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आलोचना को भी शालीनता से लेते थे मनमोहन सिंह

04:00 AM Jan 01, 2025 IST
आलोचना को भी शालीनता से लेते थे मनमोहन सिंह
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एक विद्वान अर्थशास्त्री और सहज-सरल जीवन के धनी डॉ. मनमोहन सिंह ने एक प्रधानमंत्री के रूप में बेहद विषम परिस्थितियों में काम किया। सत्ता के दो केंद्र होने तथा गठबंधन की विसंगतियों के बावजूद आलोचनाएं उनके हिस्से में आईं। लेकिन उन्होंने बेहद शालीनता से विषम परिस्थितियों का मुकाबला किया।

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टी.एन. निनान

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से पहली मुलाकात 1981 में दिल्ली में बतौर एक बिजनेस स्टैंडर्ड संवाददाता के रूप में हुई थी, जब अपने ब्यूरो चीफ के साथ योजना आयोग के सदस्य-सचिव से मिलने गया था। वे दोनों पुराने दोस्त थे। जब हम विशाल कार्यालय में सोफे पर बैठे, तो मेरे बॉस ने गौर किया कि डॉ. सिंह के पॉलिश किए हुए जूते के ऊपरी हिस्से पर सिलवटें पड़ी हुई थीं। मेरे ब्यूरो चीफ ने दोस्ताना अंदाज में पूछ ही लिया, आप नए जूते क्यों नहीं खरीद लेते? डॉ. सिंह का जवाब था कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पिछली नियुक्ति के दौरान जो कुछ बचत की थी, उससे अपने लिए एक घर बनवाया है। अब आगे अपनी बेटियों की शादी के लिए पैसे जोड़ने की जरूरत है।
इसके कुछ समय बाद, मैं आयोग के एक अन्य सदस्य से मिलने उनके घर गया। उन प्रतिष्ठित वैज्ञानिक ने मुझे एक कप चाय न दे पाने के लिए माफी मांगी। उन्होंने बताया कि चीनी बहुत महंगी हो गई है। यह वह समय था, जब सरकार के शीर्ष पर बैठे लोग भी मामूली वेतन पर साधारण जीवन जीते थे, उस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था दुनियाभर में गरीबी और घरेलू स्तर पर हर किस्म की वस्तुओं की कमी और नियंत्रण के लिए जानी जाती थी। और ऐसी अर्थव्यवस्था को डॉ. सिंह ने 1991 में नियंत्रण-मुक्त किया था। उत्पादक अब उपभोक्ताओं का पीछा करते हैं, जैसा कि उन्हें करना चाहिए।
सच है, 1991 में डॉ. सिंह ने जितना भी किया, उसके लिए उन्हें उचित श्रेय से कहीं अधिक मिला। जैसा कि उन्होंने खुद एक बार एक साक्षात्कार में कहा था, यह एक सामूहिक प्रयास था, और सभी का योगदान था– ज्यादातर चुपचाप रहकर काम करने वाले पीवी नरसिम्हा राव से लेकर उनके प्रमुख सचिव ए.एन. वर्मा और उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय के अन्य लोगों ने अपनी भूमिका निभाई। उसमें यशवंत सिन्हा भी शामिल थे, जिन्होंने नरसिम्हा राव की सरकार के शपथ ग्रहण करने तक, चंद्रशेखर सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए देश को दिवालियापन से बचाने के लिए आपातकालीन उपाय किए। नि:संदेह, भारत के लिए एक नए युग का सूत्रपात करने वाली महत्वपूर्ण घटना डॉ. सिंह का 1991 का बजट रहा, जिसमें उन्होंने विक्टर ह्यूगो को उद्धृत करते हुए कहा था ः ‘पृथ्वी पर कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया हो’, और इन शब्दों के साथ समाप्त किया, ‘पूरी दुनिया कान खोलकर और स्पष्ट रूप से सुन ले। भारत अब जाग गया है। हम पार पाएंगे। हम होंगे कामयाब’।
हालांकि, आलोचनाएं भी कम न थीं, उनके प्रधानमंत्रित्व काल में हुई कुछ चीज़ों के लिए जितनी आलोचना होनी चाहिए थी, शायद उससे कहीं ज़्यादा थीं। एक अस्थिर गठबंधन सरकार, जिसमें हर भागीदार वही करता था, जो वह करना चाहता था। एक ऐसी सरकार, जिसे हर काम में नुक्ताचीनी ढूंढ़ने वाले वामपंथियों का समर्थन पाने को कड़वा घूंट पीना पड़ता था, एक ऐसा मंत्रिमंडल, जिसमें कई मंत्रियों की वफादारी प्रधानमंत्री के प्रति न होकर सोनिया गांधी के प्रति अधिक थी। श्रीमती गांधी ने खुद कुछ कामों की बागडोर अपने हाथ में रखी थी, सो एक दोहरी शासन व्यवस्था बनी हुई थी। पद पर बेशक डॉ. सिंह थे, लेकिन वास्तव में सत्ता या पूर्ण नियंत्रण उनके हाथ में नहीं था।
तिस पर, वे वह नेतृत्व प्रदान करने में भी असफल रहे जो वास्तव में उनकी भूमिका थी। जबकि खुद उन्होंने यह दर्शन दिया था ः ‘राजनीति संभावना की कला है’, तथापि उन्होंने न तो खुद को मुखर करने और न ही संभावनाओं की सीमाओं का विस्तार किया- जैसा कि मैंने एक बार बेबाक किंतु मैत्रीपूर्ण व्यक्तिगत बातचीत के दौरान उन्हें यह कह भी दिया। इस पर उनका जवाब था कि उनकी अपनी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। एक प्रधानमंत्री के मुख से यह निकलना एक अजीब बात थी। श्रीमती सोनिया गांधी को भी यह श्रेय जाता है कि डॉ. सिंह सरकार की कई बड़ी पहलकदमियों की प्रवर्तक वे रहीं, मसलन, सूचना का अधिकार, ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम और भोजन का अधिकार।
अंत में, जो आपके पास बचता है वह हैं उनके व्यक्तिगत गुण। पारदर्शी ईमानदारी और सार्वजनिक भलाई के उद्देश्य की भावना, हर मुलाकात की विशिष्टता रही शालीनता और शिष्टाचार। प्रत्येक भेंट में उनकी समझ और ज्ञान की गहराई, कभी-कभार उनकी मुस्कुराहट जो मुश्किल समय में भी हंसने की उनकी क्षमता को दर्शाती थी।
वे चंद शब्दों में बहुत कुछ कह जाते थे। वर्ष 1996 में, जब मैंने उल्लेख किया कि राव सरकार अपने चुनाव घोषणापत्र में आर्थिक सुधारों का जिक्र करने नहीं जा रही, तो एक पल के लिए ठिठक कर उन्होंने पूछा : ‘बात करने के लिए और बचा क्या’? टिप्पणीकार डॉ. सिंह की विनम्रता का उल्लेख करते हैं। हां, उनका व्यवहार विनम्र था जो उनके अंदर स्वाभाविक रूप से था। वास्तव में, वे लोगों को तारीफ से मिलने वाली आत्म-तुष्टि का इस्तेमाल करने वाले एक चतुर खिलाड़ी थे, जिन्हें वे अत्यधिक प्रशंसा के साथ चित्त कर देते थे - जैसा कि मैंने एक से अधिक बार देखा। लेकिन कुछेक बार यह करना कुछ ज्यादा ही हो गया। एक मर्तबा, जब दिल्ली के ताज पैलेस होटल में अमेरिका के राष्ट्रपति के सम्मान में आयोजित दोपहर के भोजन के दौरान उन्होंने जॉर्ज डब्ल्यू बुश की शान में अतिशयोक्तिपूर्ण कसीदे पढ़ते हुए कह डाला ः ‘पूरा भारत उनसे प्यार करता है।’
उन्होंने आईएमएफ के प्रबंध निदेशक माइकल कैमडेसस के साथ भी ऐसा ही किया, जिन्होंने 1991 में भारत के लिए संजीवनी बना ऋण मंजूर किया था। उनकी दिल्ली यात्रा के दौरान एक रात्रिभोज में डॉ. सिंह ने अपने मेहमान की तारीफ के पुल बांध दिए और उन्हें ‘सर’ कहकर संबोधित किया। हो सकता है यह मात्र भारतीयों के अतिथि देवो भवः वाली विशेषता का प्रतीक हो। हमारी अखबार के कुछ समय के लिए क्रियाशील रहे पुस्तक प्रभाग द्वारा प्रकाशित पहली किताब का विमोचन करते समय उन्होंने कहा कि उनके लिए अपनी सरकार की विफलताओं के लिए की गई आलोचनाओं का मोल है, लेकिन कहा कि अखबार को उपलब्धियों के लिए सरकार को बनता श्रेय देना चाहिए।
याद करने लायक ऐसी एक आलोचना अशोक वी. देसाई द्वारा की गई थी, जो कैम्ब्रिज में डॉ. सिंह के सहपाठी और मित्र थे। बिजनेस स्टैंडर्ड के एक तेजतर्रार और तीखे स्तंभकार के रूप में जाने जाते देसाई ने 1995 या उसके आसपास लिखा था कि डॉ. सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं, लेकिन अपने आस-पास भ्रष्ट लोगों को बर्दाश्त करते हैं। डॉ. सिंह ने विरोध जताने के लिए मुझे फोन किया और पूछा कि इस तरह की आलोचना से खुद का बचाव कैसे करें। मैंने कहा कि लेखक उनके मित्र हैं और मैं देसाई से आपसे बात करने को कहूंगा। लेकिन यह तथ्य है कि देसाई ने अंगुली सही नब्ज पर रखी थी।
इतना ही नहीं, जिस खुली हवा में हम सांस लेते थे, उसका प्रतिबिंब विज्ञान भवन में डॉ. सिंह की शैक्षणिक उपलब्धियों के सम्मान में लिखे आलेखों के संग्रह के विमोचन हेतु आयोजित एक कार्यक्रम में देखने को मिला। इस संग्रह का सह-संपादन इशर जज अहलूवालिया और ऑक्सफोर्ड में डॉ. सिंह के शिक्षक रहे इयान लिटल ने किया था। कार्यक्रम के वक्ता के रूप में मैंने अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों को व्यंग्य के पुट से हल्का-फुलका बना दिया। लेकिन शिकागो में पढ़ाने वाले और उस समय प्रधानमंत्री के सलाहकार रहे रघुराम राजन ने ऐसा नहीं किया, उन्होंने आलोचनाएं काफी कड़ी कीं। मुझे किसी अन्य प्रशासक की याद नहीं आ रही, जिसकी सरकार के तहत प्रधानमंत्री के सम्मान में कार्यक्रम आयोजित हो और वक्ता उनके सामने ही उसकी सरकार की खुलकर आलोचना करें और फिर उनके साथ रात्रिभोज में शामिल हों! उस समय ऐसी ही स्वतंत्रता थी!
एक पत्रकार के रूप में मैंने 35 वर्षों में डॉ. सिंह के साथ जितनी बार बातचीत की, उनकी गर्मजोशी और शिष्टाचार का आनंद लिया, हर बैठक से उनकी बुद्धिमत्ता के नए आलोक के साथ निकला। उनकी और उनकी सरकार की जितनी भी आलोचना मैंने की हो, उसके बावजूद भारत मां के इस सच्चे महान सपूत के प्रति सम्मान सबसे अधिक रहा। उनका निधन मेरे लिए किसी भी अन्य सार्वजनिक व्यक्ति की मृत्यु से अधिक दुःखद घटना है।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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