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नवाबी मिज़ाज का हसीन शहर लखनऊ

06:47 AM Mar 29, 2024 IST
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अमिताभ स.
लखनऊ के चार बाग रेलवे स्टेशन पर उतरते ही नवाबी सजधज हर आने वाले का तहेदिल से आवभगत करती लगती है। या कहिए, कि लखनऊ की अदब तहजीब से स्टेशन पर ही मुलाकात हो जाती है। पाकीजा व उमराव जान के अहसास, गलौटी कबाब, चिकन कुर्ते समेत लखनवी अदब के रचे-बसे शहर को करीब से जानना-पहचानना वाकई मज़ेदार अनुभव है। नवाबी स्टाइल के चार बाग स्टेशन का निर्माण अंग्रेजों की देन है। ​रेलवे स्टेशन समेत लखनऊ की काफी इमारतों पर ब्रिटिश छाप झलकती है। मस्जिद, दरवाजे, इमामबाड़ा और संकरी गलियां नवाबों के दौर की यादें ताजा करती हैं। लखनऊ का मार्डन लुक भी देखने लायक है। अंबेडकर पार्क, जनेश्वर पार्क, लोहिया पार्क और परिवर्तन चौक नए लखनऊ की पहचान कराते हैं।

असल में, लखनऊ ऐतिहासिक शहर है। मुगल शासनकाल के दौरान, अवध स्वतंत्र प्रोविंस था। इस पर, मुगल बादशाह द्वारा नियुक्त गवर्नर राज करता था। गवर्नर को तब नवाब कहते थे। लखनऊ का पहला नवाब शिया था और उसे ईरान से खासतौर से नवाबी के लिए बादशाह ने बुलवाया था। नाम था- बुरहान-उल-मुल्क सादत अली खान। उसका भतीजा और वारिस सफदर जंग बाद में मुगल दरबार का वजीर भी बना। जानना दिलचस्प है कि सफ़दर जंग का मक़बरा नई दिल्ली में सफ़दर जंग एयरपोर्ट के नजदीक है। यही नहीं, दक्षिण दिल्ली में सफ़दर जंग एनक्लेव नाम की एक पॉश कॉलोनी भी है।

इमामवाड़ा और दमपुख्त

लखनऊ का उदय तीसरे नवाब असफ-उल-दौला के शासन के दौरान हुआ। उसने अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ शिफ्ट की थी। सन‌् 1784 में, उसने ही लखनऊ के खासमखास लैंडमार्क बड़ा इमामवाड़ा का निर्माण करवाया। राज मिस्त्रियों और कारीगरों के भोजन की व्यवस्था भी थी। दिहाड़ी के साथ-साथ भोजन की खासी अहमियत थी क्योंकि सारा इलाका अक्सर सूखे की चपेट में रहता था। यहीं जनता रसोई बनाई गई और ‘दम पुख्त’ कुजीन का सिलसिला चल निकला।
बड़ा इमामवाड़ा टूरिस्ट्स का बड़ा आकर्षण है। विशाल सभागार है, खूब ऊंची छत है और छत को सहारा देता एक भी खम्भा नहीं है। इस लिहाज से, इसे आर्किटेक्चर का बेमिसाल नमूना कह सकते हैं। नीबू बाग और चिड़ियाघर भी देखने लायक़ हैं। ​बड़ा इमामवाड़ा घूमने के बाद रूमी दरवाजा से निकल कर, पिक्चर गैलरी का रुख करते हैं। यहां है नवाबों की लाइफ साइज तस्वीरों की नुमाइश।
और दाईं तरफ है हुसैनाबाद घंटाघर। कहते हैं कि यह देश के सबसे ऊंचे घंटाघरों में से एक है। नजदीक ही है छोटा इमामबाड़ा। मुहर्रम के रोज तमाम झाड़फानूस जगमगा उठते हैं और इमामबाड़े का दिलकश नज़ारा उभरता है। श्री हनुमान सेतु मंदिर की भव्यता दिव्य समझिए। आस्था है कि बजरंग बली के दर्शन करने से सारे संकट दूर हो जाते हैं।

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ख़रीददारी हजरत गंज और चौक में

अंग्रेजों ने भी नवाबों के लखनऊ में यहां-वहां अपनी छाप छोड़ी। उत्तर प्रदेश सरकार की विधानसभा, या कहें कौंसिंल हाउस, पोस्ट ऑफिस और हजरत गंज मार्केट सभी अंग्रेजों के तोहफे हैं। ब्रिटिश दौर की सबसे ज्यादा यादें रेजिडेंसी में दिखाई देती हैं। सन‌् 1856 में, ब्रिटिश हुकूमत ने अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह का तख्ता पलट दिया था। अगले ही साल 1857 में पहली जंग-ए-आजादी की चिंगारियों में अंग्रेजों की रेजिडेंसी पर कई गोले दागे, जो आज भी घाव बने दिखाई देते हैं।
यूं तो, लखनऊ में सभी धर्मों के त्योहार मनाए जाते हैं। लेकिन मुहर्रम पर्व सबसे अहम है। नवाब शिया थे, इसलिए लखनऊ के रग-रग में शिया के रीति-रिवाज दौड़ते हैं। लखनऊ में मुहर्रम 2 महीने 8 दिन तक ज़ारी रहता है, जबकि बाकी शहरों में 10-12 रोज ही।
लखनऊ के बारे में सबसे मशहूर बात कही जाती है कि दुनिया का अकेला शहर है, जहां चिकन यानी मुर्गा खाया भी जाता है, और चिकन (यानी कढ़ाई की कला) पहना भी जाता है। इसकी खासियतों में शुमार है- चिकन के कपड़े। चांदी के पान-दान, गहने, इत्र वगैरह भी टूरिस्ट सौगात के तौर पर लखनऊ से ले जाना पसंद करते हैं।
चौक सबसे पुराना बाजार है, जहां से निकलती हर गली में दुकानों की भरमार है। लखनऊ के चौक से बेहतर और स्टाइलिश बाजार हजरत गंज है। शुरू-शुरू में, अंग्रेजों और साहिब लोगों के लिए बना था। तारीफ लायक बात है कि हज़रतगंज में सभी दुकानों के बोर्ड एक रूप के हैं- काला बेकग्राउंड और ऊपर सफेद रंग से दुकानों के नाम। पहली नज़र से देखकर ही अत्यंत आकर्षक लगते हैं।

खाने-पीने की ऐश

बुजुर्ग कहते हैं कि अगर गोमती नदी का पानी चख लिया, तो आप पानी पीने फिर खिंचे चले अाएंगे। और फिर, लखनऊ में तो मेहमाननवाजी के लिए एक से एक स्ट्रीट फूड का खजाना है। नवाबों को खाना पकाने और खिलाने का बराबर शौक रहा है, जिसकी बदौलत उभरे गलौटी कबाब और रुमाली रोटी को अवधी व्यंजनों का सरताज माना जाता है। पकाने का ठेठ लखनवी तौर-तरीका दमपुख्त कहलाता है। गलौटी कबाब ही नहीं, अफलातूनी कोरमा, अफगानी परांठे और मीठे में शाही टुकड़ा लखनऊ के पसंदीदा व्यंजनों में शामिल हैं।
अवध का वेज स्ट्रीट फूड सूखे आलू-खस्ता कचौड़ी बडी टेस्टी है। ​‘टुंडे कबाबी’ तो लखनऊ की शान और जान है। वेज खाने वालों के लिए खोमचे के चटकारे भी कम नहीं हैं- हजरतगंज में ही ‘रॉयल कैफे’ के लखनऊ अंदाज़ के गोल-गप्पे तो खैर हैं ही, मटर की चाट भी मस्त है। गर्मागर्म तलती पूरियां भी अलग-थलग जायके में परोसी जाती हैं- हींग, लेमन, पुदीना और क्या-क्या फ्लेवर की! इसकी बॉस्केट चाट के चर्चे तो देश-विदेश में हैं। चौक पर राधे लाल हलवाई की देसी घी की मोठ दाल तो लोग लखनवी सौगात के तौर पर लेकर जाते हैं। प्रकाश का कुल्फी फलूदा और राम आसरे हलवाई की ऑरेंज बर्फी नहीं खाई, तो लखनऊ में समझते हैं कि मुंह मीठा ही नहीं किया।

दिल्ली से लखनऊ...

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ गोमती नदी के किनारे बसी है। ​दिल्ली से करीब 500 किलोमीटर दूर है। दिल्ली से रोड, ट्रेन और प्लेन के जरिए जा सकते हैं। लखनऊ शताब्दी 6 घंटे में दिल्ली से लखनऊ पहुंचाती है। हवाई जहाज़ से महज एक घंटे में दिल्ली से लखनऊ पहुंचते हैं। सड़क के रास्ते सबसे ज्यादा वक्त 8-9 घंटे लगते हैं।

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