खेल नीति का निर्धारण हकीकत बने
सुरेश सेठ
टोक्यो में अनूठा ओलम्पिक हो गया, जिसके खेल स्टेडियम कोरोना की वजह से दर्शकों से खाली थे, लेकिन यह इतना बड़ा इवेंट था कि एक पखवाड़ा इसके समाचार शीर्षकों की भेंट हो गया। भारत के खिलाड़ियों ने जो प्रदर्शन किया, उससे हर नागरिक का मन गद्गद, प्रधानमंत्री का हर्षातिरेक और राष्ट्रपति का आशीर्वाद मिला। पदक विजेताओं के लिए बड़े इनामों की झड़ी लग गयी। सच में खिलाड़ियों ने वे उपलब्धियां प्राप्त कर भारत के लिए इतिहास रच डाला।
एथलेटिक्स में पिछले सौ वर्ष में पहला स्वर्ण पदक प्राप्त कर हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने भाला फेंकने के खेल में इतिहास रच दिया और मिल्खा सिंह की आखिरी इच्छा को भी पूर्ण कर दिया कि ‘काश! भारत भी एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक जीते।’ लंदन ओलम्पिक में हम छह पदक जीत कर लाये थे, इस बार टोक्यो में हमने सात पदक जीत कर, कोरोना के इस विकट काल में भी अपना प्रदर्शन बेहतर किया।
भारतीय हॉकी अपनी लय में लौटी। आठ बार का स्वर्ण पदक विजेता भारत हॉकी खेल प्रणाली बदल जाने के बाद खेल के मैदान में पिछड़ गया था। इस बार उसने अपने प्रतिबद्ध और आक्रामक खेल के साथ पदक तालिका में वापसी की। सेमीफाइनल मुकाबला तो हार दिया, लेकिन चार दशकों के बाद कांस्य पदक जीत कर बता दिया कि अब भारतीय हॉकी के गरिमापूर्ण दिनों की वापसी हो गयी। महिलाओं की हॉकी भी नये वायदे लेकर आयी है, जीत-दर-जीत दर्ज करती हुई यह टीम कांस्य पदक तो जीत नहीं पायी लेकिन खेल के मैदान में उनका जुझारूपन नयी महिला खिलाड़ी के जुझारूपन की छवि प्रस्तुत कर रहा था।
भारतीय पहलवान बजरंग पूनिया स्वर्ण पदक तो नहीं जीत पाये, लेकिन कज़ाकिस्तान के नियाजवेकोव को हराकर कांस्य पदक अवश्य जीत गये। रवि दहिया ने कुश्ती में रजत पदक जीत कर अपना दम दिखा दिया। महिलाओं की ओर से भारोत्तोलक मीराबाई चानू का रजत पदक, बैडमिंटन खिलाड़ी पी. वी. सिंधु और मुक्केबाज़ लवलीन बोरगेहन के कांस्य पदक भी देश की उस महिला शक्ति का परिचय दे रहे थे, जो भारत के पदक खिलाड़ियों के साथ कदम-ब-कदम चलना सीख रही है।
चाहे ओलम्पिक के पहले दिन की शुरुआत भारत ने एक रजत पदक से की और अन्तिम दिन भी अपनी झोली में एक स्वर्ण पदक डाल लिया, लेकिन इन उपलब्धियों के हर्षोन्माद में हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि जहां तक दूसरेे देशों द्वारा पदक जीतने की तालिका का सम्बन्ध है, भारत इसमें 47वें स्थान पर है। यह सही है कि लंदन ओलम्पिक के मुकाबले हमने एक और पदक जीत लिया, लेकिन पदक विजेताओं की तालिका में हम कहां हैं?
भारतीय अपनी सेहत या खेल स्पर्धा में किसी से कम नहीं, फिर क्यों हर बार हम पिछलग्गू रह जाते हैं? कभी भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी की बात करते हुए हम थकते नहीं थे। पुराने ढंग की हॉकी में हम आठ बार स्वर्ण पदक विजेता रहे। उन दिनों पंजाब के पुलिस मुखिया अश्विनी कुमार हॉकी के प्रेरक और जननायक-सा रुतबा रखते थे। फिर हॉकी खेलने का ढंग बदल टर्फ मैदानों में आ गया, और भारतीय खिलाड़ियों को उसकी लय पकड़ते चार दशक लग गये। उनकी यह उपलब्धि महत्वपूर्ण है, परन्तु इस वापसी में इतना अन्तराल क्यों हो गया?
खिलाड़ियों की सूची खंगालते हैं। इनमें बड़ी संख्या में पंजाब के हैं, और पत्रकारों ने इनका नाम ‘पंजाब ब्रिगेड’ रख दिया। लेकिन हॉकी में गोल बचाने वाला श्रीजेश गोलकीपर पंजाबी नहीं था, इसलिए याद रखा जाये कि खिलाड़ी तो खिलाड़ी होते हैं, खेलते हुए अपनी राष्ट्रीयता को समर्पित! इसलिए किसी भी स्तर पर इनका मान सम्मान क्षेत्रीयता की दृष्टि से नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर ही होना चाहिए। मीडिया भी इनकी कवरेज करते हुए इन्हें देश के लिए जूझते हुए खिलाड़ी माने, अपने-अपने इलाके के नहीं।
सही है कि टोक्यो ओलम्पिक दल के खिलाड़ियों में पंजाब और हरियाणा के खिलाड़ियों ने दमदार खेला, उपलब्धियां प्राप्त की, या अपने खेल के लिए प्रशंसा बटोरी लेकिन विजय पदक तालिका में भारत का सैंतालिसवां रैंक देखते हुए प्रश्न उठता है कि कमी कहां रह गयी? क्या इंटरनेट और डिजिटल भारत बनाने की इस अन्ध प्रतियोगिता में देश के खिलाड़ी, देश के खेल मैदान और देश की उचित खेल नीति कहीं उपेक्षित हो गयी।
टोक्यो ओलम्पिक में अब जब भारतीय खिलाड़ियों ने अपना जज्बा दिखा कर आगे बढ़ने का प्रयास किया है तो एक बात समझ लेनी चाहिये कि खिलाड़ियों को उचित पारितोषिक या मान सम्मान नहीं दिया जाता। देश के संचार माध्यमों और मीडिया में ऐसे खिलाड़ियों की खबरें उभरने लगती हैं, जिन्हें पूर्व हो जाने पर उचित रोज़ी रोटी का वसीला नहीं मिलता और वह फुटपाथी धंधों में अपना जीवनयापन करते हैं।
हम गर्व से यह तो कह देते हैं कि विश्वस्तरीय इन खेल प्रतियोगिताओं या ओलम्पिक में हमारे देहाती नौजवान उभरते हैं। लेकिन देश के ग्रामीण इलाकों में उचित खेल मैदानों, प्रशिक्षण और खेल प्रतियोगिताओं का प्रबन्ध क्यों नहीं है? हमारे खेल स्टेडियम, कोच, अकादमियां शहरी इलाकों में क्यों सिमटी हुई हैं? ग्रामीणों की अपनी खेल प्रतियोगितायें भी होती हैं, जिनकी स्थानीय रंगत और उत्साह लोगों को अपनी मिट्टी से जोड़ता है, यह उन्हें नगरों और विदेशों की ओर पलायन के लिए भी निरुत्साह कर सकता है। जरूरी है वहां खिलाड़ियों की खेल प्रतिभा को उचित संरक्षण मिले।
टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों के दमदार प्रदर्शन ने देश में एक नयी खेल संस्कृति पैदा करने की ज़रूरत को रेखांकित कर दिया है। यह खेल संस्कृति शहरों से नहीं, गांवों से उभरनी चाहिये। नये खेल स्टेडियमों और कोचिंग खेल अकादमियों का नीव स्थल गांवों के खुले स्थान हों, न कि शहरी खेल स्टेडियमों की ऊंची दीवारों का बन्द माहौल। महानगरों के खेल स्थल और खेल स्टेडियम बने रहें। वहां खेल प्रतियोगितायें आयोजित करके खिलाड़ियों को आर्थिक पुरस्कारों एवं अभिनंदन उत्साह दिया जाता रहे, लेकिन भारत के गांवों के नौजवानों की सुदृढ़ नर्सरी, गांवों में सार्थक खेल नीति के प्रयास से ही बनेगी। वैसे इनमें क्षेत्रीयता, प्रांतीयता या जातिभेद की विभाजक रेखायें नहीं खींचनी चाहिये। लेकिन नयी खेल नीति का केन्द्र बिन्दु गांवों की ओर बनाया जा सकता है। भारत आज भी मूलत: गांवों का देश है, और इधर आत्मनिर्भर भारत का एक नारा भी है, ‘चलें गांव की ओर।’
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।