आत्म-दीप बनकर ही हासिल होगा उजियारा
योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर ने अपने शिष्यों को ‘अप्पा दीवो भव’ अर्थात् ‘आत्म दीप भवः’ का मूल मंत्र दिया है। निस्संदेह, इसका तात्पर्य यही है कि हम जब स्वयं को पहचान लेंगे, तो फिर जगत के झंझटों में हमें उलझना नहीं पड़ेगा। एक मायने में आत्मज्ञान हासिल करने का संदेश मस्तमौला फक्कड़ कबीर तो जाने कब से हमें चेताता आ रहा है और बार-बार बता रहा है :-
‘कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़े बन मांहि।
तैसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नांहि।’
विडंबना यह है कि आज मुख्यत: समाज बहिर्मुखी हो गया है, इसीलिए बाहर की चकाचौंध में भटकना आज के मानव की नियति बन गई है। दिखावे के मोह में हम अपनी शक्ति व सामर्थ्य से अनभिज्ञ बने रहते हैं। जिसका परिणाम यह है कि मन अशांत रहता है। सब कुछ हमारे पास विद्यमान होते हुए भी अगर हम उसके लिए इधर-उधर भटकते रहें, तो इसमें दोष तो हमारा ही हुआ न?
बहुचर्चित साहित्यिक कृति ‘कामायनी’ के रचयिता महाकवि जयशंकर प्रसाद ने मानव-जीवन की विडंबना की ओर संकेत करते हुए कहा है :-
‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
एक-दूसरे से न मिल सके,
यह विडंबना है जीवन की।’
दरअसल, सचमुच हमारी स्थिति यह हो गई है कि ‘बगल में छोरा, नगर में ढिंढाेरा’ की कहावत को हम सभी चरितार्थ कर रहे हैं। हम अपने और अपने आसपास के लोगों के गुणों का अहसास नहीं कर पाते। इसी संदर्भ में मुझे आज एक बोधकथा पढ़ने को मिली, जो आप भी पढ़िए :-
‘प्राचीन काल में एक भिखारी था। एक बार उस के मन में सम्राट बनने की तीव्र इच्छा जगी, तो उसने शहर के चौराहे पर बैठकर अपनी फटी-पुरानी चादर बिछा कर, अपना कटोरा रख दिया और सुबह-दोपहर-शाम यानी तीनों टाइम भीख मांगना शुरू कर दिया। तार्किक प्रश्न है कि अब भला भीख मांगकर भी क्या कोई सम्राट बन सका है? वह अपनी अज्ञानता में डूबा था। किंतु उसे तो इस बात का पता ही नहीं था वह इस तरह जीवनपर्यंत अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता। वर्षों भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया और आखिर एक दिन मौत ने दस्तक दे दी और वह बूढ़ा भिखारी भी मर गया।
इकट्ठे होकर लोगों ने उसका मृत शरीर जला दिया और उसके सभी फटे-पुराने कपड़े-लत्ते नदी में बहा दिये। जहां वह बैठकर भीख मांगा करता था, वहां कभी सफाई तो की नहीं थी, इसलिए वह जमीन काफी गंदी हो गयी थी। लोगों ने वहां सफाई करने के लिए जमीन की थोड़ी खुदाई की। खुदाई करने पर लोगों को वहां बहुत बड़ा खजाना गड़ा हुआ मिला, तो लोगों को आश्चर्य के साथ ही दुःख भी हुआ।
तब लोगों ने कहा, ‘बताओ, कितना बड़ा अभागा था यह बूढ़ा भिखारी? जीवन भर भीख मांगता रहा, लेकिन जहां बैठा करता था, अगर वहीं कभी जरा-सी खुदाई कर लेता, तो सम्राट बन जाने की उसकी इच्छा पूरी न हो जाती?’
कमोबेश हमारे जीवन व्यवहार में भी ऐसा ही होता है। बस, ऐसे ही हम भी तो जीवनभर, बाहर की चीजों की तो भीख मांगते रहते हैं, किन्तु जरा-सा अपने भीतर गोता मार कर देख लें और स्वयं को पाने के लिए ध्यान का जरा-सा अभ्यास करें, तो अपनी आत्मा में छिपे उस बेमोल खजाने को पा सकते हैं, जो हमारे अंदर ही छुपा हुआ रहता है। लेकिन अज्ञानता के चलते हम अपनी बहुमूल्य संपदा के सुख से वंचित हो जाते हैं। जीवन की हकीकत हमें ज्ञानी-ध्यानी हमेशा से ही बताते रहे हैं।
वैसे कबीर ने तो हमें कई बार कहा भी है :-
‘ज्यों चकमक में आग है, ज्यों पुहुपन में बास।
तेरा साईं तुझ में, जाग सके तो जाग।’
आइए, संसार के झमेलों से खुद को मुक्त करके थोड़ी देर तो ‘आत्म-दीप’ जलाकर स्वयं को ढूंढ़ें। जिस पल हम अपने भीतर के उजियारे को पा लेंगे, सच मानिए, हमारे जीवन में उजियारा ही उजियारा होगा। संसार के सारे झंझटों से हमें निराशा और हताशा ही तो मिलती है, जिसे मिटाने की संजीवनी यही है कि हम अपने भीतर की सकारात्मक ऊर्जा और शक्तियों को पहचानें और उन्हें दूसरों को सुख देने में लगाने का प्रयास करें। सकारात्मक व्यक्ति सदैव जीवन में सफल होता है। इसका सकारात्मक प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। याद रखिए, सुख बांटने से और ज्यादा बढ़ता है, तो अपने सुखों को खूब बांटिए और उन्हें बहुगुणित करते रहिए। सही मायनों में सुख और दुख की तासीर है कि बांटने से दुख कम हो जाता है और सुखता बढ़ता ही जाता है।
‘कहने से घट जाय दुख, अपने देते साथ।
सुख बढ़ता बांटे अगर, बांटो दोनों हाथ।’