लोक-परलोक सुधारते माघ के पांच संकल्प
चेतनादित्य आलोक
माघ महीने का नाम ‘माघ’ इसलिए पड़ा, क्योंकि यह महीना मघा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा से प्रारंभ होता है। दरअसल, चंद्रमास के महीनों के नाम नक्षत्रों पर ही आधारित होते हैं, जैसे पौष महीने का संबंध पुष्य नक्षत्र से होने के कारण इसे ‘पौष’ कहा जाता है। बहरहाल, पुराणों समेत हमारे विविध शास्त्रों में माघ महीने के माहात्म्य का वर्णन मिलता है। माघ महीने में तीर्थराज प्रयाग के तट पर कल्पवास के दौरान स्नान, दान और तप के माहात्म्य का पद्म पुराण में विस्तार से वर्णन है। माघ महीने में ब्रह्मवैवर्तपुराण की कथा सुनने का भी बड़ा महत्व है। इनके अतिरिक्त माघ महीने में पुराण मुख्य रूप से जिन पांच कार्यों के करने का निर्देश देते हैं वे हैं- कल्पवास, स्नान, दान, सत्संग और स्वाध्याय। पुराणों के अनुसार इन पांचों कार्यों के करने से व्यक्ति को पापों से छुटकारा तो मिलता ही है, उसके संकटों का नाश भी होता है और मनोवांछित सुख की प्राप्ति होने के कारण जीवन में खुशहाली भी आती है।
कल्पवास
माघ महीने में कल्पवास करने का बड़ा महत्व है। हिंदू धर्म में प्रधानतः तीर्थराज प्रयाग में संगम के तट पर कुटिया बनाकर निवास करने की प्रथा को ‘कल्पवास’ कहा जाता है, जहां पर साधु-संतों के सान्निध्य में व्रत, तप, उपवास, सत्संग और स्वाध्याय इत्यादि करने का अवसर प्राप्त होता है। हालांकि, कल्पवास के लिए तीर्थराज प्रयाग के संगम-तट का होना अपरिहार्य नहीं है, बल्कि कल्पवास तो ऐसे किसी भी स्वच्छ जल से युक्त नदी के तट पर किया जा सकता है, जहां पर साधु-संतों का सान्निध्य प्राप्त हो सके। कल्पवास का समय पौष महीने के ग्यारहवें दिन से माघ महीने के बारहवें दिन तक रहता है। वैसे कुछ लोग माघ पूर्णिमा तक कल्पवास करते हैं। माघ के महीने में कल्पवास करने का महत्व संतकवि तुलसीदास जी ने भी बताया है कि माघ में जब सूर्यदेव मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सभी तीर्थराज प्रयाग पहुंचते हैं और श्रद्धापूर्वक त्रिवेणी के संगम में स्नान करते हैं। साथ ही श्रीकृष्ण भगवान के चरणकमलों का पूजन करते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर हर्षित होते हैं।
स्नान
माघ महीने में विशेष रूप से माघ पूर्णिमा को संगम में स्नान करने का बहुत महत्व है। यदि संगम में स्नान करना संभव न हो तो गंगा, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा, कृष्णा, क्षिप्रा, सिंधु, सरस्वती, ब्रह्मपुत्र आदि जैसी किसी भी पवित्र नदी में स्नान किया जा सकता है। माघ महीने में स्नान के माहात्म्य को पद्मपुराण के उत्तरखण्ड के इस श्लोक से भी समझा जा सकता है-
व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः।
माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः॥
प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुक्तये।
माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्ग लाभाय मानवः॥
अर्थात् व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए स्वर्ग लाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य करना चाहिए।
दान
माघ महीने में दान करने का भी बड़ा महत्व है। वेदों में तीन प्रकार के दान बताये गये हैं- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। इसी प्रकार पुराणों में दान के विभिन्न प्रकारों का वर्णन मिलता है, जिनमें अन्नदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं, क्योंकि इन्हें दानों में श्रेष्ठ माना गया है। शास्त्र ऐसे दानों को पुण्यदायी बताते हैं। वैसे स्वार्थरहित हो, श्रद्धा भाव से किया गया दान ही सभी दानों में सर्वश्रेष्ठ होता है। शास्त्रों के अनुसार दान करने से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है और मन की ग्रंथियां खुलती हैं।
सत्संग
माघ महीने में मंदिरों, आश्रमों और नदी-तटों पर पारंपरिक रूप से सत्संग एवं प्रवचन के अतिरिक्त माघ महीने के माहात्म्य तथा पुराण कथाओं आदि का आयोजन किया जाता है। आचार्य विद्वानों एवं साधु-संतों द्वारा धर्माचरण की शिक्षा देने वाले विविध प्रसंगों का श्रोताओं के समक्ष वर्णन किया जाता है। सत्संग के दौरान कथा प्रसंगों के माध्यम से भक्तों के तन-मन का स्वास्थ्य तो संवरता ही है, उन्हें धर्म का ज्ञान भी मिलता है।
स्वाध्याय
स्वाध्याय के अभ्यास से वैचारिक स्पष्टता और आत्मविश्वास आता है तो जीवन में अनुशासन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो स्वाध्याय के अभ्यास से व्यक्ति के मन से नकारात्मक विचारों का नाश होता है। जाहिर है कि इस प्रक्रिया से जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जो कालांतर में व्यक्ति के उत्तरोत्तर विकास का कारण साबित होता है। इस प्रकार माघ के महीने का न केवल धार्मिक-आध्यात्मिक रूप से, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी बड़ा महत्व है।