प्रेम की मर्यादा
प्रभा पारीक
आज वैलेंटाइन-डे की रौनक चारों ओर थी। बाज़ार खूबसूरत तोहफों से सजे हुए थे। होटल पहले से बुक हो चुके थे। युवा खूबसूरत अशोक, धनवान पिता का लाड़ला पुत्र, मन में न जाने कितने सपने लिये सुबह उठा था।
हाईस्कूल से लेकर आज तक उसके चारों ओर तितलियों की तरह मंडराने वाली लड़कियों की कमी भी नहीं थी और आज तो जैसे उसे अपनी बेस्ट वैलेंटाइन चुनने का दिन हाथ लगा था। सभी तो लालायित थीं उसकी वैलेंटाइन बनने को, अशोक ने कुछ दिनों पहले से ही अपने ड्राइवर को भेजकर अपने लिये सुन्दर गुलाब के फूल बुक करवा लिये थे। उसका विचार अपने दोस्तों के साथ बूज़ पार्टी, रेव पार्टी करने का था। गैर-कानूनी होने पर भी उसे किसी का डर नहीं था। पिता का फॉर्म हाउस उसकी नज़र में इन आनंद के क्षणों के लिए ही तो था। अशोक अपने सभी दोस्तों को आमंत्रित कर चुका था। युवा लड़के, लड़कियां सभी तो लालायित थे उसके आमंत्रण के लिए। उसके साथ की आधुनिक तेजतर्रार लड़कियों के लिए वैलेंटाइन डे एक अवसर था जब वह खुले तौर पर अपनी युवा अवस्था को आनंद लेती देखी जा सकती थीं।
अशोक जैसे लड़कों को यह कुछ अवसर तो मिलते थे जब वह अपने पैसे का प्रभाव अपने साथ वाले छात्र-छात्राओं को दिखाकर वाहवाही लूट सकते थे। इस बार उसने एक नई छात्रा को, जिसे वह नई तितली कहकर पुकारने लगा था, उसे जाल में फंसाने का प्रोग्राम बना रहा था। कॉलेज में नयी आई प्रज्ञा भी अशोक के चेहरे को देखकर प्रभावित थी पर मेधावी प्रज्ञा अभी अशोक की असलियत नहीं जानती थी।
अशोक ने उस दिन की पार्टी में आमंत्रण नाम का फंदा प्रज्ञा के गले में उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से ही डाला था।
उस दिन सादी पोशाक में प्रज्ञा अशोक के दिये गये पते पर जाने के लिए तैयार थी। एक लड़की को पहले से ही अशोक ने प्रज्ञा को पार्टी में अपने साथ ले आने के लिए तैयार कर लिया था। अशोक की मित्र रिंकी उसके मित्रसमूह में अन्य लड़कियों के साथ अशोक का परिचय और आत्मीयता बढ़ाने का काम करती थी। रिंकी का फोन जब प्रज्ञा के पास आया तब वह तैयार हो रही थी। वैसे तो सुंदर-सलोने सादगीभरे चेहरे को किसी शृंगार की आवश्यकता ही क्या थी। फिर भी प्रज्ञा ने बालों को संवारा और हाथ में सुंदर कंगन के साथ दूसरे हाथ में घड़ी बांधकर अपने सलवार-कुर्ते को सलीके से पहन कर तैयार थी। फोन आने पर वह मां से जल्दी आ जाऊंगी, कहकर घर से बाहर निकली थी।
आज के जमाने की होकर भी शालीन स्वभाव की प्रज्ञा काे देखकर रिंकी ने नाक-भों सिकोड़ी ‘ये क्या प्रज्ञा आज के दिन भी कोई ऐसी पोशाक पहनता है क्या?’ और प्रज्ञा ने हिचकिचाये बिना कहा था ‘हां पहनता है, मैंने पहनी है न’। उसके इस जवाब से रिंकी की आगे कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। पर उसने विनम्रता से कहा, ‘आज तो यार कुछ आधुनिक-सी ड्रेस पहनती तो तुम और भी सेक्सी नजर आती।’ रिंकी ने उसे गहरी नजर से देखा और पहली बार एक नजर उसने रिंकी की पहनी ड्रेस पर भी डाली। समझदार प्रज्ञा रिंकी के भाव समझ गई थी। उसने सिर्फ इतना ही कहा, ‘मुझे एेसा ही ज्यादा अच्छा लगता है।’ रिंकी की उलझन थी, अशोक ने उसे हिदायत दी थी कि वह उसे कुछ इस तरह से तैयार करके लाये कि सारे दोस्त देखते ही रह जायें। रिंकी ने मासूमियत का नकाब पहनते हुए कहा, ‘ऐसा करते हैं प्रज्ञा एक बार मेरे घर होते हुए चलते हैं। तुम मेरी कोई ड्रेस पहन लेना, तुम्हें जो अच्छी लगे।’ पर प्रज्ञा ने यह कहकर सारी बात समाप्त कर दी थी कि ‘नहीं मैं इसमें ही अच्छा महसूस कर रही हूं।’ अंत में रिंकी ने कहा था, ‘सारे दोस्त तुझे देख कर हंसेंगे तो तुम बुरा तो नहीं मानोगी और अशोक के बारे में सोचो वो तो तुम्हारा कितनी देर से इंतजार कर रहा है। तुम्हें अपने दोस्त को खुश देख कर खुशी नहीं होगी इसलिये मेरी बात मानो और मेरे घर चलकर कोई आधुनिक-सी ड्रेस पहन लो फिर चलते हैं हम दोनों।’
प्रज्ञा ने चिढ़कर कहा था ‘नहीं मुझे एेसे ही जाना है।’ रिंकी का मन तो हुआ कि वापस घर लौट जाए पर वह चुप रही। रिंकी मन ही मन अशोक को प्रसन्न करने का अवसर हाथ से जाता देख प्रज्ञा को समझाने लगी कि प्रज्ञा तुम एक आधुनिक युग की लड़की हो, आधुनिक कपड़े पहनने, तौर-तरीके अपनाने में तुम्हें कोई परहेज नहीं होना चाहिए और अन्त में उसके मुंह से धीरे से निकला कि पुरुष मित्रों को प्रसन्न करने अपने नजदीक बुलाने के लिए तुम्हें ये सब तो करना ही पड़ेगा।
प्रज्ञा सोचने लगी, रिंकी की सोच कितनी घटिया है। अशोक जैसे शालीन लड़के ने इसे अपना दोस्त बना ही कैसे रखा है। कुछ सोच कर उसने बात बदल दी और वह अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गये। अशोक ने प्रज्ञा का दौड़ कर स्वागत किया। वह उसे सीधे पार्टी में ले जाने के स्थान पर अलग कमरे में ले गया। शालीन व्यवहार के साथ उसने वहां बैठे अपने दो दोस्तों से उसका परिचय करवाया। प्रज्ञा का दमकता रूप और सादगी प्रभावित करने वाली थी।
अशोक को भी आज उसे देखकर महसूस हो रहा था कि सादगी में भी कितना आकर्षण है। कुछ देर बाद लॉन में जाकर प्रज्ञा को वैलेंटाइन पार्टी का अर्थ समझ आया। अब वह मानसिक रूप से सारी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी।
अशोक के सभी दोस्त एक-एक कर उसके पास आये, दोस्ती का हाथ मिलाया और थोड़ी-बहुत बात करके अपने-अपने में मस्त हो गये। पार्टी अपने चरम पर थी। अशोक ने उसे डांस के लिए आमंत्रित किया। उसने शांति से आमंत्रण स्वीकार किया और फ्लोर पर आकर कुछ देर डांस करने के बाद बैठ गई। उसके बाद तो अशोक के साथ डांस करने के लिए सारी लड़कियां तैयार थीं पर अशोक ने उसी समय संगीत बंद करवा दिया।
कुछ ही देर में अशोक के सारे वो साथी जो नशे व धूम्रपान से परहेज करते थे वो एक तरफ हो गये। सब अपने-अपने समूह में मजे कर रहे थे। कुछ जोड़े थे जो समय व परिस्थिति का लाभ उठाकर अधिक उच्छृंखल होने का प्रयास कर रहे थे। आधुनिक लड़कियों का यह रवैया प्रज्ञा के लिए नया नहीं था। पर आज प्रज्ञा की सादगी व व्यवहार ने सारे वैलेंटाइन डे का अर्थ ही बदल कर रख दिया था। प्रज्ञा के सामने सारे लड़के सभ्यता से बात कर रहे थे।
अशोक अपनी वैलेंटाइन का एेलान करने के लिए खड़ा क्या हुआ। सारी लड़कियां सजग होकर बैठ गईं और अशोक ने अचानक प्रज्ञा को अपने पास बुलाया और घुटनों के बल बैठकर रोमांटिक अंदाज से कहने लगा ‘विल यू बी माई वैलेंटाइन’। सारे गुलाबों को अपने हाथ में थामे प्यार का इजहार करते अशोक ने सारी लड़कियों को चकित कर दिया था पर अशोक के बोलने के तरीके पर सभी खुश थे। भौचक्की-सी प्रज्ञा ने खड़े होकर अशोक के हाथ से माइक लिया और अशोक को सम्बोधित करते हुए कहा आज का दिन सिर्फ प्रपोज करने के लिए रहने दो। स्वीकृति के लिए भी कोई दिन आयेगा। पर फिर भी अशोक निराश नहीं हुआ। क्योंकि उसे प्रज्ञा के व्यवहार में कोई नाराजगी नजर नहीं आई थी।
उस दिन के बाद जब भी अशोक प्रज्ञा को देखता उसकी धड़कने दुगनी गति से बढ़ने लगतीं पर प्रज्ञा सदा सहज रहती। अपने काम से काम रखने वाली प्राज्ञा ने इस बात को विशेष महत्व नहीं दिया था। अशोक के दोस्त उसे चिढ़ाते, उसे घमंडी कह कर बुलाते पर अशोक पर प्रज्ञा की सादगी का असर होने लगा था।
अशोक की कुछ पुरानी मित्रों से प्रज्ञा को अशोक के चरित्र को लेकर कुछ अरुचिकर बातें सुनने को मिली थीं। पर प्रज्ञा अपने निर्णय स्वयं लेने वाली लड़की थी।
परीक्षा के तारीखें आने में अभी समय था पर कॉलेज में पढ़ाई का वातावरण था। एक-दो बार अशोक ने प्रज्ञा से उसके नोट्स मांगे थे। प्रज्ञा ने दिये भी पर देते समय कड़क शब्दों में कहा था। पत्रों का आदान-प्रदान नोट्स के माध्यम से करने का विचार हो तो नोट्स किसी और से ही ले लाना।
एकाध बार लम्बी बातचीत के दौरान पढ़ाई का महत्व भी प्रज्ञा ने अशोक को बहुत अच्छे शब्दों में समझाया था। कहते हैं न जिसे आपका दिल स्वीकार ले उसकी हर बात स्वीकारने में बहुत समय नहीं लगता। अशोक पर भी प्रज्ञा के साथ-साथ पढ़ाई का नशा चढ़ने लगा था जो सभी को आश्चर्यचकित कर रहा था। यहां तक कि अशोक के परिवार वालों को भी।
अशोक अब बदलने लगा था। उसे चिढ़ाने वाले दोस्त अब उससे चिढ़ने लगे थे। परीक्षा के एक महीने पहले कालेज में वार्षिक महोत्सव हुआ। सभी ने खूब उत्साह से भाग लिया। प्रज्ञा अपनी रुचि के अनुसार किसी एक प्रोगाम में भाग लेकर ही संतुष्ट थी। अशोक को भी उसने ही कहा था कि प्रैक्टिस के साथ पढ़ाई भी करते रहना। आज कॉलेज में छात्रों का अन्तिम दिन था। वार्षिक कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा।
शाम को अशोक के सभी दोस्तों ने अशोक को अपने फार्म हाउस में पार्टी रखने के लिए कहा, आनाकानी करने पर अन्तिम बार मिलने की दुहाई भी दी। अशोक तैयार हो गया और सभी ने शाम को अशोक के फार्म हाउस पर मिलने के वादे के साथ विदा ली थी।
पार्टी के समय सभी लड़कियां अशोक को घेरे थीं। दोस्त भी सभी चुटकियां ले रहे थे। और उन सभी के कहने पर अशोक का अब तक का रखा हुआ संयम हार मान गया और उसने मंच पर बुलाकर प्रज्ञा को एक बार फिर प्रपोज कर दिया।
सहज-सौम्य प्रज्ञा ने अशोक की बात ध्यान से सुनी और पूर्ण आत्मविश्वास से अशोक का हाथ थामा और जो कुछ भी कहा वह सभी दोस्तों के लिए अच्छा था। उसने किसी की आलोचना किए बिना अशोक के नाम से संदेश दिया। जो यह बताने के लिए काफी था कि जवानी हमारे जीवन की महत्वपूर्ण समयावधि है। इस उमंगों भरे समय में हम उसका भरपूर आनंद लें लेकिन एेसा कुछ भी न करें कि बड़े होने पर हमें अपने आप पर शर्म महसूस हो, आप सभी अपनी वैलेंटाइन के साथ खुश रहें, पर अपने कहे शब्दों का सही अर्थ समझें।
उसने सीधे अशोक से कहा ‘मुझे खुशी होगी तुम्हारी वैलेंटाइन बनकर। लेकिन इसका अर्थ समझो अशोक, मुझे भी तुमसे अच्छा वैलेंटाइन कहां मिलेगा। क्या इसकी मर्यादा को निभाने की क्षमता है तुम में? यह संबंध अपनी मर्यादा में रहे तो आज का दिन मेरे लिये सबसे खुशी का दिन होगा।’
अब तो रिंकी जैसी सभी लड़कियां चुप थीं। अपने-अपने भ्रमजाल से निकलने का प्रयास कर रही थीं। प्रज्ञा ने तो किसी की प्रतिक्रिया देखने का प्रयास नहीं किया। बस उसने अपने और अपने वैलेंटाइन अशोक के लिए खाना परोसा और सारे दोस्तों के बीच बैठकर अशोक के साथ खाना खाया। अकेले एकांत में बैठकर खाने का आनंद उतना नहीं आता, जितना आज अशोक को अपने दोस्तों के बीच प्रज्ञा के साथ बैठकर खाना खाने में आया।