प्रेम दिवस पर ठिठकी प्रेम बाबू की स्मृतियां
धर्मेंद्र जोशी
यूं तो प्रेम बाबू अपने परिणय बंधन की रजत जयंती मना चुके हैं, मगर साल में जब फरवरी के महीने में प्रणय दिवस आता है, वे स्वतः स्वयं की स्मृतियों में चले जाते हैं। हालांकि, उनके समय में रोज़ डे, चॉकलेट डे, हग डे और वैलेंटाइन डे जैसे पाश्चात्य देशों के चोंचले तो नहीं थे, मगर प्रेम-निवेदन, संयोग-वियोग और प्रेम पर पहरेदारी जैसे शाश्वत बंधन तो अस्तित्व में थे। हेडमास्टर पिता के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते घर की जिम्मेदारी का अहसास तो बचपन से ही करवा दिया गया था, लेकिन कब प्रेम प्रस्फुटन हो गया, पता ही नहीं चला। मगर संचार साधनों के अत्यंत अभाव के बावजूद प्रेम बाबू के पिताजी को इसका पता लग गया।
सर्वप्रथम तो पिताजी ने अपनी वंशावली का गुणगान किया। उसके पश्चात सहेज कर रखे भारी-भरकम शब्दों का सहजतापूर्वक उपयोग किया। साथ ही बिना रुके बीए की परीक्षा पास करने की ताकीद भी दी, ताकि सरकारी विभाग में कोई मुलाजिम हो जाए और जिंदगी एक मध्यवर्गीय की तरह बिना किसी संताप के कट जाए। मगर प्रेम कब बंदिशों में रहा, प्रेम ने तो गहरे दरिया और तूफानों की भी कभी परवाह नहीं की।
जनवरी का माह रहा होगा, बीए द्वितीय वर्ष की भूगोल विषय की कक्षाएं खुली धूप में चल रही थीं। प्रायोगिक पुस्तिका जमा कराने की अंतिम तिथि निकट आ चुकी थी। इसी बीच भोला ने बताया कि कक्षा की सहपाठी विमला प्रायोगिक कार्य में बहुत पिछड़ चुकी हैं। कोई दूसरा मदद का हाथ बढ़ाता, इसके पहले ही प्रेम बाबू के कदम आगे बढ़ गए, और इतने आगे बढ़े कि प्रेम-पथ पर फिसल ही गए। अपनी पारम्परिक साइकिल से भुनसारे पहुंचकर विमला के अधूरे प्रायोगिक कार्य को पूर्ण कर दिया। यद्यपि जब वार्षिक परीक्षा का परिणाम आया, तो विमला तो बीए फाइनल में चली गई, लेकिन प्रेम बाबू एक विषय में अटक गए।
कई दिनों तक पिताजी ने अबोला रखा, मगर मां की मध्यस्थता और बीए पास होने की गारंटी पर पिताजी का कुछ रुख नरम हुआ। इसी बीच प्रेम बाबू की घर वालों से दूरियां और विमला से नजदीकियां बढ़ने लगीं, जिसकी गवाह वे किताबें बनीं जिनमें चिट्ठियां आती-जाती पायी गईं। प्रेम बाबू बमुश्किल बीए की डिग्री तो पा गए, लेकिन अब बड़ी परीक्षा जीवन से जुड़ी हुई थी। फिर भी प्रेम बाबू ने अपने मन की बात मां के सामने रखी, ताकि पिताजी की भीषण क्रोधाग्नि से बचा जा सके। जब बात पिताजी तक पहुंची तो वे प्रेम-पथ पर खड़े होने से पहले पैर पर खड़े होने की बात कह कर अड़ गए। सो प्रेम बाबू पास के ही एक निजी विद्यालय में बाबूगिरी के काम पर लग गए, जो आज तक बदस्तूर जारी है।
तब के प्रेम बाबू अब प्रौढ़ हो गए हैं। बालों से झांकती सफेद चांदी उनके अनुभव को प्रतिबिंबित कर रही है। अपने युवा दिनों के प्रेम की तुलना आज के समय के प्रेम से करते हैं तो बहुत अन्तर पाते हैं। उन दिनों का रूहानी प्रेम अब देह पर आकर ठहर गया है। प्रेम की खुशबू ने एक अजीब उकताहट का रूप ले लिया है।
बहरहाल, प्रेम बाबू आईने में देखकर बीती हुई स्मृतियों में खोए हुए थे। इतने में एक कर्कश स्वर विमला जी का सुनाई दिया, कब तक धूप में बैठकर आईने में खुद को निहारते रहोगे? गैस का नंबर लगा दो, टंकी अंतिम सांसें ले रही है। घर में एक भी सब्जी नहीं है और राशन का तीन दिन से कह रही हूं।