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जिंदादिल और आत्मनिर्भर बुजुर्गों की हंसी

07:56 AM Feb 12, 2024 IST
जिंदादिल और आत्मनिर्भर बुजुर्गों की हंसी
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क्षमा शर्मा
पिछले कुछ समय से स्विट्ज़रलैंड के शहर जिनेवा में हूं। बीमार पड़ी तो डाक्टर के पास जाना पड़ा। यहां भारत की तरह नहीं है कि जब चाहें डाक्टर से समय मिल जाए, बहुत समय लगता है अप्वाइंटमेंट मिलने में, लेकिन मैं किस्मत वाली थी। अगली दोपहर डाक्टर के पास बैठी थी। एक चीज जो बार-बार चकित होकर देख रही थी कि डाक्टर से मिलने बेहद बूढ़े स्त्री-पुरुष आ रहे थे। वे अकेले थे। उनके साथ कोई नहीं था। लेकिन इस बात की कोई चिंता दिखाई नहीं देती थी। उनकी चाल में बेहद मस्ती थी। वे झुककर भी नहीं चल रहे थे। वे सीधे चलते आते थे। और उनमें से कई तो निश्चय ही नब्बे साल या उससे ऊपर रहे होंगे। वे बैठते थे। फिर पास बैठे व्यक्ति से बातचीत में तल्लीन हो जाते थे। आपस में बातचीत करके बात-बात पर खिलखिला रहे थे। वे डाक्टर के पास से भी खुश-खुश निकल रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि वे इतने खुश क्यों थे।
आखिर डाक्टर के पास आप किसी बीमारी को लेकर ही आते हैं, जिसके कारण चिंता होना स्वाभाविक है, लेकिन चिंता की जगह उनके चेहरे पर खुशी और हंसी दिखाई देती थी। शायद उसका कारण यह होगा कि वे सोचते हैं कि अगर कोई बीमारी है तो उसका इलाज भी है। और इलाज डाक्टर ही कर सकता है। बीमारी से डरने के मुकाबले उसका इलाज कराएं। फिर यहां उनके इलाज, उनके जीवन की जिम्मेदारी सरकार की होती है। सरकार अपने नागरिकों की सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती है। इसके अलावा यह सोच भी है कि जीवन एक बार ही मिलता है। उसे ठीक तरह से जिया जाए। यहां चिकित्सा सुविधाएं भी बहुत अच्छी हैं। हर एक आदमी का चिकित्सा बीमा होना अनिवार्य है।
इनके मुकाबले अपने देश पर नजर डालें। बीमार पड़ने पर हम अक्सर डाक्टरों के पास जाने से बचते हैं। बीमारी का इलाज कराने के मुकाबले हम सोचते हैं कि कैसे भी यह अपने आप ठीक हो जाए। पचास साल की उम्र में ही जैसे हम खुद को बूढ़ा मान लेते हैं और सोचते हैं कि अब गए कि तब गए। कुछ अधिक उम्र होने से डाक्टर के पास जाने के लिए किसी सहारे की जरूरत तलाशते हैं। इसीलिए आप पाएंगे कि अस्पतालों में मरीजों से ज्यादा उनकी देखभाल करने वालों की भीड़ होती है। अस्पतालों में भी सारी भागदौड़ का काम अटेंडेंट के जिम्मे होता है। दस बार बुलाने जाएं तो नर्स आ पाती है। जिस अनुपात में मरीज हैं, उस अनुपात में चिकित्सा सुविधाएं बहुत कम हैं। किसी का इस ओर ध्यान भी नहीं जाता। बहुत से अस्पतालों में गंदगी भी बेशुमार है।
कई बार गलत इलाज की खबरें भी आती हैं। बहुत से लोग इलाज कराने इसलिए भी नहीं जा पाते कि उनके पास पर्याप्त साधन नहीं होते, जागरूकता भी नहीं होती। सरकारी अस्पतालों के अलावा प्राइवेट अस्पतालों का इलाज इतना महंगा है कि हो नहीं पाता। लोग बिल भरने की आर्थिक स्थिति में नहीं होते। इसका एक बड़ा कारण अपने देश की आबादी भी है। जिस पर वोटों की खातिर कोई सरकार नियंत्रण भी नहीं करना चाहती। इसीलिए संसाधन अगर उपलब्ध भी कराए जाएं तो वे लोगों तक ठीक से पहुंचते नहीं हैं।
संयुक्त परिवारों के बिखरने से हमारे यहां के बुजुर्गों की हालत दयनीय है। उनमें से बहुतों के पास भरण-पोषण के साधन नहीं हैं। परिवार होते हुए भी परिवार को उनकी परवाह नहीं है, तो वे इलाज कैसे कराएं। साधन कहां से जुटाए जाएं। एक अनुमान के अनुसार अपने यहां दस करोड़ बुजुर्ग बताए जाते हैं। इनके वोट तो सभी को चाहिए लेकिन इनकी दुरावस्था को ठीक करने की कोई योजना नहीं बनाई जाती।
यहां के बुजुर्गों को देखती हूं और अपने यहां के बुजुर्गों के बारे में सोचती हूं, तो मन खिन्नता से भर उठता है। यहां के बुजुर्ग बेशक अकेले हैं मगर सरकार उनके साथ है। वे स्वाभिमान का जीवन जी सकते हैं। सही इलाज पा सकते हैं। वे अस्सी-नब्बे साल की उम्र में भी मॉल्स में ट्राली लेकर अपना सामान खरीदते नजर आते हैं। सड़कों पर दौड़ते दिखते हैं। कई जगह तो खेलते भी दिखाई देते हैं। इसमें बुजुर्ग महिलाएं भी पीछे नहीं रहतीं। हाल ही में एक परिचित ने बताया कि नब्बे साल की एक महिला ने ड्राइविंग लाइसेंस का टेस्ट पास किया है। वे तमाम आयोजनों में युवाओं की तरह ही बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
दरअसल, उनके पास अपने देश वाला अनेक जन्मों का विचार नहीं है, इसलिए वे जीवन को भरपूर जीते हैं। जबकि हम जीवन को इसी भरोसे छोड़े रहते हैं कि इस जीवन में कुछ अच्छा नहीं है, तो अगले जीवन में होगा और इस जीवन में जो दुःख तकलीफें मिल रही हैं, वे पिछले जन्मों के पापों का परिणाम हैं। और भगवान की मर्जी के कारण ऐसा हो रहा है। शायद यही वजह कि जिनके पास सारे साधन मौजूद हैं, वे भी डाक्टरों के पास समय से नहीं जाना चाहते। वे डाक्टर से उम्मीद करते हैं कि वह उनके मन की बात करे। यानी कि कभी किसी बीमारी के होने की बात न बताए। जबकि डाक्टर का काम ही बीमारी को खोजना और उसका निदान करना है। अगर बीमारी खोजी ही नहीं जाएगी तो उसका इलाज कैसे होगा। कई लोगों को यह कहते सुना है कि डाक्टर के पास जाएंगे तो न जाने क्या निकाल दे। अरे, भाई निकलेगा, तो वही जो आपके शरीर में होगा। डाक्टर कोई अपने पास से तो कुछ नहीं निकाल देगा। अक्सर डाक्टर के पास हम तब जाते हैं, जब मर्ज बिगड़ चुका होता है। बेहतर है कि पहले ही चले जाएं जिससे न खुद तकलीफ पाएं और न दूसरों को दें। स्विट्ज़रलैंड के लोगों के बारे में बताया जाता है कि वे और कोई भी अप्वाइंटमेंट मिस कर सकते हैं मगर डाक्टर का अप्वाइंटमेंट कभी नहीं छोड़ते। इसका कारण यह है कि एक तो डाक्टर से टाइम देर से मिल पाता है, दूसरे वे हर हाल में स्वस्थ रहना चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनका जीवन खुद उनके ही भरोसे है।
बीमारी के कारण मुझे पांच दिन के लिए अस्पताल में भी भर्ती होना पड़ा। वहां मेरे कमरे में एक बुजुर्ग महिला थीं। जिनके पांव में बहुत चोट लगी थी। दूसरी बीमारियां भी थीं मगर जो भी नर्स या अस्पताल का कोई भी कर्मचारी उनके पास आता वह सबके साथ मिलकर खूब खिलखिलाती थीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उनकी उम्र भी नब्बे के आसपास रही होगी। वह अपने घर जल्दी से जल्दी जाना चाहती थीं क्योंकि उन्हें अपनी बिल्ली की याद आ रही थी। अपनी बिल्ली का फोटो भी उन्होंने लगाया हुआ था। वह पूरे समय हंसती थीं और मैं उनकी हंसी को सुन चकित होती थी। जबकि इतने दिनों में शायद ही उनका कोई नाते-रिश्तेदार मिलने आया होगा।
काश! हम भी ये सीख पाते।

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लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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