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जल्दीबाजी का कानून

06:30 AM Sep 05, 2024 IST
जल्दीबाजी का कानून
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हाल ही में कोलकाता में एक युवा महिला डॉक्टर के साथ दुराचार और हत्या की घटना ने पूरे देश को उद्वेलित किया है। इसको लेकर पश्चिम बंगाल व देश के अन्य भागों में चिकित्सा बिरादरी के लोग व छात्र-छात्राएं आंदोलनरत रहे हैं। निश्चित ही यह दुर्भाग्यपूर्ण व दुखद घटना थी। लेकिन इस मुद्दे को लेकर जिस तरह की राजनीति होती रही है, वह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है। विडंबना है कि एक अमानवीय घटना को राजनीतिक अस्त्र बनाने और उसका प्रतिकार करने का माध्यम बना दिया गया। इसी कड़ी में आनन-फानन में बुलाए गए पश्चिम बंगाल विधानसभा के सत्र में जल्दीबाजी में बलात्कार विरोधी विधेयक ‘अपराजिता’ पारित कर दिया गया। यदि किसी महिला के साथ बलात्कार के बाद मृत्यु हो जाती है या उसे छोड़ भी दिया जाता है, तो विधेयक बलात्कारी के लिये मृत्युदंड का प्रावधान करता है। कहा जा रहा है कि दुराचार के बाद युवा डॉक्टर की निर्मम हत्या के बाद पश्चिम बंगाल में जो आक्रोश आम लोगों में उपजा है उसको दबाने की यह एक राजनीतिक निहितार्थ वाली प्रतिक्रिया है। दरअसल, यह विधेयक जनता के व्यापक विरोध के बाद सामने आया है। जनता ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार से न्याय और जवाबदेही की मांग करती रही है। वहीं राज्य सरकार का दावा है कि विधेयक का उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा को लेकर शासन की प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त करना है। हालांकि, ममता सरकार द्वारा आनन-फानन में लाए गए विधेयक ने इस बात को लेकर बहस छेड़ दी है कि यह कदम राज्यव्यापी असंतोष को शांत करने के लिये महज राजनीति से प्रेरित प्रतिक्रिया है। दरअसल, राज्य में तृणमूल कांग्रेस के नेता जनता के भारी विरोध का सामना कर रहे हैं। हाल ही में आंदोलनकारी प्रशिक्षु डॉक्टरों पर भीड़ के हमले और प्रदर्शन के दौरान पुलिस के दमन से लोगों में भारी गुस्सा है। यही नहीं, टीएमसी के कई नेताओं की असंवेदनशील टिप्पणियों ने भी आंदोलनकारियों के आक्रोश को और बढ़ाया है।
दरअसल, राज्य के लोगों खासकर महिलाओं में इस बात को लेकर भी गुस्सा है कि जिस राज्य में एक महिला मुख्यमंत्री हो, वहां एक युवा महिला डॉक्टर के साथ दुराचार व हत्या के मामले में राज्य सरकार ने ईमानदार प्रतिक्रिया नहीं दी। टीएमसी के कई नेताओं द्वारा की गई अनर्गल बयानबाजी ने भी आग में घी डालने का काम किया। दरअसल, राज्य सरकार ने इस कांड में किरकिरी होते देख मामले को दबाने का प्रयास किया। पीड़िता के परिवार ने भी उनके साथ किये गए व्यवहार को लेकर तीखा प्रतिवाद किया था। फिर प्राथमिकी दर्ज करने में देरी व मेडिकल कालेज के परिसर में आंदोलनरत छात्रों पर एक भीड़ के हमले ने यह संदेश दिया कि मामले को दबाने की कोशिश हो रही है। इस तरह के कृत्यों से राज्य में घटना का विरोध और तेज होता चला गया। निस्संदेह, इस मुद्दे पर विपक्षी दलों द्वारा जमकर राजनीति की गई, लेकिन जिस तरीके से राज्य सरकार व प्रशासन ने मामले में प्रतिक्रिया दी, उसने लोगों के गुस्से को बढ़ाया ही है। एक पहलू यह भी है कि नया विधेयक केंद्र की भारतीय न्याय संहिता के साथ तालमेल नहीं रखता, जो बलात्कार के लिये मृत्युदंड का प्रावधान नहीं करती। आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र सरकारों के इसी तरह के विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिये जूझते रहे हैं। दरअसल, विगत के अनुभव बताते हैं कि मौत की सजा इस तरह के अपराधों पर नियंत्रण करने में सफल नहीं हुई है। कानून के विशेषज्ञ ऐसी तुरत-फुरत सजा को मानव अधिकारों की प्रकृति के विरुद्ध बताते रहे हैं। तभी विधेयक के पारित होने को टीएमसी सरकार की हताशा से उपजा कदम बताया जा रहा है। आने वाले वक्त बताएगा कि यह विधेयक कानून बनने के बाद जमीनी हकीकत में बदलाव लाएगा या फिर कानूनों की लंबी सूची में इजाफा ही करेगा। हालांकि, इस विधेयक को अभी राज्यपाल व राष्ट्रपति की मंजूरी का इंतजार करना है, फिर इसकी प्रभावकारिता और नैतिक निहितार्थों से जुड़े व्यापक प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं। बेहतर होगा कि राज्य सरकार ऐसे मामलों में जांच और न्यायिक प्रक्रिया में सुधार करके तेज व निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करे।

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