मज़दूर
अशोक जैन
सुक्खा दिहाड़ी मज़दूर है। ईंट ढोने में एक्सपर्ट। मंज़िल कोई भी हो, वह सिर पर स्लिंग बांधकर कमर तक ईंटों को ले झुकाई से इस प्रकार चढ़ाता है कि आश्चर्य होता है। वह आज चौराहे पर बैठा है। उसके हाथ में गत्ते का टुकड़ा है, जिस पर टूटा फूटा लिखा है- ईंट चढान वाला।
उसने देखा कि कुछ दूरी पर राजाराम भी बैठा है। वह राजमिस्त्री है और एक ठेकेदार के साथ निरंतर काम करता रहता है।
‘मैं पास बैठ जाऊं! काम मिल जायेगा।’
‘काम मिल गया तो पचास रुपये मुझे देगा?’
‘अगर मेरे दाम पर मिला तो!’
तभी दूर से एक कार आई और राजाराम के पास आकर रुकी। ठेकेदार बीरबल था।
‘राम राम ठेकेदार।’
‘चल राजाराम, आज काम पर।’
‘यह सुक्खा है। ईंट चढ़ाता है।’
‘बोल भई, क्या लेगा? 2000 हैं, दूसरी मंज़िल पर चढ़ानी हैं।’
‘दूसरी मंज़िल ही है ना?’
‘हां, हां। क्या लेगा?’ ठेकेदार ने प्रश्न किया।
‘एक रुपया ईंट। सिर्फ ईंट चढ़ाई!’
बीरबल ने कुछ सौदेबाज़ी की, पर मान गया। जानता है कि मज़दूरों की किल्लत है।
तीनों साइट पर पहुंचे। सुक्खा को ईंट ज्यादा लगी। गिनती की तो 2040 थीं।
‘कोई बात नहीं, एक-दो फेरे ज्यादा ही लगेंगे।’ उसने अपने थैले से स्लिंग निकाला तो पाया कि आज बीवी ने रोटी नहीं रखी थी। वह चिंतित हो गया।
‘भूखे पेट कैसे करेगा वह इतनी मशक्कत!’ फिर उसने ईंटों पर चाक से निशान लगाया, हाथ जोड़कर स्लिंग पर फट्टा लगाया और ईंटें सजाने लगा। मालिक पहली मंज़िल से देख रहा था। सुक्खा ने 24 ईंट रखकर, स्लिंग को कमर की ओर से माथे पर पकड़ा, जय श्रीनाथ का उद्घोष किया और सीढ़ियां चढ़ने लगा।
‘अरे! दो कम रख लेता। आसानी रहती।’ मालिक ने कहा।
‘अरे बाबूजी, चिंता न करें। यह रोज का काम है मेरा।’
वह स्वप्न देख रहा था कि आज शाम को उसे खाली हाथ क्वार्टर पर नहीं जाना पड़ेगा। आज तो उसे खाना मिलेगा ही!