आलसी पीढ़ी
प्रतिष्ठित लैंसेट ग्लोबल हेल्थ जर्नल की वह हालिया रिपोर्ट आईना दिखाने वाली है जिसमें पचास फीसदी भारतीयों के शारीरिक श्रम न करने का उल्लेख है। यहां शारीरिक श्रम से अभिप्राय सप्ताह में मध्यम गति की ढाई घंटे की शारीरिक गतिविधि या सवा घंटे की तीव्र गति वाली शारीरिक सक्रियता से है। शारीरिक सक्रियता को पैदल चलने, व्यायाम, सैर, योग, दौड़, जिम या तैराकी आदि के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। रिपोर्ट के अनुसार जहां पचास फीसदी वयस्क भारतीय शारीरिक श्रम से दूर हैं तो महिलाओं की स्थिति ज्यादा चिंता बढ़ाने वाली है। उनकी निष्क्रियता का प्रतिशत 57 है। वैसे अकेले पुरुषों की निष्क्रियता का प्रतिशत 42 है। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे समाज में शहरीकरण के चलते उपभोक्तावाद का विस्तार हुआ है, हमारी शारीरिक निष्क्रियता में इजाफा हुआ है। हम आरामदायक जीवन-शैली के आदी होते गये हैं। आशंका है कि वर्ष 2000 में भारतीयों में जो शारीरिक निष्क्रियता 22 फीसदी थी, वह वर्ष 2030 तक बढ़कर साठ फीसदी तक हो सकती है। यानी देश की साठ फीसदी आबादी गैर-संचारी रोगों मसलन डायबिटीज और हृदय रोगों के खतरे के दायरे में आ जाएगी। यहां उल्लेखनीय है कि भारतीयों में अनुवांशिक रूप से मधुमेह व हृदय रोग होने की आशंका अन्यों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। जिसका निष्कर्ष है कि शारीरिक रूप से निष्क्रिय रहने से हम इन बीमारियों को और जल्द आमंत्रित कर रहे हैं। चिंता की बात यह भी है कि जहां दुनिया में औसत शारीरिक निष्क्रियता पांच फीसदी बढ़कर 31 फीसदी हुई है, वहीं भारत में बढ़कर पचास फीसदी हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत एशिया प्रशांत में उच्च आय वर्ग वाले देशों में निष्क्रियता के क्रम में दूसरे स्थान पर है। जहां तक महिलाओं की शारीरिक निष्क्रियता का प्रतिशत पुरुषों से अधिक यानी 57 फीसदी होने का प्रश्न है, तो उसके मूल में भारतीय पारिवारिक संरचना व सांस्कृतिक कारण भी हैं। घर-परिवार संभालने वाली महिलाओं में धारणा है कि घर का काम-काज ही शारीरिक सक्रियता का मापदंड है। जबकि यह समस्या की व्यावहारिक व्याख्या नहीं है।
निस्संदेह, लैंसेट ग्लोबल हेल्थ जर्नल की हालिया रिपोर्ट आंख खोलने वाली है। यह जानते हुए भी कि भारत लगातार मधुमेह और हृदय रोगों की राजधानी बनने की ओर अग्रसर है। दरअसल, आजादी के बाद देश में आर्थिक विकास को गति मिली है। भले ही हम अपेक्षित लक्ष्य हासिल न कर पाए हों, औसत भारतीय के जीवन स्तर में सुधार जरूर आया है। आर्थिक समृद्धि ने हमें सुविधाभोगी बनाया है। इस संकट की वजह शहरीकरण और जीवन के लिये जरूरी सुविधाओं का घर के आस-पास उपलब्ध हो जाना भी है। पहले देश की साठ फीसदी से अधिक आबादी कृषि व उससे जुड़े कार्यों में सक्रिय थी। मेहनतकश किसान को कोई शारीरिक श्रम करने की जरूरत नहीं थी । लेकिन धीरे-धीरे कृषि में भी आधुनिक यंत्रों व तकनीकों ने शारीरिक श्रम की महत्ता को कम किया है। किसान संस्कृति से बड़ी संख्या में निकले लोगों ने शहरों को अपना ठिकाना बनाया, लेकिन वे शारीरिक सक्रियता को बरकरार नहीं रख पाये। नौ से पांच की ड्यूटी करने वाले भी दफ्तर व घर के होकर रह गये। कहीं न कहीं सुविधाओं के विस्तार ने भी हमें आलसी बनाया। कुछ दूर पर सब्जी-फल लेने जाने पर भी हम वाहनों का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि शहरों में स्वास्थ्य चेतना का विकास नहीं हुआ, लेकिन इसके बावजूद शहरों के पार्कों में सुबह गिने-चुने लोग ही नजर आते हैं। विडंबना यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रसार और उसके बाद सोशल मीडिया की जकड़ में आने के बाद लोग देर रात सोने व देर से उठने के फेर में फंस गये हैं। सुबह के समय, जब लोगों को व्यायाम, सैर, योग व दौड़ लगानाी चाहिए, वे सो रहे होते हैं। शरीर की प्राकृतिक घड़ी का चक्र बिगड़ने से दिन भर आलस्य बना रहता है। आज लोग कुछ न करने के बावजूद बहुत व्यस्त रहते हैं। लोग यदि अपने लिये रोज आधा घंटा भी निकाल सकें तो स्वस्थ रहने का मंत्र हासिल कर सकते हैं। यह हमारी आदत का हिस्सा बन जाना चाहिए।