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वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता के न होने के मायने

12:36 PM Jun 11, 2023 IST
वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता के न होने के मायने
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सत्यपाल सहगल

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प्रोफेसर वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता के निधन के बाद साहित्य-जगत में अवसाद की गहरी रेखा खिंच गयी। यह दुख वास्तविक है। इसे उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। अपने आस-पास के लोगों से उनके संबंध वैसी ही बहुस्तरीयता लिए रहते थे, जैसे कि उनकी रचनाएं। दुखद तथ्य है कि लेखक की पूरी पहचान के लिए उसकी दैहिक अनुपस्थिति एक कारण बन जाती है। इस पूरे क्षेत्र के साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहास पर डॉ. वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता की छाया अब ज्यादा डोलती नज़र आती है। उनके मृदुल स्वभाव के पीछे एक प्रेरक जीवटता पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट होकर दिख रही है। विभिन्न व्याधियों से संघर्ष करते हुए, उनका लंबा जीवन इस बात का सूचक है, कि उन्होंने उम्र के प्याले को भरपूर पीने की कोशिश की थी। अंतत: वे एक विजेता की तरह इस दुनिया से कूच कर गए।

चंडीगढ़ के नक्शे से मेहंदीरत्ता घटा दीजिये तो आप पाएंगे कि शहर से बहुत कुछ निकल गया है। उनके असंख्य विद्यार्थियों का उनके प्रति लगाव हैरान करने वाला है। उनके जाने के बाद, परिवार के साथ उनके शागिर्द भी अकेले पड़ गए हैं। आज जब लगभग हर एक भावना मीडिया या विज्ञापन की भाषा में ढल गयी है, उनके प्रेमियों की प्रतिक्रियाएं आश्वस्त करती हैं कि काफी कुछ सहज़ बचा हुआ है। एक ऐसा अहसास जो ढूंढ़ने पर भी मिल नहीं रहा, सेक्टर-11 चंडीगढ़ के एक घर के आंगन में पुष्पित-पल्लवित होता रहा। पिछले लगभग 40 साल से चलने वाली ‘अभिव्यक्ति’ की संगोष्ठियां उनका दूसरा घर थी। कल्पना कीजिये यदि ‘अभिव्यक्ति’ न होती, तो शहर के हिन्दी-साहित्य की रूपरेखा कैसी होती। यह संस्था, संस्थाओं के आंतरिक राग-द्वेष, प्रतिस्पर्धा और वैमनस्य से बहुत हद तक बची हुई दिखती है। प्रोफेसर वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता के संस्कार, भद्रता, संतुलन, आतिथ्य और उदारता इस संस्था के चरित्र में शामिल हो गए हैं। इस संस्था के दरवाजे सबके लिए खुले रहे हैं। इस संस्था की खिड़कियां भी तमाम नए विचारों, प्रयोगों और दृष्टियों के लिए खुली रही हैं। डॉ. मेहंदीरत्ता ने ‘अभिव्यक्ति’ के साथ नाट्य संस्था ‘अभिनेत’ को अपने अस्तित्व का समानार्थक बना दिया था। इससे उनके भीतर के दायित्वबोध और समाजबोध का पता चलता है। ये संस्थाए साहित्य और नाट्यकला के महत्वपूर्ण स्कूलों में तब्दील हो गई थीं।

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डॉ. मेहंदीरत्ता ‘अभिनेत’ के प्रमुख स्तम्भ थे। अकादमिक संस्थानों के तुच्छ संग्रामों के बीच लहू-लुहान होकर भी, इन संस्थाओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता समय के साथ और मजबूत हुई। ‘अभिनेत’ के पेशेवर मानक बहुत ऊंचे थे। केवल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ही उसका मुक़ाबला कर सकता था। सर्द रातों में टैगोर थियेटर चंडीगढ़ से उसका कोई नाट्य-प्रदर्शन देखकर वापस लौटना एक मर्मांतक अनुभव हो जाता था।

भारतीय और विश्व नाट्य-साहित्य से बेहतरीन नाट्य-आलेखों को चुनकर, बेहतरीन निर्देशकों के निर्देशन में, बेहतरीन अभिनेताओं के सहयोग से, इस शहर में रंगमंच को एक ऐसा आयाम दिया गया, जिसे देखकर कलकत्ता के रंगमंच की याद आ सकती है। विश्वविद्यालय में भी उन्होंने हिन्दी नाटक और रंगमंच के अध्ययन को ऊंची गुणवत्ता के साथ जीवित रखा। वे क्या दिन थे, जब हिन्दी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय में नियमित रूप से नाटकों का मंचन होता था और विश्वविद्यालय के इंडियन थियेटर विभाग की फैकल्टी के साथ निकट के संबंध रहते थे।

प्रोफेसर वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता एक मंझे हुए रंगकर्मी ही नहीं थे, बल्कि नगर में नाट्य और रंगमंच अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में केन्द्रीय स्थान रखते थे। वे नगर की सांगीतिक संस्थाओं से भी आत्मीय रूप से जुड़े थे। शास्त्रीय संगीत के आयोजनों की लंबी संध्याओं में, वे सदा अगली पंक्तियों में मौजूद रहने वाले जरूरी व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व की इन खूबियों के माध्यम से, यही प्रभाव उनके विद्यार्थियों के बीच में भी पहुंच रहे थे। अपने शिष्यों में कला के व्यापक संसार के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान पैदा करने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका है।

उन्होंने एक भरपूर जीवन जिया। उनकी जिंदगी पर निगाह डालकर, भरपूर जीवन जीना कैसा होता है, यह सीखा जा सकता है। वे ‘नयी कहानी’ आंदोलन के एक विशिष्ट हस्ताक्षर थे। उस दौर के अन्य दिग्गजों, जैसे उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, रवीन्द्र कालिया, कुमार विकल आदि के सहयात्री थे। डॉ. इन्द्रनाथ मदान जैसे समालोचकों ने जहां इन रचनाकारों को गढ़ने मे अपनी भूमिका निभाई; वहीं प्रोफेसर वीरेंद्र मेहंदीरत्ता ने उन्हें पाठ्यक्रमों और शोध का अनिवार्य अंग बनाने में अपना योगदान दिया। पंजाब की हिन्दी रचनाशीलता का वह एक अद्भुत समय था। वीरेन्द्र मेहंदीरत्ता गवाह भी थे और उसके प्रभावशाली हस्ताक्षर भी थे।

लेखक कवि और आलोचक हैं।

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