ब्रह्मांड के प्रथम चिकित्सा विज्ञानी भगवान धन्वंतरि
चेतनादित्य आलोक
दिवाली से दो दिन पहले यानी कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाने वाला अत्यंत लोकप्रिय त्योहार ‘धनतेरस’ या ‘धनत्रयोदशी’ सनातन धर्म में धन-धान्य ही नहीं, बल्कि चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जगत की भी समृद्ध विरासत का प्रतीक है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यही वह दिन है, जब समुद्र मंथन के दौरान ब्रह्मांड के प्रथम चिकित्सा-विज्ञानी भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए थे। समुद्र से निकले कुल 14 रत्नों में तेरहवें क्रम में प्रकट हुए चतुर्भुजधारी भगवान धन्वंतरि के एक हाथ में आयुर्वेद शास्त्र, दूसरे में वनस्पति यानी औषधि, तीसरे में शंख, और चौथे हाथ में अमृत-कलश था। बता दें कि इससे समुद्र से निकले रत्नों में सर्वप्रथम ‘कालकूट’ विष निकला था, जिसके ताप से समस्त सृष्टि में हाहाकार मच गया था। सभी देवता और दानव उस विष के ताप से जलने लगे। तत्पश्चात् सभी ने मिलकर भगवान शिव से प्रार्थना की। देवों के देव महादेव भगवान शिव ने इसका पान कर अपने कण्ठ में धारण कर लिया। हलाहल विष के प्रभाव से भगवान शिव का कण्ठ नीला पड़ गया, जिसके कारण वे ‘नीलकण्ठ’ कहलाए। विषपान के बाद शारीरिक दाह मिटाने हेतु भगवान शिव को भगवान धन्वंतरि ने ही अमृत प्रदान किया था।
श्रीमद्भागवत् पुराण में वर्णित है कि भगवान धन्वंतरि की छवि अत्यंत मोहक थी। उनका शरीर बादलों-सा उज्ज्वल और प्रदीप्त था। उनके नेत्र कमल के समान सुंदर और मोहक थे। गले में अनेक प्रकार के रत्नाभूषणों एवं विभिन्न जड़ी-बूटियों से गुंफित वनमाला तथा शरीर पर पीताम्बर धारण करने वाले भगवान धन्वंतरि चिर युवा प्रतीत होते थे।
ग्रंथों में वर्णन है कि भगवान धन्वंतरि ने प्रकट होते ही आयुर्वेद का परिचय कराया था। देवी-देवताओं के वैद्य भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद महाविज्ञान का प्रवर्तक भी माना जाता है। हालांकि आयुर्वेद महाविज्ञान के संबंध में स्थापित सत्य यह है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने एक लाख श्लोकों वाले आयुर्वेद शास्त्र की रचना की। इसीलिए इसका एक नाम ‘ब्रह्म-संहिता’ भी है।
शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मदेव से आयुर्वेद महाविद्या का ज्ञान सर्वप्रथम अश्विनी कुमारों ने सीखा था, जिसे बाद में उन्होंने देवराज इंद्र को सिखाया। कालांतर में देवराज इंद्र ने भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद महाविद्या में कुशल बनाया। हमारे शास्त्र बताते हैं कि भगवान धन्वंतरि के प्राकट्य से पहले आयुर्वेद गुप्त था। एक पौराणिक कथानुसार, भूलोक में प्राणियों को बीमारियों से पीड़ित एवं मृत्यु का शिकार होते देख भगवान श्रीहरि विष्णु को दया आ गई। तत्पश्चात् उन्होंने ‘चर’ की भांति छिपकर विशुद्ध नामक ऋषि के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया और ‘चरक’ कहलाए। बाद में उन्होंने ऋषि-मुनियों द्वारा रचित विविध संहिताओं को परिमार्जित कर ‘चरक संहिता’ नामक महान चिकित्सा शास्त्र की रचना भी की।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार देवराज इंद्र ने भूलोक पर देखा कि बड़ी संख्या में लोग रोगग्रस्त हो रहे हैं। उसके बाद उनकी प्रेरणा से भगवान धन्वंतरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में अवतार लिया। कालांतर में अपने पिता विश्वामित्र की आज्ञा से महर्षि सुश्रुत अपने साथ एक सौ ऋषि-पुत्रों को लेकर काशी पहुंचे और राजा दिवोदास, जिन्हें ‘काशीराज’ भी कहा जाता था, से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। बाद में उन ऋषि-मुनियों ने लोक-कल्याणार्थ अपनी-अपनी संहिताओं एवं ग्रंथों की रचना की। महर्षि सुश्रुत द्वारा रचित संहिता का नाम ‘सुश्रुत-संहिता’ है, जो आयुर्वेद का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
गौरतलब है कि उन ऋषि-मुनियों ने पृथ्वीवासियों के रोगों के निवारणार्थ उपचार की अनेक पद्धतियां भी विकसित कीं। यही वह कालखंड था, जब महान वैद्य एवं चिकित्सा विज्ञानी वाग्भट्ट जी ने भी काशीराज के रूप में लोकप्रिय भगवान धन्वंतरि से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और ‘आष्टांग हृदय’ नामक ग्रंथ की रचना भी की, जो आयुर्वेद महाविज्ञान का एक मानक ग्रंथ है। बाद में काशी के राजा दिवोदास ने काशी में विश्व का पहला शल्य चिकित्सा विद्यालय स्थापित किया और आचार्य सुश्रुत को उसका प्रधानाचार्य नियुक्त कर उक्त विद्यालय को उनके ही नेतृत्व में फलने-फूलने दिया।
इस प्रकार वास्तव में भगवान धन्वंतरि के माध्यम से ही प्रजापिता ब्रह्मा जी द्वारा प्रदत्त आयुर्वेद महाविज्ञान के अद्भुत, अलौकिक, सार्वकालिक एवं अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञान का पृथ्वी पर प्रचार-प्रसार हुआ।