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अभिशप्त जीवन से मुक्ति को बुलंद आवाज

11:36 AM Jun 23, 2023 IST

हेमलता म्हस्के

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विधवाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए अपने देश में पिछली सदी में सुधार के कई आंदोलन चले, जिसके कारण उनकी स्थिति में थोड़ा-बहुत सुधार भी हुआ लेकिन अब तो उनकी स्थिति में सुधार लाने की सभी कोशिशों पर पूरी तरह से रोक ही लग गई है। इक्कीसवीं सदी में बहुत से आविष्कार हुए। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के कारण घर-परिवार और समाज के ताने-बाने में आमूलचूल बदलाव आए हैं लेकिन महिलाओं खासकर विधवाओं की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। समाज की ज्यादातर विधवाओं को हजारों वर्षों की पारंपरिक बेड़ियों से बांध कर बहिष्कृत जीवन जीने के लिए विवश किया जाता रहा है जबकि दूसरी ओर विधुर होने वाले पुरुषों पर विधवाओं की तरह किसी भी तरह की कोई पाबंदी नहीं होती। वे ऐसे सामान्य जीवन जीने के लिए स्वतंत्र होते हैं मानो उनके जीवन में पत्नी की मौत जैसा कोई हादसा ही न हुआ हो।

पुरुषों की उपस्थिति का हर जगह स्वागत किया जाता है लेकिन विधवाओं को अपनी औलादों के मांगलिक मौकों पर भी उपस्थिति को अशुभ करार दिया जाता है। यह सुखद सूचना है कि महाराष्ट्र में सैकड़ों वर्षों के बाद पिछले सालों से विधवाओं की स्थिति में सुधार लाने के कारगर प्रयास शुरू हुए हैं।

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पिछले साल महाराष्ट्र सरकार ने कोल्हापुर जिले की हेरवाड़ पंचायत द्वारा विधवा प्रथा को खत्म करने के प्रस्ताव को पूरे प्रदेश में लागू करने का एक सर्कुलर जारी किया है। पिछले साल महिला दिवस पर कोल्हापुर की हेरवाड़ पंचायत में विधवा प्रथा को खत्म करने का प्रस्ताव रखा गया था, जो सर्वसम्मति से पारित हो गया। जिसके बाद पंचायत के ग्रामीणों ने तय किया कि अब गांव में किसी पुरुष की मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी को चूड़ियां तोड़ने और माथे से सिंदूर मिटाने, मंगलसूत्र निकालने जैसे काम के लिए विवश नहीं किया जाएगा। उसे पहले जैसा जीवन जीने का मौका दिया जाएगा।

गौरतलब है कि तेजी से आधुनिक होते समाज में आज भी विधवाएं अलग-अलग कुप्रथाओं और सामाजिक प्रतिबंधों के कारण कष्टमय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। पति की मौत के बाद उसकी पत्नी को अमानवीय और कष्टदायक जीवन जीना पड़ता है। समाज उसे पहनने-ओढ़ने, साज-शृंगार से लेकर खानपान और पर्व त्योहार में शामिल होने से रोकता है। विधवाओं की इस स्थिति के पीछे समाज की वह रूढ़िवादी सोच जिम्मेवार है, जो उनके जीवन को जटिल बनाकर उन्हें समाज से कटा हुआ महसूस कराता है। विधवाओं पर लगाई जाने वाली ये पाबंदियां उनके स्वतंत्र जीवन एवं उनके अवसरों की समानता के अधिकार में बाधा खड़ी करती हैं। यह भारतीय संविधान में दिए गए समानता के अधिकारों का पूरी तरह से हनन ही है। संविधान को पूरी निष्ठा से मानने वाले पढ़े-लिखे लोग भी विधवाओं की विवशता पर खामोश ही रहते हैं। समाज की सेवा करने वाली संस्थाएं भी विधवाओं के जीवन में बदलाव लाने के बारे में सोचती तक नहीं।

हर साल महिला दिवस पर होने वाले आयोजनों में महिलाओं की अन्य समस्याओं पर जरूर जिक्र होता है लेकिन विधवाओं के बारे में कभी कोई चर्चा तक नही होती। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं और विधवाओं की इच्छा-अनिच्छा पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें सदैव पुरुषों के बनाए रास्ते पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ा। पहले सती प्रथा के नाम पर विधवाओं के साथ बर्बरता की जाती थी। ऐसा मान लिया जाता था कि पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री को जीने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन कानूनन इस कुप्रथा पर रोक लगी और फिर समाज ने भी इस कानून को अमल में लाया।

सवाल है कि जब किसी स्त्री की मौत होने पर विधुर पति पर कोई नियम या पाबंदी लागू नहीं होती तब विधवा स्त्रियों पर इस तरह के प्रतिबंध लगाना कहां तक उचित है। समाज आज भी दकियानूसी और भेदभावपूर्ण सोच और मान्यताओं पर बेफिक्र होकर चल रहा है। किसी भी समाज में महिलाओं की बेहतर स्थिति ही उसके विकास को प्रदर्शित करती है। महिलाओं के साथ जुल्म और अत्याचार करने वाला समाज विकसित और सभ्य नहीं कहा जाता। इसी के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून, 2011 को विश्व विधवा दिवस घोषित किया ताकि पूरी दुनिया का ध्यान विधवाओं की दुर्दशा पर जाए और उनकी स्थिति में सुधार लाने की कोशिश शुरू हो।

यह दुखद है कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व विधवा दिवस घोषित करने के बाद भी पिछले बारह सालों में अपने देश में कहीं भी विधवा दिवस पर एक भी आयोजन नही हुआ। विधवाओं को लेकर समाज और सरकार की यह उदासीनता दुखद और शर्मनाक है। यह सुखद है कि अब विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता के हनन के खिलाफ आवाजें बुलंद होने लगी हैं। उन्हें आम महिलाओं की तरह जीने का अधिकार की मांग को लेकर अभियान चलने लगे हैं। अब समय आ गया है कि हम विधवाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करें। महाराष्ट्र के एक गांव से शुरू हुए विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन का दायरा बढ़ने लगा है।

देशभर के सभी समाज विधवा प्रथा के उन्मूलन पर ध्यान आकर्षित करे, इसके लिए विश्व विधवा दिवस पर दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर 23 जून को गांधी शांति प्रतिष्ठान में पहली बार एक आयोजन किया जा रहा है, जिसमें महाराष्ट्र में विधवा प्रथा विरोधी अभियान चलाने वाले स्त्री- पुरुषों के साथ देश की विभिन्न राज्यों में महिला सशक्तीकरण में जुटीं महिला नेत्रियां भाग लेंगी। इस आयोजन के जरिए महाराष्ट्र में शुरू हुए विधवा प्रथा विरोधी आंदोलन को पूरे देश में फैलाने के लिए रणनीति तय की जाएगी। साथ ही यह कोशिश की जाएगी कि केंद्र और राज्यों की सरकारें विधवा प्रथा के उन्मूलन के लिए एक कारगर कानून बनाए ताकि जो समाज विधवाओं को अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य करे उसे सख्त सजा मिले।

लेखिका सावित्री बाई फाउंडेशन की सचिव हैं।

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