सांस्कृतिक चेतना से तालमेल हो मशीनी मेधा का
सुरेश सेठ
नया भारत तेजी से डिजिटल हो गया। इंटरनेट की ताकत का इस्तेमाल करने में भारत दुनिया में किसी देश से कम नहीं। साथ ही यहां भी रोबोटिक युग आ गया। लेकिन एक देश जिसकी आबादी दुनिया में सबसे अधिक हो, जिसमें आधी जनसंख्या युवा हो, और वह अपने लिए उचित नौकरी ही तलाश रही हो, उसके लिए रोबोट युग स्वीकार कितना समीचीन होगा? इसके साथ ही सेमीकंडक्टर और चिप युग भी है जिसके बारे में खबरें हैं कि पंगु दिमाग वाले भी चिप लगाकर शतरंज खेल सकते हैं।
चिप के अलावा चैटजीपीटी भी शुरू हो गया। चैटजीपीटी का एक चोर रास्ता डीपफेक भी शुरू हो गया जिसमें लोगों की रुचि हो गई क्योंकि इसके जरिये किसी के मुंह से कोई भी शब्द कहलवा लें। इसे ठगी के नये-नये तरीकों में सम्मिलन कर लिया। इधर कृत्रिम मेधा (एआई) में चैटजीपीटी में 4-ओ लांच हो गया है। एआई का यह नया मॉडल है जो बहुत तेज है। आवाज, फोटो और वीडियो इनपुट पर एकदम प्रतिक्रिया देता है। इंसानों जैसे इमोशन के साथ जवाब देता है। पुराने दोस्तों की तरह आपकी सारी बातें याद रखता है। एआई के नये मॉडल वाली ‘चैटजीपीटी’ से बात करो तो वह बहुत जीवंत और पूरी भाव-भंगिमा के साथ जवाब देता है। टोको, तो भी चालाकी से बात जारी रखता है। भावुकता और संवेदना गायब हो गये। निजी जिंदगी पर इसे हावी होने दे रहे हैं। रोजमर्रा की जरूरतों से लेकर बच्चों से जुड़ी बातों का भी फैसला जीपीटी से हो रहा है।
इस वर्ष दुनिया के बहुत से देशों में चुनाव होने जा रहे हैं। चैटजीपीटी के नये मॉडल से उत्तेजनापूर्ण भाषणों के डैमो आएंगे और नयी बात, भावुकता भरी बातें भी की जा सकेंगी। यह दीगर बात है कि ये बातें वास्तविकता के धरातल से नहीं उठेंगी। आम लोगों के दुख-दर्द की प्रतिक्रिया को समेटकर एकदम से जवाब नहीं देंगी, केवल यांत्रिक होंगी। ऐसी यांत्रिकता से जीवन की गति तेज तो हो जाती है लेकिन इसमें न गहराई आती है, न भावुकता के नये आयाम खुलते हैं। भारत में सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जागृत करने की जो कोशिश हो रही है, यांत्रिकता से वह भी नहीं होती है। लेकिन फिर भी भारत एआई के बाजार में बाकी देशों से पीछे नहीं रहना चाहता है।
भारत में एआई का बाजार 25 से 35 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, साल 2027 तक हमारे देश में इस पर तीन गुणा खर्च बढ़कर 41,707 करोड़ रुपये हो जाएगा। यह खर्च बढ़ेगा क्योंकि इसकी प्रौद्योगिकी, यंत्रों और उपकरणों में बड़ा निवेश होगा। बेशक एआई से जुड़ी नई नौकरियां बड़े शहरों तक पहुंच जाएंगी। एआई के नये प्लेटफार्म जयपुर, आगरा, ग्वालियर, हरिद्वार, जबलपुर, जोधपुर, भोपाल और बीकानेर बनेंगे, महानगर तो होंगे ही।
अब चैटजीपीटी मुफ्त भी मिलेगी और शुल्क के साथ भी। 50 भाषाओं में ट्रांसलेशन करेगी। जीपीटी 4-ओ इससे पहले प्रचलित जीपीटी 4-टर्बो से दोगुनी तेजी से काम करेगी। इसकी कीमत भी आधी होगी। जहां तक कृत्रिम मेधा के इस युग में बड़े समृद्ध देशों के मुकाबले में किफायत का संबंध है, भारत के लिए यह नई बात नहीं क्योंकि अंतरिक्ष अभियानों में भी हमारी किफायत जगजाहिर है।
दो-तीन वर्षों में भारत को हम दुनिया की तीसरी बड़ी शक्ति बना देना चाहते हैं। इसलिए डिजिटल युग में कृत्रिम मेधा और रोबोटिक्स का इस्तेमाल उसे नयी ताकत देगा। लेकिन भारत जैसे देश के लिए इसके रास्ते में आने वाली कठिनाइयां भी कम नहीं। उनका निराकरण भी जरूरी है। पहली कठिनाई है कि अगर देश में एआई को जीवन जीने का नया ढंग बना दिया जाएगा तो उसके लिए ऊर्जा की बहुत आवश्यकता होगी। सोलर एनर्जी की बहुत बातें होती हैं लेकिन हकीकत में अभी हम कोयले से ही अतिरिक्त विद्युत उत्पादित करने में विश्वास करते हैं। पॉवरकट जिंदगी का हिस्सा बन गया है और सामान्य उत्पादन के लिए ही विद्युत पूरी नहीं पड़ती तो क्या ऐसे में कृत्रिम मेधा के नये मॉडल अपनाकर अपनी विद्युत क्षमता पर और भार डालना जायज है?
दूसरा बिंदु यह कि जो नया चिप, रोबोट, सेमीकंडक्टर युग हम ला रहे हैं, वह महानगरों में कुछ नौकरियां जरूर पैदा करेगा लेकिन उन नौकरियों के लिए विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। क्या यह ट्रेनिंग देने के लिए हमने प्रशिक्षण संस्थान तैयार कर लिए हैं? इसके अलावा, इंसानी दिमाग और भाव प्रवणता का विकल्प क्या कृत्रिम मेधा हो सकती है? मां का प्यार, प्रेमिका का रोमांस और बहन का स्नेह कृत्रिम मेधा कभी नहीं दे सकती। ऐसे में जरूरत निश्चित स्तर के संतुलन की है। कृत्रिम मेधा का विकास अगर व्यावसायिक प्रगति तक के लिए सीमित कर दिया जाता और भावुकता व संबंधों की संवेदना को मशीनी तेवर न दिया जाता तो शायद इस देश की आबोहवा या माहौल वही बना रहता जिसमें से वह सांस्कृतिक चेतना उपजती है जिसके चलते इस देश की विश्व में एक अलग छवि है। दरअसल विश्व गुरु या मार्गदर्शक हो जाना कृत्रिम मेधा से संभव नहीं, इसके लिए मौलिक रास्ते अपनाने होंगे। इंसान के विशिष्ट गुणों के सहारे ही हम आगे बढ़ सकते हैं, केवल मशीनी आदमियों के सहारे नहीं।
लेखक साहित्यकार हैं।