भूकंप संग जीना
नये साल के पहले दिन जापान ने फिर एक बड़े भूकंप का सामना किया। चंद लोगों के मरने व घायल होने के बावजूद इतने बड़े भूकंप के बाद जापान में जनजीवन पटरी पर लौटने लगा है। सुनामी की चेतावनी निष्प्रभावी साबित हुई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जिसने इतने बड़े भूकंप के झटके सहने के बाद कोई बड़ा नुकसान नहीं झेला हो। हमें याद रहे कि बीते साल तुर्किये-सीरिया में आए 7.8 तीव्रता के भूकंप में करीब साठ हजार लोग मारे गये थे। जबकि जापान के इशिकावा में आए 7.6 तीव्रता वाले भूकंप में 48 के करीब लोगों के मरने की खबर आई है। वैसे 2011 में आये 9 तीव्रता के भूकंप में जरूर 18 हजार के करीब लोग मारे गए थे, लेकिन भूकंप के बजाय सुनामी में ज्यादा क्षति हुई थी और बड़ी इमारतों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा था। भूकंप के साथ मुकाबले का यह जज्बा जापान की कई दशकों की योजना व भवननिर्माण तकनीक में बड़े बदलावों से संभव हो सका। वहां के राजनेताओं ने दूरदृष्टि का परिचय देते हुए भवनों के लिये भूकंपरोधी कोड बनाए और ईमानदारी से उसे लागू किया। जहां एक ओर आधारभूत संरचना में बड़ा सरकारी निवेश किया गया, वहीं देश की जनता ने भी सरकार के प्रयासों के साथ कदमताल की। दरअसल, जनधन की क्षति कम कर सकने के मूल में जापान में इंजीनियरिंग सफलता की विशिष्ट कहानी है, जो तब शुरू हुई जब बीसवीं सदी में भयावह भूकंप आया था। वर्ष 1923 में कांटो के भूकंप में करीब डेढ़ लाख लोगों के मरने की बात कही जाती है। बताते हैं कि उस दौरान शहर का एक बड़ा हिस्सा जमींदोज हो गया था। तब ईंटों से बनी पाश्चात्य शैली की तमाम इमारतें ढह गई थीं। उसके बाद तय किया गया कि हर इमारत में कंक्रीट व स्टील का प्रयोग अनिवार्य होगा। लकड़ी से बनी इमारतों से परहेज किया गया, बनाने पर मजबूत बीम के प्रयोग को अनिवार्य किया गया।
दरअसल, जापान में जब भी भूकंप आया, उससे सबक लेकर आगे रीतियां-नीतियां तय की गई। समय-समय पर नियम-कानूनों में बदलाव किये गये। दरअसल, जापान भौगोलिक रूप से दो संवेदनशील प्लेटों के टकराव की दृष्टि से एक ऐसे संवेदनशील स्थान पर स्थित है, जिसे भूकंप की तकनीकी भाषा में ‘रिंग ऑफ फायर’ कहा जाता है, जिससे वहां व आसपास के देशों में लगातार भूकंप आते रहते हैं। इसी क्रम में वर्ष 1981 में जापान में नये भवनों के निर्माण के लिये भूकंप-रोधी उपाय लागू कर दिये गये। जिसके सकारात्मक परिणाम वर्ष 2011 में रिक्टर स्केल पर नौ तीव्रता के भूकंप आने के बाद देखे गये। इस दौरान काफी कम नुकसान हुआ। जबकि 1923 में आए इसी तीव्रता के भूकंप में डेढ़ लाख के करीब लोग मरे थे। इस तरह जापान ने धीरे-धीरे भूकंप के साथ जीना सीख लिया और हर भूकंप के कुछ समय बाद जनजीवन सामान्य हो जाता है। इसके अलावा जापान के लोगों का राष्ट्रीय चरित्र भी इसमें शानदार भूमिका निभाता है। एक धैर्य व सहयोग जापानियों के व्यवहार में आपदा के दौरान नजर आता है। वे भूकंपरोधी उपायों का निर्माण आदि में ईमानदारी से प्रयोग करते हैं। भूकंप आता है, चेतावनी अलार्म बजते हैं और फिर कुछ समय बाद लोग अपने काम में जुट जाते हैं। सोच यही रहती है कि अगली बार यदि इससे बड़ा भूकंप आया तो हम क्या उसका मुकाबला कर पाएंगे। यही वजह है कि दुनिया में जापान के अलावा शायद ही कोई अन्य देश हो जो इतनी बड़ी आपदाओं में जन-धन की हानि को कम करने में सफल हुआ है। भारत में नीति-नियंताओं को जापान से सीखना चाहिए कि कैसे नागरिकों का जीवन ऐसी आपदाओं में बचाया जा सकता है। भारत में भूकंप अभियांत्रिकी में बड़ा काम हुआ है, जरूरत उसे ईमानदारी से लागू करने की है। आवश्यकता यह जांच करने की है कि तमाम बिल्डर जो घर बना रहे हैं उसमें भूकंपरोधी तकनीक का किस हद तक इस्तेमाल किया गया है। यह भी कि आपदा के बाद राहत-बचाव का कार्य सुचारु रूप से कैसे चल सकेगा।