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रोशनी

05:56 AM Nov 19, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

सुकेश साहनी
पलंग के पास बैठा दिवाकर सूनी-सूनी आंखों से पत्नी को देख रहा था। इंटराविनस ड्रिप से दवा बूंद-बूंद कर उसके शरीर में जा रही थी। पिछले पांच दिनों से वह कोमा में थी।
दिवाली वाला दिन था। हर कहीं गहमा-गहमी थी, पर पत्नी के सिर पर मंडराती मौत के कारण उसके घर में सन्नाटा छाया हुआ था। बीच-बीच में पास-पड़ोस के बच्चों द्वारा दागे जा रहे पटाखा बमों से उसका दिल कांप-कांप उठता था, ऐसे ही माहौल में एकाएक टेलीफोन की घंटी घनघना उठी।
‘हैलो, क्या मैं नेत्र विशेषज्ञ डॉक्टर दिवाकर से बात कर सकता हूं?’ दूसरी ओर से आवाज में हड़बड़ाहट थी।
‘स्पीकिंग।’
‘डॉ. साहब... मेरे बेटे की एक्सीडेंट में...’ कांपती आवाज में किसी ने कहना चाहा।
‘सॉरी!’ उसने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘आजकल मैं कोई केस नहीं कर रहा।’ और फोन रख दिया।
पिछले दो महीने से उसकी सारी दुनिया पत्नी के इर्द-गिर्द सिमट आई थी। क्लिनिक जाना उसने बंद कर दिया था। उसकी आंखों के आगे वह मनहूस दिन घूम गया, जब अपोलो अस्पताल में डॉक्टरों ने पत्नी को कैंसर का मरीज घोषित करते हुए इस दुनिया में चंद दिनों का मेहमान बताया था। विशेषज्ञों के अनुसार कैंसर की एडवांस स्टेज होने के कारण किसी प्रकार के इलाज की कोई गंुजाइश नहीं थी। डॉक्टरों की सलाह पर पत्नी को घर ले आया था और पेन किलर्स की मदद से उसके कष्ट को कम करने का असफल प्रयास करता रहा था।
तभी नौकर ने उसे बाहर किसी के आने की सूचना दी।
आगंतुक एक बूढ़ा था... बिखरे हुए बाल... अफरा-तफरी में पहने गए कपड़े... सूजी हुई आंखें।
‘डॉ. साहब, मैंने थोड़ी देर पहले आपको फोन किया था... कृपया थोड़ी देर के लिए मेरे साथ चलें... आपकी बहुत मेहरबानी होगी!’ उसे देखते ही वह गिड़गिड़ाने लगा।
‘सॉरी!’ उसने रुखाई से कहा, ‘मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता, मैंने फोन पर ही आपको बता दिया था, फिर भी।’
‘हर तरफ से निराश होकर आपके पास आया हूं... यदि आप मेरे साथ नहीं चलेंगे, तो मेरे बेटे की आंखें बेकार हो जाएंंगी। डाक्टर प्लीज... मुझ पर दया करें!’
‘मुझे कसाई समझा है क्या?’ वह झल्ला गया, ‘आपको क्या लगता है, हम डॉक्टरों को कोई तकलीफ नहीं हो सकती! भीतर मेरी पत्नी बीमार पड़ी है, किसी भी समय उसके प्राण-पखेरू उड़ सकते हैं और... और आपको लगता है मैं टाल रहा हूं।’
सुनकर बूढ़े के मुंह से आह निकली, खड़े-खड़े वह डगमगाया, फिर संभल गया, ‘मुझे माफ करें डॉक्टर! शायद मैंने आपका दिल दुखाया है, अपनी परेशानी में मेरी मति मारी गई है। मेरे इकलौते बेटे की लाश पोस्टमार्टम हाउस में पड़ी है। आज सुबह ही घर से भला-चंगा निकला था। ट्रक एक्सीडेंट में उसकी मौत हो गई। उसने नेत्रदान का संकल्प लिया था, यह रहा उसका सर्टिफिकेट।’
बूढ़े की बात सुनकर डॉक्टर सकते में आ गया। वह बूढ़े के हाथ से नेत्रदान का प्रमाण-पत्र लेकर देखने लगा।
बूढ़ा कहे जा रहा था, ‘नौ बजे उसकी मौत हुई थी, चार घंटे बीत चुके हैं। जल्दी ही उसकी आंखें न निकाली गईं तो बेकार हो जाएंगी। मुझे बताया गया कि आंख निकालने का इंतजाम आप ही करेंगे... ।’
इस बार डॉक्टर ने ध्यान से बूढ़े की ओर देखा, ‘चार घंटे पहले ही इकलौते बेटे की मौत हुई है और ये उसके नेत्रदान के लिए मारा-मारा फिर रहा है, बहुत हिम्मत की बात है!’ उसने सोचा।
वह शहर की नेत्रदान के लिए प्रेरित करने वाली संस्था का पदाधिकारी था। नेत्रदान के प्रति ऐसे सजग नागरिकों की वह बहुत कद्र करता था। संस्था ऐसे लोगों को सम्मानित भी करती थी, पर वर्तमान परिस्थितियों में...
बूढ़े को रुके रहने का संकेत कर वह भीतर आ गया। पत्नी के सिरहाने खड़ा सोचता रहा। डॉक्टर होने के नाते पत्नी के मुख पर मृत्यु की छाया को स्पष्ट देख रहा था। उसकी सांस बहुत कष्ट से चल रही थी। उसके माथे पर पसीने की असंख्य बूंदें चुहचुहा आई थीं... उसने रुमाल से उसका पसीना पोंछ दिया। वह सोच में पड़ गया था।
उसने फोन पर पत्नी की देखरेख के लिए नर्स को तुरंत घर आने को कहा और नौकर को आवश्यक निर्देश देकर बाहर आ गया। इन दो महीनों में पहली बार उसने गैराज से अपनी कार बाहर निकाली।
पोस्टमार्टम हाउस में घुसते ही बदबू का भभका उसके नथुनों से टकराया। टेबल पर लड़के का शव सफेद कपड़े में सील पड़ा था। बेटे के शव को देखते ही बूढ़े की आंखों में आंसू बहने लगे थे।
‘अभी डॉक्टर साहब नहीं आए हैं।’ वहां उपस्थित जमादार ने बीड़ी का धुआं उगलते हुए उन्हें बताया।
दिवाकर के सामने सर्जन की प्रतीक्षा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि जब तक वह आकर शव पर लगी सील नहीं तोड़ देता, दान की गई आंखें निकालने का कार्य वह प्रारंभ नहीं कर सकता था।
बूढ़ा अंदर-बाहर हो रहा था, उसके चेहरे पर पीड़ा के स्थान पर आक्रोश दिखाई देने लगा था। वह बुदबुदा रहा था, ‘मेरा बेटा मरा है... मेरे कलेजे का टुकड़ा... मेरा अपना खून... उसकी दान की आंखें निकलवाने के लिए मुझे भीख मांगनी पड़ रही है।’
डॉक्टर ने प्रकट में बूढ़े को धैर्य बंधाया पर भीतर ही भीतर वह भी व्यग्र हो उठा था। समय तेजी से गुजरता जा रहा था। अगर जल्दी ही सर्जन नहीं आया तो? उसने इस बारे में सीएमओ से फोन पर बात कर लेना बेहतर समझा।
उसकी बात सुनकर सीएमओ ने लापरवाही से कहा, ‘अरे भाई, आज दिवाली है, कहीं मिलने-मिलाने लगे होंगे। निश्चिंत रहें... वे ड्यूटी पर पहुंच जाएंगे।’
दिवाकर की प्राइवेट प्रेक्टिस थी, फिर शहर में उसकी नेत्र विशेषज्ञ के रूप में अलग पहचान थी। सीएमओ की गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी पर उससे चुप नहीं रहा गया, ‘जी हां, आज दिवाली है-रोशनी का त्योहार और यहां एक अभागा बूढ़ा किसी की आंखों को रोशन करने के लिए गिड़गिड़ा रहा है। आधे घंटे के भीतर आपका डॉक्टर पोस्टमार्टम के लिए यहां नहीं पहंंचता है, तो लड़के की आंखें बेकार हो जाएंगी।’ कहकर उसने फोन रख दिया।
उसके फोन का असर हुआ था। थोड़ी देर बाद ही सर्जन वहां पहुंच गया। बूढ़े को कक्ष से बाहर कर दिया गया। दिवाकर ने शव के मुख से कपड़ा हटाया, लड़के की उम्र सोलह-सत्रह साल के लगभग थी। इतनी कम उम्र में नेत्रदान का संकल्प! रास्ते में बूढ़े ने उसे बताया था कि उसके बेटे का चयन राष्ट्रीय जूनियर फुटबाल टीम में हो गया था। उसके दिल को धक्का-सा लगा। एक्सीडेंट के बावजूद उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव नहीं थे। लड़के की आंखें पूरी तरह बंद नहीं थीं। उसे चिन्ता हुई। आंखें पूरी बंद न हों तो उनके जल्दी खराब हो जाने की आशंका रहती है। उसने टार्च की रोशनी में पुतलियों को ध्यान से देखा, दोनों आंखें सुरक्षित थीं। आंखों को निकालने में उसे मुश्किल से सात मिनट लगे। उसने एंटीसैप्टिक लोशन से आंखों को साफ कर कंटेनर में रख दिया। सावधानी बरती कि कार्निया पर कॉटन का को कोई रेशा लगा न रह जाए। ‘आई कंटेनर’ को बर्फ से भरे थर्मस फ्लास्क में रख दिया। इसके बाद उसने आंखें निकाल लेने से रिक्त हुए स्थान को गाज से भर दिया, ताकि चेहरा बिल्कुल पहले जैसा लगे। अमूमन इस कार्य को वह कुछ क्षणों में ही पूर्ण कर लेता था, पर इस केस में उसने इतनी देर लगाई कि पास खड़ा सर्जन भी ऊबने लगा था।
बाहर आते ही बूढ़े ने उसके थर्मस वाले हाथ को अपने बर्फ से ठंडे हाथों में ले लिया, ‘शुक्रिया डॉक्टर ...आपने जो भी मेरे लिए किया... अब मेरे बेटे की आंखों से किसी की अंधेरी दुनिया रोशन होगी।’
लौटते हुए उसके मन में किसी पवित्र मिशन को पूर्ण करने जैसा संतोष था, वह लगातार बूढ़े और उसके लड़के के बारे में ही सोच रहा था।
घर में नर्स पत्नी की देख-रेख में लगी हुई थी। उसने पत्नी की नाड़ी देखी, ब्लड-प्रेशर नापा। सब कुछ सामान्य था।
दान की गई आंखों को अधिक समय तक स्टोर रखने की कोई व्यवस्था उसके पास नहीं थी। चौबीस घंटे के भीतर आंखें आल इंडिया इंस्टीट्यूट, दिल्ली पहुंचनी ही चाहिए, जहां इन्हें तत्काल किसी प्रतीक्षारत अंधे व्यक्ति की आंखों में प्रतिरोपित कर दिया जाएगा। उसने कंपाउंडर को फोन किया, ताकि उसे दिल्ली भेज सके। उसने अपने नवजात बेटे की पहली दिवाली होने के कारण जाने में असमर्थता व्यक्त कर दी। उसने तीन जगह और संपर्क किया, पर त्योहार की वजह से कोई भी दिल्ली जाने को राजी नहीं था। उसके माथे पर चिंता की लकीरें दिखाई देने लगीं। वह बेचैनी से कमरे में चहलकदमी करने लगा।
***
उसकी आंखों के सामने से अनगिनत आंखें गुजरने लगती हैं। बूढ़े-जवान आदमी औरतों की आंखें... लड़के-लड़कियों और बच्चों की आंखें... मोतिया बिन्द, काला मोतिया, जाले वाली आंखें... भैंगी आंखें... निर्दोष आंखें... चमचम करती आंखें... उदास आंखें... प्रतिरोपित आंखें... बूढ़े की कृतज्ञ आंखें! सभी आंखें उसे ताक रही हैं। वह पोस्टमार्टम हाउस में तैयार खड़ा है। शव के मुख से कपड़ा हटाते ही उसके मुख से चीख निकल जाती है। शव तो पत्नी का है। ...ब्लड कैंसर से मरने वाले की आंखें प्रतिरोपित नहीं की जा सकतीं। वह परेशान हो उठता है। उसे कुछ करना होगा। कहीं दूर दो अंधी आंखों को उसका इंतजार है। क्या करे? वह दृढ़ निश्चय के साथ अपनी दोनों आंखें निकालकर दाहिनी हथेली पर रख लेता है। ...एकाएक उन दोनों आंखों से प्रकाश फूट पड़ता है। उन आंखों की रोशनी में सब कुछ देख पा रहा है।
ट्रेन के पटरियां बदलने से तेज शोर हुआ, उसने चौंककर उनींदी आंखों से देखा, ट्रेन पूरी रफ्तार से दौड़े जा रही थी, दान की गई आंखों वाला थर्मस उसने किसी बेशकीमती वस्तु की भांति संभाल कर अपने पास रखा हुआ था। आतिशबाजी से पूरा आकाश जगमगा रहा था।

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