आम जिंदगी से जुड़ी फिल्मों की तलाश
असीम चक्रवर्ती
बाॉलीवुड में ढेरों ऐसी फिल्में बनी हैं, जो तार्किक या निजी सच्ची घटनाओं पर आधारित रही हैं। इसलिए अक्सर ऐसी कई फिल्में रिलीज के बाद विचार-विमर्श का विषय बन जाती हैं। दूसरी ओर पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्में अक्सर अपने सब्जेक्ट की वजह से अपने प्रदर्शन के पहले से ही स्वतः चर्चा का विषय बन जाती हैं। बात ज्यादा पुरानी नहीं है, जब रामायण पर आधारित प्रभास की मुख्य भूमिका से सजी फिल्म ‘आदिपुरुष’ के कथासार को दर्शकों ने बेहद ऊट-पटांग माना था। और यह किसी एक फिल्म की बात नहीं थी। जानिये, इसी तरह की फिल्मों के कुछ नए-पुराने संदर्भ—
बिमल राय का सुझाव
वर्षों पहले की बात है। प्रख्यात फिल्मकार बी.आर. चोपड़ा और उनके निर्देशक भाई यश चोपड़ा उन दिनों अपनी पहली मल्टीस्टार ‘वक्त’ के निर्माण की तैयारी कर रहे थे। ‘वक्त’ के तीनों भाई के किरदार में उन्होंने राज, शम्मी और शशि को कास्ट करना लगभग फाइनल कर लिया था। इसी बीच अचानक फ्लाइट में दोनों भाइयों की मुलाकात दिग्गज फिल्मकार बिमल राय से हुई। बातों की रौ में बीआर ने उन्हें ‘वक्त’ की तैयारी की बात बताई। जब बिमल दा को पता चला कि तीन भाइयों की मुख्य भूमिका में चोपड़ा असल जीवन में भाई राज, शम्मी और शशि को साइन करने वाले हैं, तो उन्होंने बीआर को सुझाव दिया— “ कास्टिंग थोड़ा मिसफिट लगता है। दर्शकों को बहुत सहज नहीं लगेगा।” बीआर बिमल दा की बात समझ गए और इरादा बदल दिया। इसके बाद उन्होंने राजकुमार, सुनील दत्त और शशि कपूर को लेकर यह फिल्म बनाई जो हिट रही।
चूक गए रोहित शेट्टी
फिल्म निर्माण में छोटी-छोटी बातों की बारीकी से काट-छांट करनी पड़ती है। आप किसी रोल में किस कलाकार का चयन कर रहे हैं, दर्शक इसका गहराई से अध्ययन करते हैं। हाल में आई डायरेक्टर रोहित शेट्टी की ‘सिंघम रिटर्न’ की विफलता इस बात की ताजा मिसाल है। माता सीता हरण की कहानी को इसमें आधुनिक संदर्भों में पेश किया गया। मगर लचर स्क्रिप्ट व निर्देशन के चलते, इस फिल्म के साथ दर्शक जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं। सीता का रोल प्ले करने वाली करीना और रावण का मुख्य पात्र करने वाले अर्जुन कपूर दर्शकों के साथ तारतम्य बिठा नहीं पाते हैं।
टार्गेट पर पौराणिक सब्जेक्ट
पौराणिक सब्जेक्ट की बड़ी मुश्किल यह होती है कि दर्शक ऐसी फिल्मों की अतिशयोक्ति को एक हद तक ही कबूल करता है। वह चाहे रामायण की सीता हो या लक्ष्मण आदि के किरदार , दर्शक ऐसे पात्रों के साथ शुरू से ही तारतम्य जोड़ने की कोशिश करते हैं। और जब यह अभिनीत किरदार उन्हें बहुत मिसफिट लगते हैं, तो वह उसे बहुत देर तक बर्दाश्त नहीं करते हैं। अभी कुछ माह पहले सोनी की मेगा सीरीज ‘रामायण’ को कुछ दिनों बाद ही छोटे परदे पर दम तोड़ना पड़ा। दर्शकों ने अपने रिस्पांस से जता दिया कि रामायण के नाम पर ऐसे किसी अतार्किक घटनाओं वाले सीरियल को बर्दाश्त नहीं करते हैं। इसी तरह रामायण के एक अध्याय ‘सीताहरण’ पर बनी फिल्म ‘आदिपुरुष’ की विफलता के बारे में कोई चर्चा करना है। दरअसल, दर्शक सब्जेक्ट की लिबर्टी की बात को समझते हैं, मगर इसके साथ इसके मूल भावना में कोई बड़ा उलटफेर झट पकड़ लेते हैं। मगर चूंकि इसकी प्रस्तुति में कल्पनाशीलता के नाम पर काफी लिबर्टी ली जा सकती है, इसलिए कई फिल्मकारों को इसकी कुछ घटनाएं बहुत आकर्षित करती हैं। मगर इसमें कई प्रश्न खड़े होने की संभावना ज्यादा रहती है।
हिट रहे विधु चोपड़ा
इसके विपरीत रियलिस्टिक सब्जेक्ट हमेशा डिमांड में रहते हैं। असल में सेल्यूलाइड पर असल जिंदगी को देखने का एक अलग चार्म रहता है। बस इसके लिए जरूरत होती है एक काबिल निर्देशक की। पिछले दिनों बहुत ही खामोशी के साथ ‘बारहवीं फेल’ बनाने वाले निर्देशक विधु विनोद की सफलता तो यही दर्शाती है। आईपीएस की परीक्षा टॉप करने वाले एक युवक के असीमित संघर्ष की कहानी को उन्होंने बहुत ही सीधे-सादे ढंग से एक फिल्म का रूप दिया। इसका रिस्पॉन्स भी उन्हें बहुत जोरदार मिला।
फिल्मकार की बड़ी जिम्मेदारी
मगर आज के सफल निर्देशक इस तरह की जिम्मेदारी से बचते हैं। बस, कुछ नए-नए निर्देशक ऐसे सब्जेक्ट को लेकर बेहद उत्साहित हैं। वरना पुराने दौर में बिमल राय, ऋत्विक घटक, हृषिकेश मुखर्जी, राजेंद्रसिंह बेदी और बासु चटर्जी जैसे काबिल निर्देशक ऐसे सब्जेक्ट पर बहुत मेहनत करते थे। इसलिए वह ऐसी कहानी का चयन करते थे, जिसमें जीवन से जुड़ी कुछ बातें दर्शकों को पेश की जा सकें। यही वजह थी कि आनंद, बावर्ची, कोशिश, दस्तक, छोटी-सी बात जैसी दर्जनों उम्दा फिल्में दर्शकों को मिलती रही। पर अब यदा-कदा ही कश्मीर फाइल्स, बारहवीं फेल जैसी आम जिंदगी की कटु सच्चाई से भरी फिल्में देखने को मिलती हैं।