शायद वो लौटें
शांति अमर
छोटी-सी चिड़िया फुदक-फुदक कर एक पौधे से दूसरे पौधे पर बैठ रही थी। उसे देखकर अपने घर में बने हुए घोसले की याद आ गई।
घर में गेट के ऊपर हर साल एक घोसला बना था। चिड़िया अंडे देती और कुछ दिनों में छोटे-छोटे बच्चे चहकने लगते। चिड़िया आती। खाना खिलाती और फुर्र से उड़ जाती।
घर में चारों बेटियां उन्हें देखकर बड़ी ख़ुश होतीं। स्कूल से आते ही पहली नजर उनकी गेट पर बने घोसले में चिड़िया के बच्चों पर जाती। उनकी चीं-चीं की आवाज़ सुन कर उन्हें तसल्ली हो जाती कि बच्चे सही सलामत हैं।
एक दिन बच्चों ने देखा कि चिड़िया अपने बच्चों के साथ साथ कुछ दूर तक उड़-उड़ कर जा रही है और बच्चे भी धीरे-धीरे फुर्र कर उड़ गए।
हर साल यही सिलसिला चला। चिड़िया आती, अंडे देती और बच्चों के थोड़ा बड़े होने पर उड़ा कर ले जाती।
बेटियां भी बड़ी हो गईं और शादी के बाद अपने-अपने घर में चली गईं और ख़ुश थीं। मैं और मेरे पति अब घर में अकेले रह गए।
एक दिन अचानक मेरी नज़रें गेट के ऊपर तारों पर गई तो देखा घोसला ख़ाली था। न चिड़िया आई न ही उस घोसले में चिड़िया के बच्चों की चीं-चीं सुनाई दी।
और अब हर साल भी देखती हूं। शायद चिड़िया आ जाए। पर नहीं। शायद उसे भी घर में बच्चों की किलकारियां और शोर पसंद था। इसलिए शायद बेटियों की शादी के बाद घर सूना देख वो भी नहीं लौटी। आज भी चिड़िया के ख़ाली घोसले को देखती रहती हूं। शायद वो लौटे।