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अंत:करण की शुद्धि से प्रभु कृपा

09:13 PM Jun 26, 2023 IST

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आचार्य दीप चंद भारद्वाज
ईश्वरीय अनुग्रह का शाब्दिक अर्थ है ईश्वर की कृपा अथवा अनुकंपा प्राप्त होना। इस संसार का प्रत्येक मनुष्य परमात्मा की कृपा दृष्टि प्राप्त करना चाहता है। विशेष रूप से वह जब दुखों के सागर में निमग्न होता है तथा अपने आप को असहाय अनुभव करता है, तब उसका झुकाव परम सत्ता परमात्मा की ओर होता है। हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों का यही संदेश है कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए मनुष्य को स्वयं को उचित पात्र बनाना पड़ता है। ईश्वर तो आनंद व कृपा का आगाध सागर है। ईश्वर की अनुकंपा का द्वार हमेशा खुला रहता है। वे तो सदा ही अपनी आनंदमयी अनुकंपा की वृष्टि सब प्राणियों पर करते हैं। ईश्वर की अनुकंपा से वंचित रहने का कारण हमारी अपनी ही विकृतियां होती हैं। परमात्मा अंतर्यामी है। वह हमारे अंतःकरण का प्रत्यक्ष साक्षी है। ईश्वर की समीपता का लाभ मनोभूमि को पवित्र बनाए बिना संभव नहीं हो सकता।
व्यक्ति की दुष्ट तथा तामसिक प्रवृत्ति ही प्रभु कृपा प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा है। जिस प्रकार धुंधले दर्पण में मुंह दिखाई नहीं पड़ता तथा गंदे पानी की तली में पड़ी हुई वस्तु ओझल रहती है, उसी प्रकार अंतःकरण की मलिनता के कारण आत्मा मूर्च्छित पड़ी रहती है। वासना तथा तृष्णा के आवरण आंखों पर पट्टी बांधे रहते हैं। लोभ तथा अत्यधिक आसक्ति रूपी रस्सी मनुष्य के मानस पटल को इस प्रकार जकड़े रखती है कि उसे प्रभु अनुकंपा प्राप्त हेतु पात्र बनने ही नहीं देती। आत्मिक परिष्कार के बिना प्रभु अनुग्रह प्राप्त होना असंभव है। ईश्वर की उपासना के अनेक विधान, जप, तप, साधना यह सभी अंतः करण पर पड़े मलिन संस्कारों को दूर करने की विधियां हैं। आत्मशोधन के बिना जीवात्मा ईश्वरीय अनुग्रह से सदा ही वंचित रहता है। दुुष्ट प्रवृत्तियों से स्थूल शरीर, दुर्बुद्धि से सूक्ष्म शरीर में तामसिक प्रवृत्तियां भर जाती हैं और समूचा व्यक्तित्व पतन के गर्त में जा गिरता है। इसी दुर्गति की दलदल में धंस कर मनुष्य प्रभु कृपा से वंचित रहता है। कठोर चट्टान पर लगातार वर्षा होते हुए भी हरियाली उत्पन्न नहीं होती। चट्टान को ही कोमल रेत में बदलना पड़ेगा। ठीक इसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी मनोभूमि को पावन बनाना चाहिए तामसिक तथा कुसंस्कारों की जो परत अंतःकरण पर चढ़ गई है वही आत्मा तथा परमात्मा के साक्षात्कार में सबसे बड़ी बाधक है।
मनुष्य विवेकशील प्राणी है। नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान बनने का एक ही उपाय अंतःकरण की पवित्रता है। शुद्ध अंतःकरण से ही मनुष्य प्रभु के अनुग्रह का पात्र बनता है। ऐसे सात्विक पुरुष को ही प्रभु की अनुकंपा प्राप्त होती है।

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