सुरंग में रोशनी और ज़िंदगी का अंधेरा
तमाम नियम-कानूनों की अवहेलना करके बनाई जा रही सिलक्यारा सुरंग के हादसे में फंसे मज़दूरों को रैटहोल माइनर्स की बदौलत बचा लिया गया, गोकि भारत में यह तरीका प्रतिबंधित है। परिणाम में सफलता तो मिली लेकिन विरोधाभास भरी है। सत्रह दिनों तक व्यग्र कर देने वाली जद्दोजहद के बाद, सब मजदूरों का सकुशल निकल आना वाकई जश्न मनाने योग्य है, वहीं इस तथ्य को नज़रअंदाज़ न किया जाए कि यह त्रासदी बनने की नौबत ही नहीं बननी चाहिए थी। तदनुसार, हमें उन पर निर्भर होना पड़ा जिनकी रोजी-रोटी कानून तोड़ने से जुड़ी है और यह गतिविधि हमारी नीतियों के औचित्य का इम्तिहान भी है। यह प्रसंग याद दिलाता है कि वह गरीब ही है, जो अक्सर हमारे जीवन को इतना आरामदायक बनाता है।
सिलक्यारा हादसे की तुलना यदि थाईलैण्ड में 2018 में किए गए साहसिक बचाव अभियान से की जाए, जब कुछ लड़के दुर्भाग्यवश अचानक आई बाढ़ में एक गुफा में फंस गए थे तो उत्तराखंड में निर्माणकर्मी मलबे में इसलिए फंसे क्योंकि सुरंग निर्माण में कानून और नियमों की अनदेखी हुई है और इसे बदनसीबी से उपजा हादसा करार नहीं दिया जा सकता।
पुनः थाईलैण्ड बचाव अभियान के नायक वह थे जो शौकिया गुफा-गोताखोरी करते हैं, लेकिन इसमें उच्च दर्जे के कौशल की जरूरत होती है और घंटों तक पानी के भीतर रहकर अभियान करना संभव नहीं होता। लेकिन जिस टीम ने सिलक्यारा सुरंग में फंसे मज़दूरों को बचाया है, वह गरीब रैट माइनर्स हैं। उनकी महारत तंग से तंग जगह में सुरंगें बनाकर खनन करके कोयला निकालने में है, मुख्यतः यह काम मेघालय में होता है।
वर्ष 2014 में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने रैटहोल खनन को प्रतिबंधित कर दिया था लेकिन मेघालय के जैंतिया और खासी पहाड़ी क्षेत्र में यह काम चोरी-छिपे निरंतर जारी है। वहां खदानों में कोयला महीन भूमिगत पट्टियों में मौजूद है। लिहाजा रिवायती खनन की तकनीकें वहां बेकार हैं और यही वजह है कि खान मालिक तंग सुरंगों में वंचित और अकुशल मेहनतकशों को झोंकते हैं। मेघालय में रैटहोल माइनिंग करना आम है और जितना हो सके आलोचना लायक। संविधान की छठी अनुसूची के तहत इस राज्य की भूमि पर समुदायों का हक सुरक्षित है। निजी पक्षों ने इसकी आड़ लेकर व्याख्या कुछ इस तरह कर रखी है मानो उन्हें भू-भाग का बेरोकटोक दोहन करने की छूट सरकार से मिल गई है। मेघालय में रैट माइनिंग जारी रहने की पीछे वजह यही है।
रैटहोल माइनिंग न केवल गलत है बल्कि खतरनाक भी क्योंकि खोखली खदानों में अचानक पानी भरने के कारण कई मज़दूर मर चुके हैं। शारीरिक नुकसान के सीधे जोखिम के अलावा जिस ढंग से कोयला निकाला जाता है वह पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है। सबसे अधिक गौरतलब है कि मेघालय की कोप्ली नदी का पानी इस गतिविधि के कारण अम्लीय बन चुका है। इस सबके बीच, यह संविधान की छठी अनुसूची का प्रावधान है, जो लालची खदान मालिकों को बचाए हुए है।
तंग से तंग जगह में लगातार काम करने से रैटहोल माइनर्स पतली भूमिगत परतों में दबे कोयले को निकालने के लिए खुदाई, पिसाई और ढुलाई के अभ्यस्त हो गए हैं। हालांकि, इसके लिए उन्हें ‘कुशल मजदूर’ की संज्ञा देना सही न होगा क्योंकि प्रक्रिया मुख्यतः खुरचने, खोदने और पिसाई से खनन करने की है। आज जब हम सिलक्यारा में किए साहसिक बचाव कार्य के लिए इनको शाबाशी दे रहे हैं तो क्या सोचा कि ये नायक फिर से किन परिस्थितियों में खटने को वापस जा रहे हैं?
लोगों के ज़हन में उनकी याद बहुत कम समय तक रहेगी। सिलक्यारा अभियान में 26 घंटों तक लगातार अंधेरे में काम करने के बाद, जब शाम के धुंधलके में वे वापस आए तो अगले दिन सूरज की रोशनी ठीक से लेने से पहले ही उनकी वापसी हो गई। हमें तो सही में उनके नाम तक पता नहीं हैं न ही जानते हैं कि वे कहां के मूल निवासी हैं। कुछ अपुष्ट खबरों के अनुसार अधिकांश अल्पसंख्यक और जनजातीय समुदाय से हैं लेकिन क्या वास्तव में?
बचाव अभियान में रैटहोल माइनर्स को लगाने के पीछे मुख्य वजह यह रही कि अमेरिका निर्मित परिष्कृत होरीज़ॉन्टल ड्रिलिंग ऑगर मशीन बीच कार्य में नकारा हो गई और जिसकी मरम्मत संभव नहीं थी। समय कम पड़ता जा रहा था और कुछ मीटर की खुदाई अभी बाकी थी, जिससे मंजिल पुनः काफी दूर लगने लगी।
यहां दूसरी भारी विद्रूपता यह है कि जब आयातित महंगी मशीन असफल रही तो यहां हाथों और पंजों से की जाने वाली सस्ती खुदाई ने कमाल कर दिखाया। संयोगवश रैटहोल माइनर्स को समांतर खुदाई करने में महारत हासिल है, इसी खासियत के दम पर वे मेघालय में महज दो मीटर चौड़ी कोयला पट्टी से कोयला खोदकर निकाल लेते हैं। ऑगर मशीन के ठप्प पड़ने के बाद बाकी बची समांतर खुदाई रैटहोल माइनर्स ने कर दिखाई। कल्पना करें, अक्सर बच्चों को इस किस्म के खतरनाक कामों में लगाया जाता है फिर भी दोहन करने वालों की अंतरात्मा उन्हें झंझोड़ती नहीं।
दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि आम निर्माण कार्यों में भी जोखिम का अवयव नहीं गिना जाता। ऊंची इमारतों में, ईंटों की चिनाई या पलस्तर करने में लगे राज-मिस्त्री को व्यक्तिगत सुरक्षा-उपकरण से लैस होकर काम करते शायद ही कहीं देखा हो। पुल निर्माण करने में भी गिरकर मरने की खबरें अक्सर मिलती हैं, यह सब केवल किसी सुदूर पर्वतीय पहाड़ी इलाके में न होकर सुरंग निर्माण या शहरों में भवन बनाने में भी होता रहता है।
अतंर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि निर्माण कार्य संबंधी मौतों में भारत सबसे आगे है, जहां लगभग 38 जानलेवा दुर्घटनाएं रोजाना होती हैं। जहां गरीबी मज़दूरों को सुरक्षा जरूरतों की परवाह न करने को मजबूर करती है वहीं ताकतवर पदों पर बैठे लोग इस कमजोरी का फायदा उठाते हैं। सिलक्यारा में रैटहोल माइनर्स के साहसिक अभियान उपरांत भी हमने एक बार फिर से यही होते देखा है।
पिछले महीने, सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकाल लाने के बाद रैट माइनर्स को रस्मी तौर पर फूलमालाएं पहनाईं और फिर वहीं वापस भेज दिया, जहां से आए थे। कहां तो उम्मीद थी कि यह भयावह प्रसंग रैटहोल माइनिंग पर पुनर्विचार करने को प्रेरित करता, जो कि वास्तव में, पर्यावरण नियमों की उल्लंघना करके पहाड़ों में सुरंगें बनाना है। किंतु इससे कहीं दूर, हमें ऐसे रैटहोल माइनर्स अपने देश में होने पर गर्व हो रहा है और हम ‘भारतीय जुगाड़’ के कसीदे पढ़ने में लगे हुए हैं।
लेखक समाजशास्त्री हैं।