मायूस नहीं किया साहित्यिक पत्रिकाओं ने पाठकों को
आधुनिक तकनीक के कारण साहित्य का रूप-स्वरूप इन दिनों बदला या बिगड़ा क्यों जान पड़ता है। यह विवाद-चर्चा का विषय हो सकता है। लगभग पिछले पचास सालों से तो पाठकों की नज़र उन पत्रिकाओं पर रही है जो लघु, अव्यावसायिक, अर्द्धसरकारी, सरकारी अथवा अनियतकालीन कहलाई है। संपादक इन्हें अपने समकाल व सुविधानुसार निकालते रहे। काफी अभी निकल भी रही हैं, जो साहित्यिक कहलाती है। इसमें स्वार्थ, लाभ, लोभ या विवशता भी शुमार हैं। हिंदी भाषी प्रदेशों से इतर अहिंदी भाषी राज्यों से भी पत्रिकाएं आ और जमती रही हैं। ऐसे में मासिक, त्रैमासिक, चयन या संकलित रूप में बहुत कुछ छप रहा है तो पाक्षिक, साप्ताहिक पत्रिकाओं का साहित्य गौण रहा। यह नेपथ्य में जा रहा है। दैनिक अखबारों में बासमती के चावलों की तरह कहीं-कहीं यह पक कर ताजा है। इसमें कहानी, कविता पुस्तक समीक्षाओं के साथ संस्मरण-संदर्भ अथवा टिप्पणी भी शामिल है। ‘हरि अनंत हरिकथा अनंता’। खैर, आज भी श्रेष्ठ चयनकर्ता, संपादकों, प्रभारी मित्रों की कमी नहीं, जो जागरूक हैं और लेखन की नब्ज भी पहचानते और परखते हैं।
सरकारी पत्रिकाओं में दिल्ली से ‘आजकल’ जैसी पत्रिकाएं हैं। मधुमती, वीणा, साक्षात्कार पुस्तकें संस्कृति, अनौपचारिकता, हिमप्रस्थ, हरिगंधा, पंजाब सौरभ समकालीन भारतीय साहित्य सरीखी पत्रिकाएं मैं देखता रहा हूं। इनको खरीदा या पढ़ा तो कभी-कभार इनमें लिखता भी रहा हूं। यहां से मानदेय, पारिश्रमिक पाया है। वनमाली कथा, साहित्य अमृत, परिकथा, अभिनव इमरोज़, साहित्य नंदिनी, परिकथा जैसी कुछ मासिक पत्रिकाएं हैं तो अग्रिमान, व्यंग्य यात्रा, हिंदी जगत, नया ज्ञानोदय, आधारशिला, पुष्पक साहित्यिकी, आर्यकल्प, दोआबा जैसी त्रैमासिक कहलाती पत्रिकाएं भी नजर आती रही हैं। इधर हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ से छप रही पत्रिकाओं में परिशोध, अभिव्यक्ति, विपाशा, इरावती के अंक मेरे सामने हैं। छपते-छपते जनसत्ता, ‘इंडिया टुडे’ के विशेषांक निकाले हैं।
आर्यकल्प (वाराणसी) ने मैनेजर पांडेय पर हिंदी का पहला दार्शनिक आलोचक शीर्षक से 232 पृष्ठों का नवंबर अंक दिया है, जो ध्यान खींचता है। लोलार्क द्विवेदी के संपादन में इसी पत्रिका ने अन्य अंकों में भी ठोस सामग्री परोसी है। आर्यकल्प के अंकों में संपादकीय टिप्पणियां महत्वपूर्ण रही हैं। पुष्पक (हैदराबाद) की संपादक अहिल्या मिश्र हैं तो भोपाल से वनमाली कथा ने दूसरे साल से भी बेहतर अंक दिये हैं, जो मुकेश वर्मा, कुणाल सिंह के संपादन में आते रहे हैं। संतोष चौबे यहां प्रधान संपादक हैं। वनमाली कथा ने नवलेखन को उभारा, प्रोत्साहित किया है। निकट-35, कानपुर से मई-अगस्त, 23 अंक में कृष्ण विहारी का संपादन है तो यहां सुधा ओम ढींगरा, रंजना जायसवाल अमरीक सिंह दीप, बलराम अग्रवाल, नीरज नीर, राजेंद्र राव की सामग्री छाई हुई है। बम्बई में अभय मनोहर का संपादन अग्रिमान में उभरता है जहां गीत, कविता, ग़ज़ल का बोलबाला है। अक्तूबर-दिसंबर अंक में रामदरश मिश्र सहित अनेक परिचित हस्ताक्षर हैं। साहित्य अमृत (दिल्ली) का संपादन लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने किया है जो प्रभात प्रकाशन की 28 साल से आ रही पत्रिका है। इसकी विशेष अंकों पर चर्चा भी होती रही है। अभिनव इमरोज़ और साहित्य नंदिनी (दोनों दिल्ली) के पाक्षिक का देवेंद्र बहल ने प्रकाशन भी जारी रखा, जहां से नयी लेखिकाओं पर विशेषांक आते रहे हैं।
परिकथा (दिल्ली), वीणा (इंदौर), आदिज्ञान (मुंबई), नया ज्ञानोदय, भारतीय ज्ञानपीठ की अच्छी पत्रिकाओं में गिनी जाती हैं। जहां भारतीय उपमहाद्वीप की कहानियां मधुसूदन आनंद के संपादन में अक्तू-दिसं अंक में पठनीय हैं। हिंदी जगत (जुलाई-सितं) अंक दिल्ली से सुरेश ऋतुपर्ण के संपादन में सराहनीय स्तर पर आती रही है।
प्रेम जनमेजय के संपादन में व्यंग्य यात्रा के जुलाई-सितंबर अंक में 120 भारी-भरकम पृष्ठों में सराहनीय, ठोस सामग्री उजागर हो रही है। प्रेम जनमेजय का अपना एक स्वर भी यह ध्यान आकर्षित करने वाला है। समयांतर (पंकज बिष्ट) दिल्ली से समचार-विचार और चिंतन की प्रखर पत्रिका ने 2023 में भी श्रेष्ठ, पठनीय, वैचारिक का स्थान दिया है।
आज भारतीय भाषाओं का अद्यतन लेखन रूप सामने आया है। लेकिन बलराम के संपादन में साहित्य अकादमी, दिल्ली की समकालीन भारतीय साहित्यिक, सफल पर चर्चा और विवाद में भी रही है। समय से संवाद करती ठोस संग्रहणीय पत्रिकाओं में एक है ‘पुस्तक संस्कृति’ जहां मौलिक, अनूदित साहित्य शामिल मिला है। ऐसी स्तरीय सामग्री आज कम ही देखने में आ पाती है। एनबीटी से पुस्तक संस्कृति के अंक पंकज चतुर्वेदी का चयन, संपादन सिर चढ़कर बोलता रहा है।
‘साहित्य अमृत’ साल में दो विशेषांक देता आया है। इसी वर्ष में कहानी विशेषांक में अज्ञेय विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा और कमलेश्वर के साथ रामदरश मिश्र, चंद्रकांता, ममता कालिया, महेश दर्पण, चित्रा मुदगल, नासिरा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा जैसे सुपरिचित कथाकारों की कहानियां पाठकों को प्रभावित करती हैं। कमलेश भारतीय, तेजेंद्र शर्मा, लक्ष्मेंद्र चोपड़ा की कहानियां भी यहां अन्य दो दर्जन से अधिक कथाकारों में शामिल हैं। ऐसे में प्रभात प्रकाशन या ज्ञानपीठ की पत्रिका ने पाठकों को विश्वास दिया है और सजग संपादन का परिचय भी। चंडीगढ़ की ‘आधारशिला साहित्यम्’ पत्रिका इसलिए उपयोगी है कि नये लेखकों से सहयोग पाकर संपादक अनीता सुरभि प्रकाशन कार्यों में भी सक्रिय हैं। गोष्ठियां, गतिविधियां यहां संस्थान की सूचक हैं। इसके समीप धनंजय शर्मा, कैलाश आहलूवालिया, निर्मल सूद के साथ अनिल शर्मा, अनिल, मनजीत कौर ‘मीरा’ और अन्य कुछ सराहनीय रचनाकारों का सहयोग यहां शामिल है। ग़ज़ल, गीत या कविता पर केंद्रित यह चंडीगढ़ की एक उल्लेखनीय पत्रिका है। पंचकूला की हरिगंधा ने धार और धार भी बदल ली है।
प्रकाशन विभाग की दिल्ली से आ रही पत्रिका आजकल 1945 से छप रही सराहनीय सरकारी पत्रिकाओं में से एक है। समय-समय पर चंद्रगुप्त विद्यालंकार, देवेंद्र सत्यार्थी, पंकज बिष्ट जैसे अनुभवी, वरिष्ठ रचनाकारों ने संपादकीय दायित्व निभाया है। कमल कुलश्रेष्ठ यहां अभी मुख्य संपादिका हैं। इन्हीं की देखरेख में नवंबर अंक से इसका आकार डाइजेस्ट नवनीत के समान किया गया है। श्याम सिंह शशि जैसे मित्र यहां निदेशक रहे हैं। दिसंबर अंक में धर्मवीर भारती पर पुष्पा भारती का प्रेम जनमेजय द्वारा लिया गया इंटरव्यू, शैलेंद्र पर राजीव श्रीवास्तव का लेख भाव-विभोर कर रहा है। आजकल के दिसंबर अंक में रचना चयन और संपादक दृष्टि की गंभीरता भी सराहनीय है। संपादक फारत परवीन का विश्वास और योग्यता सरकारी पत्रिका की नीति और गति-स्थिति से परिचित है। पंजाब में लोक संपर्क विभाग और हरियाणा से भी पत्रिकाएं अपना दायित्व निभाती रही है। गति के इस युग में चल रहे लोग, जागृति या अन्य स्थानीय चंडीगढ़ की राजकीय पत्रकारिता के साक्षी रहे हैं। जहां राजेंद्र जी, देवी शंकर प्रसाद और अन्य संपादक रहे। उल्लेखनीय रहे मदन मोहन गोस्वामी वाली जागृति को मैं भला कैसे भूल सकता हूं। श्रीनिवास, श्रीकांत, श्रुतिप्रकाश यहीं से कलाकार थे। भाषा विभाग पंजाब की पत्रिका ‘पंजाब सौरभ’ पटियाला से मासिक प्रकाशन है। कभी ‘पंजाब सौरभ’ का भी बोलबाला था।
दैनिक, साप्ताहिक या पाक्षिक पत्र-पत्रिकाओं में प्राय: साहित्य का अभाव दिखाई दे रहा है। कभी हरेक में संपादकीय पृष्ठों के अतिरिक्त साप्ताहिक साहित्य आया करता था। अब दैनिक ट्रिब्यून उन्हीं गिनेचुने समाचारपत्रों में है। यहां कहानी, कविताएं, समीक्षा और टिप्पणियां, प्रसंग, संदर्भ समय-समय पर पढ़ने को मिल रहे हैं। प्रदेश के ही नहीं भारतभर के रचनाकारों को यहां हम पढ़ते आये हैं। साज-सज्जा और सार्थक प्रस्तुति से भी कुछ पत्रों ने साहित्य परोसा है।
आलोचना, इंद्रप्रस्थ भारती, गांव गिरांव, गूंज, नवनीत, बर्रोह, भाषा वार्षिकी मड़ई, विश्वज्योति, सदीनामा, सामयिक सरस्वती, वर्तमान साहित्य, साहित्य यात्रा और संदर्भ भारती जैसी पत्रिकाएं निकल चुकी या अभी आ रही है। इनका एक पाठक वर्ग भी। समावर्तम्, सद्भवना, दर्पण, साहित्य भारती, शीतल वाणी, हस्ताक्षर और हिंदुस्तानी जवान के नये पुराने अंक भी मेरे संग्रहालय में मौजूद हैं। पाठकीय चेतना, जन जागृति और साहित्य सृजन में ऐसी पत्रिकाओं का भरपूर योगदान इसलिए रहा है। ये पत्रिकाएं चर्चा या विवाद का केंद्र भी रही हैं। धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र अवस्थी और राजेंद्र यादव ही नहीं बालकृष्ण राव, बद्रीविशाल पित्ती, अमृतराव, भीष्म साहनी, शानी गुलशेर खां ने भी अपनी पत्रिकाओं द्वारा साहित्य की गहराई, इनके मर्म को पहचाना और दिशा दी है। कुछ लोकप्रिय पत्रिकाएं रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि पर आज भी देखी, खरीदी जा रही हैं।
वाचनालयों, लाइब्रेरियां, यूनिवर्सिटी या स्कूलों के पुस्तकालयों में भी कुछ पत्रिकाओं की खरीद होती है ताकि साहित्य-साधक इनसे लाभ ले पाएं। विज्ञापनों, इश्तिहारों का एक अलग संसार है। ‘तू मेरी पीठ खुजल मैं तेरी पीठ सहलाऊं’ की तर्ज पर कई रचनाकार अपनी निजी पत्रिकाएं भी संपादन करते हैं। यह आदान-प्रदान की नीति पर व्यक्ति विशेष पर अंक, विशेषांक भी आये हैं। यूं कुल मिलाकर अभी 2023 की साहित्यिक पत्रिकाओं ने पाठकों को मायूस नहीं किया। लेकिन शहरीकरण, वैश्वीकरण की तीव्रगति की हवा ने भी मीडिया को बदला है। वेबसाइट, फेसबुक आदि की एक अलग दुनिया है।