पग-पग पर सीख
अनिता
जीवन एक पाठशाला ही तो है, जहां हर कदम पर हमें सीखना होता है। सीखने की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कोई भी यहां पूर्ण नहीं है। अहंकार का स्वभाव है वह स्वयं को पूर्ण मानता है, अत: व्यक्ति सीखना बंद कर देता है; और अपने को मिथ्या ही पूर्ण मानता है। ऐसे में उसके भीतर एक कटुता, कठोरता तथा दुख का जन्म होता है। सीखते रहने की प्रवृत्ति उसे बालसुलभ कोमलता प्रदान करती है। बच्चे जैसा लचीला स्वभाव हो तभी हम आनंद के राज्य में प्रवेश पा सकते हैं।
दरअसल, प्रकृति या अस्तित्व हमें ऐसी परिस्थितियों में रखते हैं, जहां अहंकार को चोट पहुंचे। यदि दुख का अनुभव अब भी होता है, शिकायत का भाव बना हुआ है, मायने अहंकार का साम्राज्य बना हुआ है। स्वाभिमान जगा नहीं है। स्वाभिमान में व्यक्ति अपने प्रेमस्वरूप होने का अनुभव करता है। कृतज्ञता की भावना से वह भरा रहता है। जो उसे कटु वचन कह रहा है मानो वह उसकी परीक्षा ले रहा है, मानो परमात्मा ने उसे वहां रखा हुआ है। जब मन कृतज्ञता से भरा हो तो उसमें कैसी पीड़ा!
हमें हर श्वास जब परमात्मा की कृपा से मिली है तब जिस परिस्थिति में रखा जाये वह किसी बड़ी योजना का भाग है, ऐसा मानना होगा। यहां यदि हम स्वयं सृष्टि के बड़े आयोजन में परमात्मा के सहायक बनना चाहते हैं तो हमें विनम्र होना सीखना होगा। जीवन यात्रा में चलते हुए मानव के सम्मुख लक्ष्य यदि स्पष्ट हो और सार्थक हो तो यात्रा सुगम हो जाती है। योग के साधक के लिए मन की समता प्राप्त करना सबसे बड़ा लक्ष्य हो सकता है और भक्त के लिए परमात्मा के साथ अभिन्नता अनुभव करना। कर्मयोगी अपने कर्मों से समाज को उन्नत व सुखी देखना चाहता है। मन की समता बनी रहे तो भीतर का आनंद सहज ही प्रकट होता है। परमात्मा तो सुख का सागर है ही, और निष्काम कर्मों द्वारा कर्मयोगी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, जिससे सुख का अनुभव होता है।
सांसारिक व्यक्ति भी हर प्रयत्न सुख के लिए ही करते हैं, किन्तु दुःख से मुक्त नहीं हो पाते क्योंकि जगत का यह नियम है कि सुख-दुख यहां एक साथ मिलते हैं, अर्थात् जो वस्तु आज सुख दे रही है, वही कल दुख देने वाली है। साधक, भक्त व कर्मयोगी तीनों को इस बात का ज्ञान हो जाता है, तभी वह साधना के पथ पर कदम रखते हैं; और सदा के लिए दुखों से मुक्त हो जाते हैं।
अमृता-अनिता डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम