हंसी का पैमाना
एक बार विनोबा भावे युवकों के एक दल के साथ गांवों में भ्रमण कर रहे थे। एक जगह पर वह अचानक ठहरे और कुछ लोगों को हंसता खिलखिलाता हुआ देखकर कहने लगे, ‘यह कुत्सित हंसी है।’ इतना कहकर वह आगे चलने लगे। कुछ देर बाद वह फिर से रुके और कुछ लोगों को हंसता, देख, बुदबुदाने लगे, ‘आहा! कैसी प्यारी हंसी। आहा!’ फिर आनंदित होकर आगे चलने लगे। अब एक युवक से रहा नहीं गया। पूछा कि ‘आचार्य यह कैसी दुविधा में डाल दिया है आपने? हंसी तो आखिर हंसी ही होती है न। पहले भी कुछ लोग हंस रहे थे। अभी भी कुछ लोग हंस ही रहे थे।’ ‘यही तो बात है वत्स।’ विनोबा ने धीरे से हंसकर कहा, ‘पहले वाले लोग किसी पर हंस रहे थे। यानी किसी की मजबूरी, आफत या दिक्कत पर हंस रहे थे, मगर ये लोग आपस में हिल-मिलकर कुछ चर्चा करते हुए हंस रहे थे।’ किसी पर हंसना और किसी के साथ हंसना यह दोनों अलग-अलग हैं। इस बात का फर्क वह युवक आज समझा।
प्रस्तुति : मुग्धा पांडे