बाकी हैं अभी क्रियान्वयन के कई सवाल
जयसिंह रावत
महिलाओं को लोकसभा और दिल्ली समेत राज्य विधानसभाओं में एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने का मामला कानून बनने के बेहद करीब पहुंच गया है। संवैधानिक प्रक्रिया के तहत अभी 50 प्रतिशत राज्य विधानसभाओं की सहमति लेने के लिये सभी विधानसभाओं में भी जाना है जो कि अब महज एक औपचारिकता ही रह गयी है। लेकिन इसमें कुछ सवाल अभी भी बाकी हैं। पहला सवाल तो यह है कि यह कानून कब लागू होगा? और दूसरा सवाल यह कि क्या यह कानून सचमुच लागू होगा?
नारी शक्ति वंदन नाम के महिला आरक्षण विधेयक को अभी राज्य विधानसभाओं में सहमति के लिये जाना है जहां 50 प्रतिशत विधानसभाओं की सहमति सहर्ष भी मिलने वाली है। इसलिये महिला आरक्षण को कानूनी जामा मिलना सुनिश्चित है। लेकिन इसके आगे जो निश्चित नहीं, वह कानून के लागू होने की तिथि है। कोई भी विधेयक राष्ट्रपति या गवर्नर की स्वीकृति के बाद अधिनियम बनता है तो उसमें कमेंसमेंट क्लॉज या प्रवृत्त होने की तिथि भी होती है। जिसमें साफ उल्लेख होता है कि अधिनियम के प्रवृत्त होने की तिथि सरकार अधिसूचना जारी कर तय करेगी। इसका स्पष्ट आशय यह है कि भले ही आरक्षण अधिनियम 2023 में बन जाये मगर उसे भविष्य की सरकारें अपनी सहूलियत के हिसाब से लागू करेंगी। इसे लागू करने के लिये उस सरकार को अधिसूचना जारी करनी होगी और तिथि तय करना उस सरकार की मर्जी या राजनीतिक सहूलियत पर निर्भर करेगा। वैसे भी अधिनियम जब बनता है तो उसे लागू करने के लिये नियम (रूल) और फिर लागू करने वाली संस्था विनियम (रेगुलेशन) बनाती है।
महिला आरक्षण लोकसभा और विधानसभाओं के परिसीमन के बाद ही लागू होना है और सन् 2001 के 84वें संविधान संशोधन के अनुसार सन् 2026 तक लोकसभा और विधानसभाओं की सीटें फ्रीज हैं। उस संशोधन में यह भी तय किया गया है कि 2026 के बाद जो भी जनगणना होगी उसके अनुसार सीटों का परिसीमन होगा। सन् 2026 के बाद जनगणना कब होगी, यह भी भविष्य के गर्भ में है। जनगणना अधिनियम 1948, जनगणना नियम 1990 और उसके तहत किये गये संशोधनों के अनुसार देश की 16वीं दशकीय जनगणना 2021 में होनी थी। आजादी के बाद यह 8वीं जनगणना होनी है, जो कि अनिश्चित है। सरकार चाहे तो पहले भी जनगणना करा सकती है जो कि तत्काल संभव नहीं है। अगर 2026 में भी जनगणना कराई जाती है तो उसके विश्लेषण के नतीजे आने में भी कई साल लग जाएंगे, जो कि शायद ही 2029 के लोकसभा चुनाव तक आ सकें। अगर 2021 के बाद 2031 में जनगणना होती है तो उसके नतीजे आने में भी तीन-चार साल लगेंगे। अगर जनगणना 2026 के बाद 2027 में करायी जाती है, तब जाकर उसका उपयोग परिसीमन में कराया जा सकता है। लेकिन 2029 के चुनाव में फिर भी यह कसरत शायद काम आयेगी।
अगर यह आरक्षण क्षैतिज होता तो पुरुष प्रधान राजनीति पर इसका असर नहीं पड़ता। लेकिन मौजूदा विधेयक के अनुसार कानून बनाने वाली विधायिका में 33 प्रतिशत आरक्षण मिलने से जितनी सीटें महिलाओं की बढ़ेंगी, उतनी ही सीटें पुरुषों की घट जायेंगी। इससे कई नेता बेरोजगार हो जायेंगे। इसीलिये पिछले 27 सालों से यह मामला लटकता रहा है। भले ही अब कानून बन जाये, इसे लागू कराने की जिम्मेदारी पुरुष प्रधान राजनीतिक सत्ता की ही होगी। तभी कहा जा रहा है कि यह कानून तो बन रहा है मगर इसका क्रियान्वयन भविष्य पर छोड़ दिया गया है।
लोकसभा और विधानसभाओं द्वारा पारित किये गये अनेक अधिनियम हैं जो कि व्यावहारिक धरातल पर नहीं उतरे। कुछ उतरे भी तो बहुत देरी से। सन् 2014 में नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन अधिनियम बना था जो कि कभी लागू नहीं हुआ। उसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसी तरह गुजरात गवर्नमेंट लैण्ड एक्ट 1960 बना जो कि कभी लागू नहीं हुआ। सन् 1976 में भारतीय संविधान (दूसरा संशोधन) अधिनियम 1976 बना। वह भी विवाद के कारण लागू नहीं हुआ। संसद ने 1969 में प्रशासनिक सुधार अधिनियम 1969 पास किया तो वह भी धरती पर नहीं उतरा। गुजरात कंट्रोल ऑफ टेररिज्म एण्ड ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट 2015 भी विपक्ष के भारी विरोध के कारण लागूू नहीं हुआ। संसद भवन पर आतंकी हमले के बाद सन् 2002 में प्रीवेंसन ऑफ टेररिज्म एक्ट 2002 बना जिसे 2004 में रिपील कर दिया गया। उसके कई प्रावधान कभी लागू नहीं हुए। भूमि सुधार संबंधी कुछ कानून देश में बने जो लागू नहीं हुए। उत्तराखंड में सन् 2013 में प्लास्टिक डिग्रेडेबल एक्ट बना था जिसे लागू करने के लिये अब नियम और विनियम बनाने की तैयारी हो रही है। उत्तराखंड में ही सन् 2011 में लोकायुक्त एक्ट पास हुआ था जिसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गयी थी लेकिन वह कभी लागू नहीं हुआ। इसी तरह उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम 2014 बना था जिसे 180 दिन के अंदर प्रवृत्त होना था मगर वह अब तक लागू नहीं हुआ।