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कानूनी दुरुपयोग से पुरुष हितों की अनदेखी

07:40 AM Sep 20, 2024 IST
ऋतु सारस्वत

हाल ही में देश की शीर्ष अदालत ने वैवाहिक विवाद की सुनवाई के दौरान इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि आईपीसी की धारा 498ए और घरेलू हिंसा अधिनियम देश में सबसे अधिक दुरुपयोग किए जाने वाले कानूनों में से एक बन गए हैं। एक मामले की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कानून के दुरुपयोग की पेचीदगियों की जांच करते हुए इस बात पर अपनी चिंता व्यक्त की कि ये महिला सुरक्षा के लिए बने कानून किस प्रकार दुरुपयोग का शिकार हो रहे हैं।
न्यायाधीश गवई ने कहा कि नागपुर में एक ऐसा मामला देखने को मिला जिसमें अमेरिका चले गए एक व्यक्ति को एक अधूरी शादी के लिए 50 लाख रुपये चुकाने पड़े, जबकि वे दोनों एक दिन भी साथ नहीं रहे। उन्होंने यह भी कहा कि ‘खुले तौर पर घरेलू हिंसा अधिनियम और धारा 498ए सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जाने वाले प्रावधानों में से हैं...।’ उनकी यह टिप्पणी उस भावना को व्यक्त करती है जो कि न केवल समाज के विभिन्न वर्गों, बल्कि देश के विभिन्न न्यायिक निकायों से भी प्रतिध्वनित हो रही है।
उल्लेखनीय है कि 3 मई, 2024 को न्यायाधीश जे.वी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने ‘प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य’ के मामले में कहा, ‘हमने भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 85 और 86 पर गौर किया, ताकि पता लगाया जा सके कि क्या विधानमंडल ने इस न्यायालय के सुझावों पर गंभीरता से ध्यान दिया है... (इसमें) आईपीसी की धारा 498ए का शब्दशः पुनरुत्पादन के अलावा कुछ नहीं है। एकमात्र अंतर यह है कि आईपीसी की धारा 498ए का स्पष्टीकरण अब एक अलग प्रावधान, यानी भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 86 के माध्यम से है।’
शीर्ष अदालत का यह वक्तव्य उस असंतोष की अभिव्यक्ति है, जहां विधानमंडल से यह अपेक्षित था कि वह उस सिद्धांत पर अवश्य विचार करे जो यह प्रतिपादित करता है कि समाज स्थिर नहीं है और इसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानदंड समय के प्रवाह के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं। इसीलिए, समाज को अनुशासित एवं निर्देशित करने वाली वैधानिक नियमावली भी उसी अनुरूप परिवर्तित होनी चाहिए, अन्यथा वह अपना औचित्य खो देती है।
विगत दो दशकों में शीर्ष अदालत से लेकर देश की विभिन्न उच्च अदालतों ने इस मुद्दे को उठाया है कि महिलाओं के लिए बनाए गए सुरक्षात्मक प्रावधानों का उपयोग कभी-कभी हथियार के रूप में किया जा रहा है। परंतु इसके बावजूद इस ओर ध्यान न दिया जाना निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि महिलाएं आज भी भावनात्मक एवं शारीरिक रूप से प्रताड़ित होती हैं, परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि पुरुष ‘अभेद्य सुरक्षा कवच’ से घिरे हुए हर प्रताड़ना से मुक्त हैं। पुरुषों की पीड़ा की बात करना निश्चित ही स्वयं को नारीवादी विरोधी के रूप में उस कठघरे में खड़ा करना है, जिसमें महिला अधिकारों के शत्रु के रूप में चिन्हित किया जाएगा और उसकी आलोचना होगी। किंचित यह भय ही विधि निर्माताओं के समक्ष उपस्थित होता होगा।
एक समाज के समावेशी विकास के लिए ‘लैंगिक समानता’ मूलभूत सिद्धांत है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि लैंगिक समानता का तात्पर्य अक्सर केवल स्त्री अधिकारों से जोड़ा जाता है, जिससे पुरुषों के अधिकारों की अवहेलना स्वत: ही हो जाती है। लैंगिक समानता की वास्तविक परिभाषा बिना किसी लिंग भेद के सभी की समानता को प्रतिस्थापित करना है।
स्तब्ध करने वाला सत्य यह है कि स्त्री द्वारा उच्चारित हर शब्द और आरोप को शब्दश: स्वीकारने की प्रवृत्ति के चलते, बिना सत्यता परीक्षण के पुरुष को अपराधी घोषित कर दिया जाता है। जबकि दुनिया का कोई भी शोध यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि पुरुष और स्त्री का जैविक अंतर भावनाओं के विभेद से भी जुड़ा हुआ है और न ही यह सिद्ध हुआ है कि स्त्री ‘शत्रुताभाव’, ‘ईर्ष्या’, ‘द्वेष’ और ‘घृणा’ जैसे भावों से पूर्णतया मुक्त है।
‘द फॉल्स्ली एक्यूज्ड कैन नेवर गेट देयर लाइव्स बेक’ किम्बर्ली जे. बेंजामीर का अध्ययन बताता है कि झूठे आरोपों का गहरा मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक आघात होता है और इसके परिणाम आजीवन परिलक्षित होते हैं, भले ही आरोपों के परिणामस्वरूप दोष सिद्ध न हुए हों। मिथ्या रूप से आरोपित किए जाने वाले व्यक्ति समाज में अपनी गरिमा और विश्वसनीयता की भावना खो सकते हैं, जिससे उनके जीवन की आशा और उद्देश्य लुप्त हो जाते हैं। वहीं मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी का शोध ‘द इम्पैक्ट ऑफ़ बीइंग रोंगली एक्यूज्ड : विक्टिम वॉयसेस’ झूठे आरोपों के पीड़ितों के साक्षात्कारों का दस्तावेजीकरण करता है, जो कि कानूनी रूप से निर्दोष थे। यह शोध बताता है कि झूठे आरोपों के चलते उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान, दोस्त और पेशेवर जिंदगी को खो दिया।
यदि पुरुषों के खिलाफ़ घरेलू हिंसा के मुद्दे की बात करें, तो यह केवल एक या एक से ज़्यादा देशों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया में व्याप्त है।
ब्रिटेन के ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक (2022-2023), घरेलू हिंसा के 3 पीड़ितों में से एक पुरुष है। मैनकाइंड इनिशिएटिव द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, जो घरेलू हिंसा के पुरुष पीड़ितों पर ध्यान केंद्रित करने वाला एक ब्रिटिश संगठन है, बताता है कि पुलिस द्वारा दर्ज किए गए 25 प्रतिशत मामलों में पुरुष पीड़ित शामिल हैं।
भूटान में, 2023 में रिपोर्ट किए गए 788 मामलों में से 69 में पुरुष पीड़ितों ने सहायता के लिए मदद मांगी, और हर बीतते साल के साथ यह संख्या बढ़ती ही जा रही है।
अगर अमेरिका में घरेलू हिंसा (जिसे अंतरंग साथी हिंसा या आईपीवी के रूप में भी जाना जाता है) की दर की बात करें, तो भी नेशनल इंटिमेट पार्टनर एंड सेक्सुअल वायलेंस सर्वे द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों (2016-2017) के अनुसार, अमेरिका में लगभग 44 प्रतिशत पुरुष अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा के शिकार हुए हैं।
ध्यान रहे कि घरेलू हिंसा के अंतर्गत शारीरिक एवं मौखिक हिंसा दोनों का ही उल्लेख किया गया है। क्योंकि भारतीय समाज पुरुष पर घरेलू हिंसा को सदैव से अस्वीकार करता आया है, इसलिए इस संबंध में बहुत कम शोध हुए हैं। किसी ‘सत्य’ को नकारने का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि वह ‘व्याप्त’ नहीं है।
‘प्रेवलन्स एंड रिस्क फैक्टर्स ऑफ़ फिजिकल वायलेंस अगेंस्ट हसबैंड : एविडेंस फ्रॉम इंडिया’ 2023, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित शोध बताता है कि प्रत्यक्ष रूप से अर्थ अर्जन करने वाली महिलाएं अपने पतियों को शारीरिक और मौखिक रूप से प्रताड़ित करती हैं। संभवतः इस शोध को पित्तृसत्तात्मक पोषक एवं मनगढ़ंत कहा जा सकता है, लेकिन ठीक इसी तरह का शोध 2019 में ‘इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन’ में प्रकाशित हुआ, जो हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्रों पर केंद्रित था। इस शोध ने खुलासा किया कि 52.4 प्रतिशत पुरुषों ने लिंग आधारित हिंसा का अनुभव किया, जिसमें से आम वैवाहिक भावनात्मक हिंसा (51.5 प्रतिशत) थी।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि लैंगिक समानता की चर्चा तब तक संभव नहीं है, जब तक पुरुषों को ‘अधिकार संपन्न’ मानकर उनकी अवेहलना की जाती रहेगी।

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लेखिका समाजशास्त्री एवं स्तंभकार हैं।

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