बदलते हालात के अनुरूप हो जीवनशैली
पंकज चतुर्वेदी
उत्तर पूर्वी राज्यों में जब सबसे भीगा और पसंदीदा मौसम होता है, असम में गुवाहाटी समेत कई जिलों में स्कूल बंद करने पड़े क्योंकि तापमान 45 से पार हो गया। भादों में उमस के साथ इतनी गर्मी जानलेवा होती है। दुनिया में सबसे अधिक बरसात के लिए मशहूर मेघालय के चेरापूंजी और मौवसिनराम में अब छाते बारिश से बचने की जगह तीखी गर्मी से बचने को इस्तेमाल हो रहे हैं। यहां 33 डिग्री तापमान स्थानीय निवासियों के लिए असहनीय हो गया है। एक तो बरसात कम हुई, ऊपर से अधिकतम 24 डिग्री वाले इलाके में तापमान और उमस बढ़ गई। उत्तराखंड में देहरादून में अधिकतम तापमान 35 डिग्री और पंतनगर का अधिकतम तापमान 37.2 होना असामान्य है।
कश्मीर में भी इस समय अकेले चुनावी तपिश नहीं, बल्कि मौसमी तपिश लोगों को बेहाल किए है। यहां इस मौसम के तापमान से कोई 6.6 डिग्री अधिक गर्मी दर्ज की गई है और हालात लू जैसे हैं। कुपवाड़ा में 33.3, पहलगाम में 29.5 और गुलमर्ग में 23.6 तापमान असहनीय जैसा है। हिमाचल प्रदेश में सितंबर के महीने में जून-सी गर्मी है। ऊना समेत प्रदेश के पांच जिलों में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है। हाल ही में ऊना का तापमान 38 डिग्री को पार कर गया। जबकि कांगड़ा, मंडी, चंबा और बिलासपुर में भी तापमान 35 डिग्री पर पहुंच रहा है। सामान्य तौर पर सितंबर माह में हल्की सर्दी का दौर शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार गर्मी का असर देखने को मिल रहा है। शिमला में भी तापमान 28 डिग्री सेल्सियस बना हुआ है, जो सामान्य से कहीं अधिक है।
दरअसल, जलवायु परिवर्तन का असर सबसे संवेदनशील नैसर्गिक स्थलों में अब गहरा होता जा रहा है। गर्मी से लोगों की सेहत पर तो बुरा असर हो ही रहा है, लगातार गर्मी ने पानी की मांग बढ़ाई और संकट भी। सबसे बड़ी बात, गर्मी से शुद्ध पेयजल की उपलबद्धता घटी है। प्लास्टिक बोतलों में बिकने वाला पानी हो या फिर आम लोगों द्वारा सहेज कर रखा गया जल, तीखी गर्मी ने प्लास्टिक बोतल में उबाले गए पानी को ज़हर बना दिया। पानी का तापमान बढ़ना तालाब-नदियों की सेहत खराब कर रहा है। एक तो वाष्पीकरण तेज हो रहा है, दूसरा पानी अधिक गर्म होने से जल में विकसित होने वाले जीव-जन्तु और वनस्पति मर रहे हैं।
तीखी गर्मी भोजन की पौष्टिकता की भी दुश्मन है। तीखी गर्मी में गेहूं, धान के दाने छोटे हो रहे हैं और उनके पौष्टिक गुण घट रहे हैं। वैसे भी तीखी गर्मी में पका हुआ खाना जल्दी सड़-बुस रहा है। फल-सब्जियां जल्दी खराब हो रही हैं। खासकर गर्मी में आने वाले वे फल जिन्हें केमिकल लगाकर पकाया जा रहा है, इतने उच्च तापमान में ज़हर बन रहे हैं।
इस बार की गर्मी की एक और त्रासदी है कि इसमें रात का तापमान कम नहीं हो रहा, चाहे पहाड़ हो या मैदानी महानगर। बीते दो महीनों से न्यूनतम तापमान सामान्य से पांच डिग्री तक अधिक रहा ही है। खासकर सुबह चार बजे भी तपिश का अहसास होता है और इसका कुप्रभाव यह है कि बड़ी आबादी की नींद पूरी नहीं हो पा रही। खासकर मेहनतकश लोग उनींदे से सारे दिन रहते हैं। इससे उनकी कार्यक्षमता पर तो असर हो ही रहा है, शरीर में कई विकार हो रहे हैं। जो लोग सोचते हैं कि वातानुकूलित संयंत्र से वे इस गर्मी की मार से सुरक्षित हैं, तो यह बड़ा भ्रम है। लंबे समय तक एयर कंडीशनर वाले कमरों में रहने से शरीर की नस-नाड़ियों में संकुचन, मधुमेह और जोड़ों के दर्द का खमियाजा ताजिंदगी भोगना पड़ सकता है।
मार्च-24 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने भारत में एक लाख लोगों के बीच सर्वे कर एक रिपोर्ट में बताया है कि गर्मी व लू के कारण गरीब परिवारों को अमीरों की तुलना में पांच फीसदी अधिक आर्थिक नुकसान होगा। चूंकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग बढ़ते तापमान के अनुरूप अपने कार्य को ढाल लेते हैं, जबकि गरीब ऐसा नहीं कर पाते।
दरअसल, बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बन रहा है। इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, पानी और बिजली की मांग बढ़ती है, तो उत्पादन लागत भी बढ़ती है।
हम जान लें कि प्रकृति की किसी भी समस्या का निदान हमारे अतीत के ज्ञान में ही है, कोई भी आधुनिक विज्ञान इस तरह की दिक्कतों का हल नहीं खोज सकता। आधुनिक ज्ञान और विज्ञान कुपित कायनात से जूझने में असहाय है। अब समय या गया है कि इंसान बदलते मौसम के अनुकूल अपने कार्य का समय, हालात, भोजन, कपड़े आदि में बदलाव करे। खासकर पहाड़ों पर विकास और पर्यटन दो ऐसे मसले हैं, जिन पर नए सिरे से विचार करना होगा। शहर के बीच बहने वाली नदियां, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और जलयुक्त रहेंगे तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे।