दायित्व की परीक्षा
एक बार गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। उनका पुत्र भी वहीं बैठा हुआ था। उसने हाथ जोड़ कर कहा, ‘पिता जी अपनी गद्दी का मालिक मुझे बनाइयेगा।’ उसकी बातों को सुनकर नानक जी चुप हो गये। जाड़े के दिन थे। नानक जी भक्तों के साथ प्रातःकाल वायु सेवन करने के लिए निकले थे। सामने एक लकड़हारा सिर पर भारी बोझ लादे चला आ रहा था। सर्दी से उसके पैर ठिठुर रहे थे। बदन पर ठीक से कपड़ा भी नहीं था। लगता था कि वो अभी गिर जायेगा। गुरु नानक को दया आई और वे अपने पुत्र से बोले, ‘बेटा इस बेचारे लकड़हारे के बोझ को उठाकर घर तक पहुंचा दो।’ पुत्र संकोच में पड़ गया और धीरे से बोला, ‘पिताजी! आपके साथ इतने लोग हैं, किसी से कह दीजिए। मैं बोझ को न उठा पाऊंगा।’ गुरु नानक जी ने अपने एक शिष्य से कहा, ‘बेटा तुम इसके बोझ को घर तक पहुंचा दो।’ आज्ञा पाते ही वह शिष्य खुशी-खुशी लकड़हारे के बोझ को लेकर उसके घर की ओर चला गया। नानक जी ने अपने पुत्र की तरफ देखते हुए कहा, ‘बेटा! जो दूसरों के बोझ को अपने ऊपर खुशी-खुशी उठा लेते हैं, वही इस गद्दी के मालिक हुआ करते हैं।’
प्रस्तुति : प्रवीण कुमार सहगल