कई कथाएं मगर मकसद अच्छाई की जीत
भारत भौगोलिक रूप से उष्ण कटिबंधीय इलाका है और खरीफ तथा रबी की फसलें ही यहां की मुख्य उपज हैं। इसलिए दोनों ही फसलों की उपज जब घर पर आती है तो किसान अपनी संपदा देखकर गद्गद हो जाता है और उसी उपज को बाजार में लाने और खरीदारी का उत्सव है यह नवरात्रि। चाहे वह शारदीय नवरात्रि हो या वसंत की। शारदीय नवरात्रि के अगले रोज श्रीराम के पूजक इस उत्सव को श्रीराम की रावण पर विजय के उपलक्ष्य में मनाते हैं तो देवी के भक्त महिषासुरमर्दिनी के रूप में। चूंकि भारत का अधिकांश इलाका धान की उपज लेता है और धान क्वार मास में ही घर पर आता है। इसलिए शारदीय नवरात्रि को खूब जोर-शोर से मनाने की परंपरा है। अंग्रेजों के समय में भी इस नवरात्रि को मनाने की परंपरा रही। अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के दिनों से ही अपना मुख्यालय कलकत्ता को बनाया था और वहां पर शारदीय नवरात्रि को मनाने की परंपरा थी।
सुल्तानी काल से ही बंगाल सूबे में शारदीय नवरात्रि को किसान उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है। इसलिए बंगाल के पूरे इलाके में जिसमें बिहार का भी एक बड़ा इलाका शामिल है, शारदीय नवरात्रि को ही जोर-शोर से मनाया जाता है। नवरात्रि के अगले रोज दशमी के दिन देवी दुर्गा की प्रतिमाएं खूब ढोल-ताशे के साथ विसर्जित की जाती हैं, इसलिए वहां पर दशहरा यानी देवी का विसर्जन रहा। मजे की बात है कि बिहार का वह हिस्सा जो अवध सल्तनत के अधीन था, में दशहरे के दिन रावण फूंका जाता है क्योंकि अवध के इलाके में देवी का महत्व उतना नहीं रहा जितना कि राम परंपरा को मानने वालों का। इसलिए देवी वहां श्रीराम की आराध्य शक्ति कुल देवी ही रहीं।
यूं भी भारतीय जनमानस के मन की बात जान पाना आसान नहीं है। जैसे इस लेखक को आज तक यह नहीं पता चल सका कि शारदीय नवरात्रि की समाप्ति के अगले रोज श्रीराम की लंका विजय का उत्सव क्यों मनाया जाता है। दशहरा के नाम से विख्यात इस त्योहार को मनाने के पीछे तर्क क्या है। क्या इसी दिन श्रीराम रावण को मार कर अयोध्या वापस लौटे अथवा आज के ही रोज लंका का राजा रावण मारा गया। अगर ऐसा है तो पूरे भारतवर्ष में दशहरे का स्वरूप यही क्यों नहीं है? पूरे देश में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध दशहरा मैसूर का होता है और वहां इसके मनाने के पीछे यह तर्क तो नहीं होते और न ही उत्तर भारत के हिमाचल राज्य में कुल्लू दशहरा इसी बात के लिए जाना जाता है। यूं भी श्रीराम ने रावण पर विजय इस दिन तो नहीं ही पाई होगी। लंका बंगाल की खाड़ी का एक द्वीप है और वहां पर श्रीराम क्या मानसून में पहुंचे? यह संभव नहीं है और न ही भरी बरसात में युद्ध का कोई औचित्य है। खासकर तब और भी जब श्रीराम पैदल युद्ध कर रहे थे और रावण रथ पर सवार होकर। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी है- रावण रथी विरथ रघुबीरा। जाहिर है दशहरा या विजयादशमी मनाने के पीछे वह तर्क तो नहीं ही है जैसा प्रचारित किया जाता है। लगता है कि दशहरा को रावण विजय का प्रतीक उत्तर और दक्षिण के संगम काल के बाद आया। भारतीय मिथकों को इतिहास का स्रोत न मानने और इन्हें महाकाव्य मानकर गल्प बताने से ये तमाम विचित्रताएं पैदा हुईं। इन पर गौर करना चाहिए। दुनियाभर के विचारकों ने अपने यहां की मिथकों से कुछ पाने की कोशिश की है पर भारत में मिथकों को धार्मिक कर्मकांड बताकर सरलीकरण कर दिया गया है।
इसके विपरीत शाक्त मत के अनुयायी और देवी-भक्त इसे देवी दुर्गा की महिषासुर पर जीत का उत्सव बताते हैं। उनके मुताबिक सुर-असुर संग्राम में महिषासुर को मारने के लिए दस हाथों वाली कन्या ही देवी दुर्गा हैं और उन्होंने महिषासुर को पराजित किया। उनकी जीत की खुशी में यह पर्व मनाया जाता है। लेकिन यहां एक और बात है कि अगर ऐसा है तो इसे नवरात्रि में ही मनाया जाना चाहिए इसके लिए अगले रोज का इंतजार क्यों किया जाता है। इसके मनाने के पीछे एक और मत है कि विजयादशमी के दिन ही पांडवों ने शस्त्र पूजा की थी। वे दुर्योधन की शर्त के कारण बारह वर्ष के वनवास पर रहे और एक साल अज्ञातवास पर। इस अज्ञातवास की अवधि में उन्होंने अपने शस्त्र विराटनगर के आसपास एक शमी के वृक्ष के तने में छुपा दिए थे। पर जब विराट पर आक्रमण हुआ तो विराट के युवराज को लेकर स्वयं बृहन्नला बने अर्जुन रथ चलाते हुए उसी शमी वृक्ष के नीचे आए और अपने गांडीव तथा अन्य हथियारों को निकाल कर पूजा की। इसके बाद पांचों पांडु पुत्रों ने विराटनगर पर हमला करने वाले आक्रमणकारियों को मार भगाया। और इसी जीत के उपलक्ष्य में विजयादशमी पर्व मनाया जाता है और शस्त्र-पूजा होती है।
कुल मिलाकर दशहरा मनाया तो हर जगह जाता है पर उसके मनाने का मंतव्य अलग-अलग होता है। कहीं उसे देवी चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर की जीत के उपलक्ष्य में तो कहीं पांडवों की शस्त्र-पूजा के रूप में तो कहीं श्रीराम द्वारा रावण विजय के प्रतीक स्वरूप। मगर पूरे देश में हर जगह दशहरा पूरे उत्साह और तन्मयता के साथ मनाया जाता है।
लेकिन मोटे तौर पर दशहरा पूरे भारतवर्ष में सभी जगह मनाया जाता है। भले इसके रूप अलग-अलग हों। मगर इसका मुख्य सार-संदेश यही है कि बुराई पर अच्छाई की जीत ही दशहरा मनाने का मुख्य मकसद है। चाहे उसे श्रीराम की रावण विजय का प्रतीक बताया जाए अथवा देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय का। विजयादशमी को शस्त्र-पूजा और उसी दिन निर्णय लेकर शत्रुओं पर टूट पड़ने की परंपरा रही है। कहा जाता है कि शिवाजी ने औरंगजेब पर हमला इसी विजयादशमी के दिन ही किया था। इसीलिए परंपरा में बताया गया है कि विजयादशमी में शुभ नक्षत्रों का योग विजय अवश्य दिलाता है।
उत्तर भारत में नवरात्रि के पहले दिन से ही रामलीला शुरू हो जाती है। जिसमें श्रीराम जन्म से लेकर रावण वध तक का मंचन किया जाता है और अंतिम दिन पूरे जोशो-खरोश के साथ रावण का पुतला फूंका जाता है और माना जाता है कि इस तरह हमने बुराई को समाज से विदा किया। दशहरा दरअसल भक्ति और समर्पण का त्योहार है। भक्त भक्ति-भाव से दुर्गा माता की आराधना करते हैं। नवरात्र में दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की पूजा होती है। दुर्गा ही आवश्यकता के अनुसार काली, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, कुष्मांडा आदि विभिन्न रूप धारण करती हैं और आसुरी शक्तियों का संहार करती हैं। वे आदि शक्ति हैं। वे ही शिव पत्नी पार्वती हैं। संसार उन्हें पूजकर अपने अंदर की आसुरी शक्ति को नष्ट होने की आकांक्षा रखता है। दुर्गा रूप जय-यश देती हैं तथा द्वेष समाप्त करती हैं। वे मनुष्य को धन-धान्य से संपन्न कर देती हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय के इस त्योहार को धूमधाम के साथ मनाया ही जाना चाहिए। समाज में जितनी भी आसुरी शक्तियां हैं उनका विनाश हो और सुख-संपत्ति व धन-धान्य फले-फूले, इसी का प्रतीक है दशहरा और इसे इसी रूप में मनाया जाना चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनके निजी विचार हैं।