दुष्कर्म के झूठे आरोपों से पुरुष का पारिवारिक और सामाजिक जीवन तो समाप्त हो ही जाता है, वह अवसाद और मानसिक पीड़ा से भी नहीं उबर पाता। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि जब किसी पुरुष के विरुद्ध दुष्कर्म का आरोप लगता है तो मीडिया से लेकर आम जन समूह, तथा नारीवादी संगठन त्राहि-त्राहि करते हैं बिना वास्तविक तथ्य को जाने, उसे सामाजिक बहिष्कार, अपमान और असहनीय पीड़ा दी जाती है और अंततोगत्वा जब वह भी निर्दोष सिद्ध होता है तो कहीं भी इस संबंध में चर्चा तक नहीं होती।
नवंबर 2014 में ‘रेप ऑन केंपस’ नाम से रोलिंग स्टोन में प्रकाशित सबरीना रूबिन एर्डली के लेख ने दुनियाभर में हलचल मचा दी थी। वर्जीनिया विश्वविद्यालय में एक छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना को लेकर सबरीना ने विश्वविद्यालय के डीन तथा अन्य अधिकारियों पर लापरवाही जैसे आरोप लगाए परंतु चार्लोट्सविले पुलिस विभाग की जांच में दुष्कर्म जैसी किसी घटना के कोई सबूत नहीं मिले। दस सदस्यीय जूरी ने रोलिंग स्टोन की रिपोर्टर को मानहानि के लिए उत्तरदायी माना।
यह सहज कल्पनीय है कि किस तरह दुष्कर्म की एक काल्पनिक घटना को बेहद ही सजीव ढंग से चित्रित करने से तथाकथित रुप से समाज के जिम्मेदार लोगों ने भी त्वरित रूप से इस बात पर भरोसा किया। रिचर्ड वेबास्टर का लेख ‘द सीक्रेट ऑफ ब्रायन एस्टिन’ उन सांस्कृतिक संदर्भों, विश्वास और झूठे आरोपों को सच करने और स्वीकार करने के लिए प्रेरक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। वह कारक जो एक निर्दोष व्यक्ति की सजा में योगदान देते हैं, के संबंध में वॉकर तथा स्टार्मर ने अपने अध्ययन ‘मिस कैरिजेज ऑफ़ जस्टिस : ए रिव्यू ऑफ जस्टिस इन एरर’ में विस्तृत चर्चा की है। उनका मानना है पुलिस तथा अभियोजन जांच में पुष्टिकरण पूर्वाग्रह, अपर्याप्त कानूनी सुरक्षा, संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह, मीडिया रिपोर्ट का प्रभाव निर्दोष व्यक्ति के सत्य को दबा देता है।
भारत का कठोर यौन उत्पीड़न कानून इस तरह से तैयार किया गया है कि अभियोजन पक्ष अधिक प्रभावी ढंग से पैरवी कर सके और पीड़ित के सम्मान की बहाली हो सके। लेकिन इस कानून के बेजा इस्तेमाल से पुरुषों की स्थिति बेहद दुखद हो चुकी है। वर्ष 2016 में दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि अब समय आ गया है कि दुष्कर्म के झूठे आरोपों का सामना कर रहे पुरुषों की सुरक्षा और उनकी प्रतिष्ठा बहाल किए जाने के लिए कानून बनाए जाएं क्योंकि हर कोई सिर्फ महिलाओं के सम्मान को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘पुरुषों के लिए परेशानी आरोप मुक्ति के बाद भी जारी रह सकती है क्योंकि इस मामले में उनके फंसने पर समाज में इतना शोरगुल होता है लेकिन आरोप मुक्ति पर शायद ही ध्यान दिया जाता हो…।’
इस निर्णय के सात वर्ष व्यतीत होने के बाद भी सरकारें चेती नहीं हैं। देश की विभिन्न अदालतों में ऐसे मामलों की भरमार है। पुरुषों का निर्दोष होने पर भी सजा पाना, महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों का वह क्रूर पक्ष है जिसको लेकर चुप्पी बनी हुई है क्योंकि यह भय है कट्टर नारीवादी समूह लैंगिक समानता के नाम पर विरोध करेंगे। लैंगिक समानता की पैरवी करने वाली इस तथ्य से किंचित् परिचित नहीं हैं कि पुरुषों को ‘खलनायक’ घोषित करके कभी भी लैंगिक समानता हासिल नहीं की जा सकती। जिन देशों से प्रेरित होकर कुछ समूह कट्टर नारीवाद के समर्थक बने हैं वे यह विस्मृत कर चुके हैं कि दुनिया के तमाम विकसित देशों में कानून लिंग निरपेक्ष है अर्थात् कोई भी कानून लिंग आधार पर भेद नहीं करता। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि इस संपूर्ण संदर्भ में न्यायिक व्यवस्थाएं एवं सरकारें गंभीरता से विचार करें क्योंकि अपराध किए बिना जेल की सजा काटना उत्पीड़न के सबसे बुरे रूपों में से एक है। वीगैंड ‘रीबिल्डिंग ए लाइफ द रांगफुली कनविकटेड एंड एक्सोनरेट्ड’ में उस पीड़ा की व्याख्या करते हैं जो एक निर्दोष वर्षों जेल में बिताने के बाद अपने जीवन के अवसरों को खोने के कारण महसूस करता है। क्या यह किसी भी स्थिति में न्यायोचित होगा कि पूर्वाग्रह से ग्रसित सोच का दंश निरंतर पुरुषों के हिस्से में आए। अगर ऐसा होता है तो भविष्य में निश्चित ही समाज का ताना-बाना पूरी तरह से बिखर जाएगा।
डॉ. ऋतु सारस्वत
उल्लेखनीय है कि कुछ इसी तरह के मामले में पिछले माह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था ‘दुष्कर्म के झूठे मुकदमों की प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ रही है कि वास्तविक मामले अपवाद जैसे लगने लगे हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि समय आ गया है कि अदालतें ऐसे मामलों में जमानत याचिकाओं की सुनवाई करते समय बहुत सतर्क रहें। कानून पुरुष के खिलाफ बहुत पक्षपाती है। एफआईआर में बेबुनियाद आरोप लगाना और किसी को भी फंसा देना बहुत आसान है। इसलिए यौन अपराधों से जुड़े मामलों में आरोपियों के अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए तथा उनका पक्ष भी गंभीरता से सुना जाना चाहिए।’ देश की उच्च अदालतों की यह टिप्पणियां एक ऐसे सामाजिक बदलाव की ओर संकेत कर रही हैं जहां बदला लेने का भाव मर्यादा के हर बंधन को तोड़ते हुए अमानवीयता का पक्षधर बनता हुआ दिखाई दे रहा है। यह तय है कि अगर भविष्य में इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगी तो समाज पूरी तरह बिखर जाएगा।
प्रश्न यह है कि यकायक पिछले दशकों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति क्यों बढ़ी? इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर है हमारा वह सामाजिक ढांचा जो उस विचारधारा के इर्द-गिर्द घूमता है कि महिलाएं बेहद संजीदा व संवेदनशील होती हैं।
उल्लेखनीय है कि 2013 में देश की शीर्ष अदालत ने ‘कैनी राजन बनाम केरल राज्य’ के मामले में निर्णय देते हुए इस बात को लेकर चिंता जताई थी कि ‘दुष्कर्म के मामलों में न केवल पीड़िता के बयान को अत्यधिक महत्व दिया जाता है बल्कि उसे ससम्मान स्वीकार भी कर लिया जाता है लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी भी होती हैं जब न्यायालय को संशय होता है और अगर इन परिस्थितियों के मध्य पीड़िता के प्रमाणित बयान को स्वीकार किया जाए तो वह उचित नहीं होगा।’ विद्रूपता यह है कि पुरुषों को बिना किसी तथ्यात्मक आधार के असंवेदनशील व उच्छृंखल माना जाता है। महिलाएं स्वयं इस सत्य से भलीभांति परिचित हैं कि समाज से लेकर पुलिस महकमा भी उनके प्रति सहानुभूति का भाव रखता है और उनके हर कथन को सत्य मानकर चलता है बिना इस तथ्य पर विचार किए कि महिलाएं एवं पुरुष स्वभावगत एक जैसे होते हैं। दोनों में ही ईर्ष्या, द्वेष तथा क्रोध जैसे भाव समान रूप से प्रवाहित होते हैं परंतु पुरुषों के प्रति घोर पूर्वाग्रह उन्हें आरंभ से ही अपराधी मानकर चलता है।
जॉन डेविस ने अपनी पुस्तक ‘फॉल्स एक्यूजेशंस ऑप रेप : लिंचिंग इन द फर्स्ट सेंचुरी’ में उन मिथकों का वैज्ञानिक खंडन प्रस्तुत किया है कि महिलाएं दुष्कर्म के बारे में झूठ नहीं बोलती हैं। डेविस ने अनेक आंकड़ों के आधार पर अपने विस्तृत शोध में इस तथ्य को गंभीरता से उठाया है कि दुष्कर्म के झूठे आरोपों से पुरुष का पारिवारिक और सामाजिक जीवन तो समाप्त हो ही जाता है, वह अवसाद और मानसिक पीड़ा से भी नहीं उबर पाता। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि जब किसी पुरुष के विरुद्ध दुष्कर्म का आरोप लगता है तो मीडिया से लेकर आम जन समूह, तथा नारीवादी संगठन त्राहि-त्राहि करते हैं बिना वास्तविक तथ्य को जाने, उसे सामाजिक बहिष्कार, अपमान और असहनीय पीड़ा दी जाती है और अंततोगत्वा जब वह भी निर्दोष सिद्ध होता है तो कहीं भी इस संबंध में चर्चा तक नहीं होती।
नवंबर 2014 में ‘रेप ऑन केंपस’ नाम से रोलिंग स्टोन में प्रकाशित सबरीना रूबिन एर्डली के लेख ने दुनियाभर में हलचल मचा दी थी। वर्जीनिया विश्वविद्यालय में एक छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना को लेकर सबरीना ने विश्वविद्यालय के डीन तथा अन्य अधिकारियों पर लापरवाही जैसे आरोप लगाए परंतु चार्लोट्सविले पुलिस विभाग की जांच में दुष्कर्म जैसी किसी घटना के कोई सबूत नहीं मिले। दस सदस्यीय जूरी ने रोलिंग स्टोन की रिपोर्टर को मानहानि के लिए उत्तरदायी माना।
यह सहज कल्पनीय है कि किस तरह दुष्कर्म की एक काल्पनिक घटना को बेहद ही सजीव ढंग से चित्रित करने से तथाकथित रुप से समाज के जिम्मेदार लोगों ने भी त्वरित रूप से इस बात पर भरोसा किया। रिचर्ड वेबास्टर का लेख ‘द सीक्रेट ऑफ ब्रायन एस्टिन’ उन सांस्कृतिक संदर्भों, विश्वास और झूठे आरोपों को सच करने और स्वीकार करने के लिए प्रेरक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। वह कारक जो एक निर्दोष व्यक्ति की सजा में योगदान देते हैं, के संबंध में वॉकर तथा स्टार्मर ने अपने अध्ययन ‘मिस कैरिजेज ऑफ़ जस्टिस : ए रिव्यू ऑफ जस्टिस इन एरर’ में विस्तृत चर्चा की है। उनका मानना है पुलिस तथा अभियोजन जांच में पुष्टिकरण पूर्वाग्रह, अपर्याप्त कानूनी सुरक्षा, संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह, मीडिया रिपोर्ट का प्रभाव निर्दोष व्यक्ति के सत्य को दबा देता है।
भारत का कठोर यौन उत्पीड़न कानून इस तरह से तैयार किया गया है कि अभियोजन पक्ष अधिक प्रभावी ढंग से पैरवी कर सके और पीड़ित के सम्मान की बहाली हो सके। लेकिन इस कानून के बेजा इस्तेमाल से पुरुषों की स्थिति बेहद दुखद हो चुकी है। वर्ष 2016 में दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि अब समय आ गया है कि दुष्कर्म के झूठे आरोपों का सामना कर रहे पुरुषों की सुरक्षा और उनकी प्रतिष्ठा बहाल किए जाने के लिए कानून बनाए जाएं क्योंकि हर कोई सिर्फ महिलाओं के सम्मान को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘पुरुषों के लिए परेशानी आरोप मुक्ति के बाद भी जारी रह सकती है क्योंकि इस मामले में उनके फंसने पर समाज में इतना शोरगुल होता है लेकिन आरोप मुक्ति पर शायद ही ध्यान दिया जाता हो…।’
इस निर्णय के सात वर्ष व्यतीत होने के बाद भी सरकारें चेती नहीं हैं। देश की विभिन्न अदालतों में ऐसे मामलों की भरमार है। पुरुषों का निर्दोष होने पर भी सजा पाना, महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों का वह क्रूर पक्ष है जिसको लेकर चुप्पी बनी हुई है क्योंकि यह भय है कट्टर नारीवादी समूह लैंगिक समानता के नाम पर विरोध करेंगे। लैंगिक समानता की पैरवी करने वाली इस तथ्य से किंचित् परिचित नहीं हैं कि पुरुषों को ‘खलनायक’ घोषित करके कभी भी लैंगिक समानता हासिल नहीं की जा सकती। जिन देशों से प्रेरित होकर कुछ समूह कट्टर नारीवाद के समर्थक बने हैं वे यह विस्मृत कर चुके हैं कि दुनिया के तमाम विकसित देशों में कानून लिंग निरपेक्ष है अर्थात् कोई भी कानून लिंग आधार पर भेद नहीं करता। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि इस संपूर्ण संदर्भ में न्यायिक व्यवस्थाएं एवं सरकारें गंभीरता से विचार करें क्योंकि अपराध किए बिना जेल की सजा काटना उत्पीड़न के सबसे बुरे रूपों में से एक है। वीगैंड ‘रीबिल्डिंग ए लाइफ द रांगफुली कनविकटेड एंड एक्सोनरेट्ड’ में उस पीड़ा की व्याख्या करते हैं जो एक निर्दोष वर्षों जेल में बिताने के बाद अपने जीवन के अवसरों को खोने के कारण महसूस करता है। क्या यह किसी भी स्थिति में न्यायोचित होगा कि पूर्वाग्रह से ग्रसित सोच का दंश निरंतर पुरुषों के हिस्से में आए। अगर ऐसा होता है तो भविष्य में निश्चित ही समाज का ताना-बाना पूरी तरह से बिखर जाएगा।
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लेखिका समाजशास्त्री एवं स्तंभकार हैं।
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