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मौसमी बदलाव से मुकाबले में सहायक वायनाड के सबक

06:43 AM Aug 10, 2024 IST
मौसमी बदलाव से मुकाबले में सहायक वायनाड के सबक
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सुरुचि भडवाल

हाल के वर्षों में देशभर में घटित आपदाओं का बदतर होता प्रभाव चिंताजनक है। वायनाड त्रासदी एक ऐसा चरम मामला है, जब धरती की सतह कुछ कारकों की वजह से बना दबाव नहीं झेल पाई। मसलन बुनियादी ढांचा विकास और अत्यधिक बारिश। लंबे समय से, विकास प्रक्रिया बनाते वक्त पर्यावरणीय संवेदनशीलता की अहमियत का ध्यान नहीं रखा जाता। लेकिन मौसम में आ चुका बदलाव अब एक हकीकत है। और समस्या की तीव्रता देश के अनेक हिस्सों में आफत का रूप धरकर टूट रही है। केरल में घटित आपदा का कारण चाहे चरम बारिश कहें या यथेष्ट प्रशासनिक व्यवस्था एवं पर्यावरणीय प्रबंधन का अभाव, अवश्य ही इसके जिम्मेवार सब मिलाकर हैं।
देश के दक्षिणी प्रायद्वीप के पश्चिमी और पूरबी घाट जैविक विविधता से काफी समृद्ध हैं और वे गुजरात से लेकर केरल तक और ओडिशा से लेकर तमिलनाडु तक फैली तटरेखा के प्राकृतिक रक्षक हैं। ये घाट, जो अनेक लुप्तप्राय वनस्पति और जीव-जंतु-पक्षियों का आशियाना भी हैं, यहां के पर्यावरण को नियंत्रित करते हैं।
इस पर्वतीय अंचल के संवेदनशील प्राकृतिक स्वरूप और इसे सुरक्षित रखने की जरूरत पर अनेकानेक खबरें छप चुकी हैं और विचार विमर्श हो चुके हैं। सरकारों ने इस संबंध में कमेटियां बनाईं। माधव गाडगिल और के. कस्तूरीरंगन रिपोर्ट ने पश्चिमी घाटों की पर्यावरणीय संवेदनशीलता के मद्देनज़र इस इलाके को संरक्षित करने की तगड़ी सिफारिशें की हैं, जैसे कि खनन पर और अधिक कड़ा नियंत्रण या पूर्ण रोक, औद्योगिक एवं कृषि गतिविधियां, आर्थिक कारणों से भवन निर्माण और भूमि उपयोग में बदलाव इत्यादि पर सख्त शिकंजा। संवेदनशील हिस्सों की पहचान की गई है। इनमें कहा गया कि कई अत्यंत संवेदनशील संभागों में अनेकानेक गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। दोनों रिपोर्टों का निष्कर्ष था कि पश्चिमी घाट को हरसंभव तरीके से सुरक्षित बनाए रखने की जरूरत है। प्रस्तावित किया गया कि भूभाग के 50-70 फीसदी हिस्से को जैव-विविधता और सकल पर्यावरणीय नाजुकता के परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः संरक्षित क्षेत्र बना दिया जाए।
पिछले सालों से महासागरों का औसत तापमान निरंतर बढ़ रहा है, इसकी वजह से जल और थल से वाष्पीकरण अधिक हो रहा है, नतीजतन अधिक गहरे बादल बनने लगे हैं, जिसके चलते बहुत भारी बरसात होती है। इससे जल भराव, सैलाब और भूस्खलन होता है। पश्चिमी घाट के कई भागों में यही हो रहा है। टेरी (ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान) ने महाराष्ट्र सरकार को सौंपी अपनी मौसमीय बदलाव रिपोर्ट-2012 में राज्य कार्य योजना सुझाई है। कोंकण संभाग में चरम बारिश की घटनाओं में वृद्धि और भविष्य में इनके बढ़ते जाने की आशंका जताई गई है। बारिश का ठीक यही मंजर देश के दक्षिणी भाग में देखा गया। सामान्यतः केरल में मानसून जून के पहले सप्ताह में दस्तक देता है और इसके बाद देश के बाकी हिस्सों में फैलता है।
वायनाड त्रासदी कई कारकों के इकट्ठा होने का परिणाम है –अरब सागर में गहरे मेघ बनना, बादल फटना, मिट्टी की जल सोखन शक्ति संतृप्त होना, नाजुक भाग में अतिक्रमण एवं पर्यावरणीय क्षरण इत्यादि। बारिश का असामान्य और चरम होना- इस इलाके में एक ही दिन में 150 एमएम से अधिक बरसात दर्ज हुई। इस भारी बारिश का एक परिणाम भूस्खलन रहा।
भूस्खलन नतीजा है ढलान-बल में बढ़ोतरी और सतह को पकड़कर रखने वाले अवयवों की शक्ति कमजोर पड़ने का। यह चाल तब बनती है जब भूमि सतह को जकड़कर रखने वाले अवयवों की ताकत पर गुरुत्वाकर्षण बल भारी पड़ जाए। ऐसा होने पर, बारिश, बर्फ गिरने, जल सतह में बदलाव, जलधारा से हुआ कटाव, भूजल स्तर में बदलाव, भूकम्प, ज्वालामुखी कंपन या मानव निर्मित हिलजुल से ढलान का भाग धंस जाता है या नीचे की ओर बह निकलता है। भूस्खलन बनाने में मानवजनित गतिविधियों का योगदान खासा है, जो अक्सर तब होता है, जब निर्माण के दौरान ढलान की कटिंग यथेष्ट ढंग से न की जाए, जल निकासी प्रबंधन योजना का सही न होना या इसमें जुगाड़ वाला बदलाव करना या फिर पिछले भूस्खलनजनित कारक।
पश्चिमी घाट का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा भूस्खलन जोखिम वाला है। बेशक भौतिक कारकों को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता किंतु जोखिम को विस्तृत भूवैज्ञानिक जांच, गहन इंजीनियरिंग ज्ञान और भू-उपयोगिता प्रबंधन पर कड़े नियंत्रण के जरिए काफी कम किया जा सकता है। दुर्भाग्य से बुनियादी ढांचा योजना बनाते वक्त इन पहलुओं को अक्सर ध्यान में नहीं रखा जाता। इसके परिणाम में 300 से अधिक लोगों की जानें गईं और अनेक बाशिंदे अभी भी लापता हैं। जमीन-जायदाद का काफी स्तर पर नुकसान हुआ है और बहुत से लोग बेघर हुए हैं और मूलभूत सेवाओं तक पहुंच प्रभावित हुई है।
ज्यादातर मानव-जनित भूस्खलनों से बचा जा सकता है यदि निर्माण स्थल की गहन भूमि जांच और सिविल इंजीनियरिंग एवं नियामक मानकों का पूरी तरह पालन किया गया हो। जोखिम को प्रभावशाली रूप से कम करने के लिए भूस्खलन पैदा करने वाले प्राकृतिक एवं मानव जनित कारकों की पूरी तरह समझ होना जरूरी है। भले ही चेतावनी और राहत तंत्र भी स्थापित हो, लेकिन जैविकता को हुआ नुकसान फिर से नहीं भरा जा सकता। अतएव, इसके नतीजे होकर रहेंगे।
नुकसान की तीव्रता सीमित रखने के लिए प्राकृतिक तंत्र की सुरक्षा सुनिश्चित करना मुख्य उपाय है। यह माना जाता है कि सरकार इस साल आपदा प्रबंधन कानून में संशोधन करना चाहती है और राज्यों में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और डाटाबेस स्थापित होंगे। संचार का बेहतर तंत्र बनाने और जागरूकता फैलाने की जरूरत है। साथ ही, संवेदनशील स्थानों पर सामुदायिक पूर्वाभ्यास करके जानी नुकसान कम किया जा सकता है।
हमें आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है और देखना चाहिए कि किन सुधारक उपायों से हम अपने पर्यावरण और लोगों को बचा सकते हैं।

लेखिका ‘टेरी’ में मौसम बदलाव एवं वायु गुणवत्ता विभाग में कार्यक्रम निदेशक के पद पर हैं।

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