मनुष्य का विवेक धूमिल होता है गलतफहमी से
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
कभी बुजुर्गों से सुना था कि ग़लतफ़हमी और शक ऐसी बीमारियां हैं, जिनका इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। तात्पर्य यह है कि ग़लतफ़हमी और शक ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियां हैं, जो अच्छे-भले आदमी का दिमाग खराब कर देती हैं और आदमी अपने विवेक को खो देता है।
एक शायर ने ग़लतफ़हमी को लेकर बड़ा ही मौजू शे’र कहा है :-
‘फ़ासले बढ़े, तो गलतफहमियां और भी बढ़ गईं,
फिर उसने वो भी सुना,जो मैंने कभी कहा ही नहीं।’
मनोविज्ञान के विद्वान कहते हैं—‘रिश्ते अक्सर अहंकार और ग़लतफ़हमी के कारण टूटते हैं, क्योंकि अहंकार सच सुनने नहीं देता और गलतफहमी सच देखने नहीं देती।’ आज हमारे समाज में ग़लतफ़हमी की यह नकारात्मक प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है और जरा-जरा सी बात पर हम अपने रिश्तों को तोड़ने पर आमादा हो जाते हैं। इस प्रवृत्ति का परिणाम यह होता है कि समाज में अवसाद के साथ नैराश्य और अकेलापन घेर लेता है।
आज इसी ग़लतफ़हमी पर एक बहुत ही प्रेरक और अर्थपूर्ण बोधकथा पढ़ने को मिली है, जो अपने जिज्ञासु पाठकों से साझा कर रहा हूं।
‘एक समय की बात है एक सन्त प्रात:काल भ्रमण हेतु समुद्र के तट पर पहुंचे। समुद्र के तट पर उन्होंने एक पुरुष को देखा, जो एक स्त्री की गोद में सिर रखकर बेसुध सोया हुआ था! उसके पास ही शराब की एक खाली बोतल पड़ी हुई थी। यह देखकर वे सन्त बहुत दुखी हुए।
उन्होंने विचार किया कि यह मनुष्य कितना तामसिक और विलासी है, जो प्रात:काल शराब पी कर, स्त्री की गोद में सिर रखकर प्रेमालाप कर रहा है। थोड़ी देर बाद ही समुद्र से ‘बचाओ, बचाओ’ की आवाज आई। उन सन्त ने देखा कि एक मनुष्य समुद्र में डूब रहा है। मगर स्वयं तैरना नहीं जानने के कारण उस समय सन्त देखते रहने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते थे, इसलिए चुपचाप खड़े रहे।
तभी उन्होंने देखा कि स्त्री की गोद में सिर रखकर कुछ देर पहले सोया हुआ व्यक्ति उठा और डूबने वाले व्यक्ति को बचाने हेतु पानी में कूद गया। थोड़ी देर में उस व्यक्ति ने डूबने वाले को बचा लिया और सकुशल किनारे पर ले आया।
अब तो वे सन्त सोच-विचार में पड़ गए कि इस व्यक्ति को ‘बुरा’ कहें या ‘भला’ कहें। संत उस व्यक्ति के पास गए और बोले, ‘भाई! तुम कौन हो और यहां क्या कर रहे हो?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैं एक मछुआरा हूं और मछली पकड़ने का काम करता हूं। आज कई दिनों बाद समुद्र से मछली पकड़ कर प्रात: जल्दी यहां लौटा हूं। मेरी मां मुझे लेने के लिए आई थी और घर में कोई दूसरा बर्तन नहीं होने के कारण इस शराब की बोतल में मेरे लिए पानी लाई थी।
कई दिनों की समुद्र-यात्रा से मैं थका हुआ था और सुबह के सुहावने वातावरण में ये पानी पी कर, थकान कम करने के लिए अपनी मां की गोद में सिर रख कर, ऐसे ही सो गया था। जब डूबते व्यक्ति की आवाज़ सुनी, तो उसे बचाने समुद्र में कूद पड़ा।
यह सब जानकर सन्त की आंखों में आंसू आ गए। वे सोचने लगे, ‘मैं कैसा पापी मनुष्य हूं। जो मैंने देखा, उसके बारे में मैंने कितना गलत विचार बनाया, जबकि वास्तविकता तो बिल्कुल अलग ही थी।’ वे समझ चुके थे कि कोई भी बात, जो हम देखते हैं, वह हमेशा जैसी दिखती है, वैसी ही नहीं होती है। उसका एक दूसरा पहलू भी हो सकता है। इसलिए किसी के प्रति कोई निर्णय लेने से पहले सौ बार सोचना चाहिए और तब फैसला करना उचित होता है। ग़लतफ़हमी में लिया गया फैसला आदमी को लज्जित कर देता है और आदमी पछताने के सिवा कुछ नहीं कर पाता।’
संत कबीर ने तो सदियों पहले हमें खूब ठोक-पीट कर समझाया था :-
‘करता था तो क्यों किया,
अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का,
आम कहां से खाय।’
आज की आवश्यकता यह है कि हम अपनी सारी नकारात्मक ऊर्जा को दूर फेंककर, सकारात्मक चिंतन को अपनाएं और समाज में फैलते जा रहे ग़लतफ़हमी के रोग से लड़ने का प्रयास करें। सच यह है कि पछतावे की आग की जलन वास्तविक आग से भी ज्यादा कष्ट देती है। आइए, हम संकल्प लें कि किसी के प्रति गलत विचार बनाने से पहले सौ बार सोचेंगे अवश्य, ताकि हमें पछताना न पड़े।