नीतीश होने के मायने
कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है, वह बात अलग है कि वह कुछ अलग रूप में सामने आता है। बिहार में नीतीश कुमार का भाजपा व महागठबंधन में आना-जाना कुछ यही कहता है। अजब संयोग है मंगलवार को जहां महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार में भाजपा विधायक मंत्रिमंडल में शामिल हो रहे थे, वहीं बिहार सरकार से उनकी विदाई हो रही थी। यूं तो लंबे समय से राजग में भाजपा व जदयू के रिश्तों में खटास चली आ रही थी। भले ही केंद्र व राज्य सरकार में वे साथ थे लेकिन विश्वास के धरातल पर दूर थे। कहीं न कहीं नीतीश कुमार को यह लगने लगा है कि भाजपा उनकी पार्टी की जमीन कुतर रही है। पहले विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान द्वारा नीतीश के खिलाफ मुहिम चलाकर जदयू की सीटें कम करने के आरोप लगाये गये, फिर पार्टी के अध्यक्ष व सांसद के भाजपा में शामिल होने को नीतीश कुमार ने गंभीरता से लिया। बहरहाल, जिस तेजी से भाजपा से नाता तोड़ नीतीश ने राजद का दामन थामा, उसके सीधा असर बिहार से लेकर दिल्ली की राजनीति तक पड़ना लाजमी है। निस्संदेह, सवाल ये भी उठेगा कि पांच साल पहले कदाचार के आरोप लगाकर जिस राजद को छोड़ नीतीश ने भाजपा का दामन थामा था, क्या उस दल में राजनीतिक शुचिता कायम हो गई है? वे तुरत-फुरत आठवीं बार मुख्यमंत्री भी बन गए हैं। तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बने हैं। उनके साथ कांग्रेस, वाम दल समेत कई छोटे दल शामिल हैं। निस्संदेह, इसके मूल में एक सशक्त विपक्ष की आकांक्षा भी निहित है। इस राजनीतिक घटनाक्रम की सरल व्याख्या यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा व जदयू के संबंधों में जो खटास पैदा हुई थी उसकी परिणति इस अलगाव के रूप में हुई है। लेकिन इसके अलावा कई कारण अलगाव की वजह बनें। कई मुद्दों पर जदयू सैद्धांतिक रूप से भाजपा से सहमत नहीं थी।
यूं तो बिहार विधानसभा अध्यक्ष से लेकर राज्य भाजपा प्रभारी के व्यवहार को लेकर नीतीश कुमार नाराज थे। लेकिन हाल ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा पटना में क्षेत्रीय दलों के बाबत की गई टिप्पणी ने आग में घी का काम किया। जिसमें उन्होंने कहा था कि कई राष्ट्रीय पार्टियां सिमट गई और अब क्षेत्रीय दलों का पराभव होगा। निश्चित रूप से नीतीश ने इसे जदयू के लिये खतरे की घंटी के रूप में लिया। इसके अलावा कई और मुद्दे थे जिनको लेकर नीतीश भाजपा से नाराज चल रहे थे। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा, जाति आधारित जनगणना, एनआरसी, अग्निपथ योजना पर वे अपने तेवर दिखा चुके थे। हाल ही में बिहार विधानसभा के समारोह के लिये छपे निमंत्रण पत्र पर उनका नाम न छापने को भी उन्होंने गंभीरता से लिया। यही वजह है कि राष्ट्रपति व उप राष्ट्रपति चुनाव के बीच हुए समारोहों व नीति आयोग की बैठक में नीतीश नजर नहीं आये। वहीं राजनीतिक पंडित केंद्र की राजनीति में नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में उभरने की नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा को भी इस फैसले के मूल में देख रहे हैं। कुछ लोग नीतीश के फैसले को राजनीतिक अवसरवाद के रूप में देख सकते हैं, लेकिन वहीं कुछ लोग मानते हैं कि वे पार्टी के अस्तित्व को बचाने के लिये भाजपा से अलग होकर राजद के बगलगीर हुए हैं। लेकिन एक बात तो तय है कि अपने वोट बैंक व राजद ,कांग्रेस तथा वाम समर्थक वर्ग के बूते वे न केवल बिहार बल्कि झारखंड व उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिये बड़ी चुनौती खड़ी कर सकते हैं। यह तो तय है कि इस घटनाक्रम के बाद भाजपा प्रतिक्रिया देगी। यानी विधानसभा के शेष कार्यकाल में राजनीतिक लड़ाई तेज ही होगी। वहीं दूसरी ओर राजग के सामने न केवल भाजपा में मुख्यमंत्री का चेहरा जुटाने की चुनौती होगी, वहीं अगले आम चुनाव में उसे बिहार में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। शपथ ग्रहण के बाद नीतीश जिस तरह भाजपा व नरेंद्र मोदी पर हमलावर हुए हैं, उसके निहितार्थ समझना कठिन नहीं है।