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जिजीविषा

12:35 PM Aug 07, 2022 IST
जिजीविषा
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प्रदीप उपाध्याय

आज सुबह ही तो भगवान से वह मौत मांग रही थी, ऐसी अपमान और जिल्लतभरी जिंदगी का क्या मतलब और अब यह क्या! ऐसा आखिर क्या मोह रखना कि एकदम से भगवान के सामने एक नई मांग के साथ उसके दर पर धरना देना पड़े! कहीं इससे भगवान भी तो गफ़लत में नहीं पड़ जाएंगे!

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यह अचानक जीवन से मोह क्यों! कहां तो वह रोजाना की तरह आज भी सुबह भगवान से अपनी मृत्यु की गुहार लगा रही थी, जिस तरह रोजाना दिन-रात भगवान के नाम की माला जपती रहती और कहती रहती कि हे भगवान! अब तो जल्दी से उठा ले… मुझे ऐसी जिंदगी नहीं जीना, जहां हर कोई मतलब से खाली नहीं है। और फिर वह बीमारी से भी तो तंग आ चुकी थी। उम्र के साथ बीमारियां भी तो घेरे रहती हैं…। जब तक हाथ-पैर चल रहे थे तब तक तो बेटे-बहू भी पूछ-परख करते रहे। अब उम्र बाधा बनने लगी थी…। आखिर समय के साथ शरीर और मन दोनों ही ढलने लगते हैं। और फिर जीने के लिए कोई कारण नहीं मिले तो फिर कैसी जिजीविषा! कैसा जीवन से मोह-माया!

निराशा में इंसान और सोचे भी तो क्या सोचे! लेकिन आज की घटना के बाद अब एकदम से उसका इरादा बदल-सा गया और आज अब उसी भगवान से प्रार्थना कर रही है कि भगवान अभी चंद सांसें और दे देना ताकि कुछ साल और जी लूं और तेरे नाम के सहारे असहाय होने के बाद भी अपने घर-परिवार का सहारा बन सकूं। फिर वह आशंकित होने लगती है कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि भगवान पहले वाली बात को ही स्वीकार कर लें…। नहीं, नहीं… अभी वह मरना नहीं चाहती।

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अब जबकि उसके जीने की चाहत फिर से जाग उठी थी तब उसे अपना बीता हुआ कल भी तो सामने से गुजरते हुए दिखाई देने लगा था। विजय जिस दिन उसे ब्याह कर लाए थे तब घर भर में खुशियों की लहर आ गई थी। आए भी क्यों नहीं… लोग पीठ पीछे कहते भी थे कि आखिर बड़े घर की लड़की ने उनका हाथ थामा है।

भले ही वह बड़े घर की लड़की थी लेकिन उसने कभी किसी को अहसास नहीं होने दिया कि वह अपने मायके की सुख सुविधा छोड़कर यहां ससुराल में बहुत दुखी हो गई है बल्कि उसने स्वयं को परिस्थितियों के हिसाब से ऐसे ढाला था कि कोई भी मिलने वाला उसके चेहरे पर असंतोष का भाव पढ़ना भी चाहे तो नहीं पढ़ सकता था। विजय उसकी इसी बात पर कायल हो गए थे। विजय में थोड़ा हीनता का भाव आया भी तो उसने अपनी बातों से उन्हें किसी कमी का अहसास नहीं होने दिया बल्कि आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित ही करती रही। शादी के तत्काल बाद ही तो विजय की नौकरी स्थायी हो गई थी और समय से प्रमोशन भी मिलते रहे। तभी तो सास-ससुर ने समवेत स्वर में घोषणा कर दी थी कि घर में लक्ष्मी का प्रवेश हो गया है। उसमें जब घर वालों को लक्ष्मी दिखाई देने लगी तो स्वाभाविक ही था कि देवर-देवरानियों में ईर्ष्या भाव पैदा होने लगे। ननद तो छठे-चौमासे मेहमान बनकर वार-त्योहार पर आती थीं तो वह उनकी आवभगत में कोई कोर कसर नहीं रखती, ऐसे में वह ननद की भी प्यारी भाभी बनी रही।

जब विजय ने बैंक से लोन लेकर अपना खुद का मकान खरीद लिया और किराये का मकान छोड़कर उसमें गृह प्रवेश कर लिया तो सास-ससुर की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा। हां, देवर-देवरानी जरूर अलग हो गए। उन्होंने अपने रास्ते अलग तय कर लिए। निजी मकान में उसके अपने मायके की सहभागिता भी शायद इस ईर्ष्या का कारण रही हो। जो भी हो, सास-ससुर ने उसके भाग्यवान होने और गृह लक्ष्मी होने का गौरव गान जरूर जारी रखा था। वैसे भी वह धार्मिक प्रवृत्ति की थी और पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन में भी उतना ही समय देती थी जितना घरेलू कामकाज में। लेकिन घर के काम के मामले में किसी को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था। कितना अच्छा समय गुजर रहा था।

समय के साथ-साथ विजय की तरक्की भी होती चली गई। इस बीच तीन संतानों का भी जन्म हो गया। दो लड़के और एक लड़की। समय कितना जल्दी खिसकता चला गया। सास-ससुर भी थोड़े अंतराल से अनन्त यात्रा पर निकल गए। समय भी बदलता हुआ दिखाई देने लगा, शायद सुख के दिन ढलान पर तेजी से उतरते-उतराते जल्दी-जल्दी गुजर जाते हों और दुख के दिन पहाड़ पर थके कदमों से खड़ी चढ़ाई चढ़ते-चढ़ाते लम्बे बहुत लम्बे और दूर पहाड़ की चोटी-से लगते हैं! बहरहाल, सुख के दिन कब गुजर गए, पता ही नहीं चला।… लड़के ज्यादा सुख-सुविधा और लाड़-प्यार में बिगड़ते चले गए। बेटी जरूर थोड़ा पढ़-लिख गई तो अच्छे घर में ब्याह दी गई।

आज घर में बैठे-बैठे वैसे ही उसे यह भी विचार आने लगा कि सब दिन कहां एक जैसे होते हैं। सुख-दुख तो जीवन के अनिवार्य हिस्से हैं लेकिन जब इंसान लगातार सुख भोगता है और अचानक दुख की आहट होती है तो इंसान के पैर कठोर धरातल पर भी डगमगा जाते हैं। विजय भी अपनी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए ही थे और उन्होंने मिलकर योजना भी बनाई थी कि दोनों बेटों को काम-धंधे से लगाकर वे तीर्थाटन करेंगे लेकिन यह सब इंसान के वश में कहां है कि जो सोचा जाए, वैसा ही होता रहे। कुदरत की अपनी मर्जी जो रहती है। भाग्य कब पल्टी मार जाए… , आखिर कौन भविष्य को जान पाया है!

बड़े बेटे सुनील को घूमने-फिरने का शौक था, उस पर कोई नियंत्रण नहीं रख पाए तो वह कुछ ज्यादा ही उच्छृंखल हो गया। उसे ट्रांसपोर्ट की लाइन पसंद थी। उसके लिए गाड़ी फाइनेंस करवा दी लेकिन दो साल में ही इतना नुकसान उठाना पड़ा कि बैंक ऋण गाड़ी बेचकर और बाकी रकम अपनी पेंशन की बचत से जमा कर कर्जे से मुक्ति पाई गई। सुनील की आवारागर्दी के किस्से भी सामने आने लगे थे। हालांकि, उसकी शादी भी कर दी थी। सुनील की हरकतों के कारण विजय तो उसे घर से निकालने की बात करने लगे थे। वह भी सामने-सामने जवाब देने लगा था।

विजय कहते भी थे कि ‘शायद रिटायरमेंट के बाद व्यक्ति का कद बाहर तो बाहर, घर में भी छोटा हो जाता है।’ उधर छोटे बेटे केतन को जो दुकान लगाकर दी, वह भी घाटे में ही चल रही थी, इसका केतन के मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा था। वह डिप्रेशन में आ गया था। उसका इलाज भी शुरू करवा दिया था, लेकिन इन मुश्किलों के चलते उसकी शादी भी नहीं हो पाई। इन मुसीबतों का सामना कर ही रहे थे कि विजय खुद संकट में घिर गए। अचानक से वे बीमार हो गए। लगातार बुखार, थकान, बेचैनी रहने लगी। जब जांच करवाई तो घर में भूचाल-सा आ गया, उसके तो पैरों के नीचे से जैसे धरती ही खिसक गई थी जब सुना कि विजय को कैंसर है और वह भी लास्ट स्टेज का। बहुत कोशिश की, हर तरह का इलाज लेकिन तीन महीने में ही विजय ने मुक्ति पा ली और परिवार को संजोने की जवाबदारी उसी पर आ गई।

उसने तब भी हिम्मत नहीं हारी। सुनील को रास्ते पर लाने की कोशिश की, केतन का इलाज भी करवाती रही। सारी जमापूंजी तो खत्म हो ही गई थी, इसलिए उसने समाज की परवाह न करते हुए लोगों के घर खाना बनाना भी शुरू कर दिया। विजय की मौत के बाद उसे परिवार पेंशन तो मिल रही थी लेकिन उससे गुजारा कहां हो पा रहा था। सुनील जो कुछ भी कमाता था, खुद पर उड़ा देता था। परिवार की कुछ जिम्मेदारी का उसे भान ही नहीं था। लेकिन जब वह खुद बीमार रहने लगी तो वह बाहर वालों के साथ ही घर वालों के लिए भी अनुपयोगी हो गई। वैसे भी बढ़ती उम्र अपने आप में एक बीमारी है। बेटे-बहू के ताने सुन-सुनकर परेशान हो गई थी और शायद इसीलिए उसकी जीने की इच्छा खत्म-सी हो गई थी।

लेकिन आज जब सुनील और बहू सुनीता रोजाना की तरह झगड़ रहे थे और वह पास ही के अपने कमरे में बिस्तर पर पड़े-पड़े सुन रही थी, तब बहू ने सुनील पर ताना कसते हुए कहा था, ‘तुम जिस तरह से पैसा उड़ा देते हो और घर में कमाई का एक पैसा भी नहीं देते हो तो बताओ मैं घर कैसे चलाऊं। वह तो अच्छा है कि मम्मी की पेंशन घर में आ जाती है और घर का थोड़ा किराया आ जाता है, जिससे घर जैसे-तैसे चल रहा है। जिस दिन मम्मी की आंखें बंद हो गई, पेंशन भी बंद हो जाएगी और भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।’ तब नन्हे पोते बंटी की आवाज भी उसके कानों में पड़ी थी। वह पूछ रहा था, ‘मम्मी आंखें बंद होना क्या होता है।’ तब सुनीता ने उसे भी झिड़कते हुए कहा था, ‘अरे तेरी दादी जब मर जाएगी तब…।’ मासूम बंटी की रूआंसी आवाज भी सुनाई दी थी, ‘तो क्या दादी मर जाएगी, तब फिर मुझे चाॅकलेट के पैसे कौन देगा!’

‘जा तेरी दादी से ही जाकर बोल कि जब तक तेरा यह बाप ढंग से कमाकर घर में रुपया लाकर नहीं दे, तब तक मत मरना।’

अब मासूम बंटी पर क्या गुजरी होगी या उसने क्या समझा होगा यह तो नहीं पता लेकिन वह जरूर सोच में पड़ गई थी और उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह अभी मरेगी नहीं। उसे अपनी पेंशन चालू रखनी है, अपने परिवार के लिए, और इसीलिए भगवान से वह गुहार लगा रही थी कि उसे अभी और जीना है…, अभी वह मरना नहीं चाहती।

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