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वन्यप्रेमियों के स्वागत  को तैयार कूनो

07:11 AM Feb 04, 2024 IST
वन्यप्रेमियों के स्वागत  को तैयार कूनो
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अलका कौशिक

जानी-मानी ट्रेवलॉग राइटर

लसुबह, जब मध्य प्रदेश स्थित श्योपुर जिले के गांव मिचमिचाती आंखों से अंगड़ाई ले रहे थे, हम टिकटोली गेट को पीछे छोड़ आगे, और आगे बढ़ते जा रहे थे। उस सुबह हमारी मंजिल रानीपुरा में हमारे ठिकाने, कूनो वन महोत्सव के लिए बसायी अस्थायी टेंट नगरी, से करीब तीस किलोमीटर दूर थी। कूनो राष्ट्रीय उद्यान के अहेरा गेट पर पहुंचने वाली हमारी कार उन वाहनों की कतार में सबसे आगे चल रही थी जिन्हें देश की पहली चीता सफारी के लिए चुना गया था। गेट पर एक कैंटर पहले से खड़ा था जिसमें देशभर से आए वाइल्डलाइफ इंफ्लुएंसर सवार थे। उनके कई इंच लंबे लैंसों वाले कैमरों के सामने मुझे अपने स्मार्टफोन का बौनापन खला था।

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चीतों का नया-नवेला संसार

कूनो के जंगल की दहलीज पर हम कुछ देर अटके रहे, जंगल के द्वार पहली बार सफारी के लिए खुल रहे थे और कागजी कार्रवाई में कुछ ज्यादा ही समय लग रहा था। मेरी आंखों के सामने से उन पिछली जंगल यात्राओं के दृश्य गुजरने लगे जिनमें वन्यजीव प्रेमियों से लदे-फदे कैंटर और जीपों के कारवां धूल उड़ाते हुए बढ़ते जाते थे। लेकिन इस बार वैसा कोई नज़ारा नहीं था। ज्यादातर पर्यटक कुनो में चीतों के नए-नवेले संसार से नावाकिफ थे। यहां तक कि उनके नामों को लेकर भी अटकलें जारी थीं। मसलन, पिछली शाम ही दो नर चीतों-वायु और अग्नि- को उनके बाड़े से रिहा किया गया था ताकि सफारी के लिए आए पर्यटकों को चीतों का दीदार हो सके। किसी ने कहा व्हाइट-वॉकर को छोड़ा गया तो किसी ने कुछ और। गेट के पास खड़े बबूल के ऊंचे दरख्त के आजू-बाजू बिछी घास छीलने में व्यस्त मनराजी ने बताया कि रिहा होने के बाद उन दो चीतों को कल शाम इसी गेट के आसपास देखा गया था, करीब घंटे भर तक दोनों जैसे अपनी सुध-बुध खोए हुए थे, फिर धीरे-धीरे चलते हुए कूनो में कहीं गुम हो गए।

जोड़ीदार चीतों की कहानी

इस बीच, हमारी कार में एक नैचुरलिस्ट सवार हो गई थीं जो जंगल में हमारे प्रवेश की अनुमति भी साथ लायी थीं। इधर जंगल आंखें खोल रहा था, उधर हमारे ज्ञान चक्षु खोलने के लिए नैचुरलिस्ट की कमेंट्री ऑन हो चुकी थी। ‘इस नर चीता जोड़ी का ही पुराना नाम ‘व्हाइट-वॉकर’ है जबकि वायु और अग्नि नाम इन्हें कूनो वासी होने के बाद मिले हैं .... ये दोनों जब दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में थे तभी से जोड़ीदार हो गए थे और यहां आने के बाद भी ‘सलामत रहे दोस्ताना हमारा’ की तर्ज पर हर दम साथ-साथ दिखते हैं। कुछ समय पहले ‘रॉकस्टार्स’ यानि नामीबियाई चीता जोड़ी गौरव और शौर्य के साथ ये दोनों दो-दो हाथ भी कर चुके हैं और उस भिड़ंत में इन्हें मुंह की खानी पड़ी थी। दरअसल, यह चीतों के बीच अपने इलाके पर एकाधिकार की लड़ाई थी। नर चीते अक्सर इसी तरह से जोड़ियां बनाकर या तीन-चार के गुट में रहते हैं, अपने भौगोलिक क्षेत्र पर दावे के लिए ये गुट आपस में टकराते हैं, भिड़ते हैं, घायल होते हैं और शहीद भी होते रहते हैं। ये गुट अक्सर ‘भाइयों’ में बनते हैं जबकि मादा चीता एकांतप्रिय होती है जो सिर्फ प्रजनन के लिए ‘हीट’ की अवधि में और प्रसव के बाद अपने शावकों की देखभाल करने के लिए ही ‘फैमिली-फैमिली’ खेलती है!’ मुझे चीतों की दुनिया जितनी रोचक लग रही थी, कूनो का जंगल उतना ही बेरौनक दिखायी दे रहा था। कॉर्बेट का जंगल जैसे अपने सौंदर्य के लिए जाना जाता है, बांधवगढ़ की सघनता मोहित करती है, पन्ना, पेंच, कान्हा का अपना आकर्षण है, उस लिहाज से कूनो का वन प्रदेश मंत्रमुग्ध नहीं कर पाता। शायद इसका कारण यह भी था कि हम मानसून बीतने के करीब-करीब तीन महीने बाद सर्दी के मौसम में आए थे, तब तक हरियाली के नाम पर कुछ खास नहीं बचा था। पेड़ों के नाम पर बबूल, बेर, खैर, धावड़ा (गोंद), पलाश और कहीं-कहीं सागवान खड़े थे।

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हरियल कबूतर और जंगल का कव्वा

‘चीतों की सैरगाह बनाने के लिए कांटेदार पेड़ों और झाड़ियों वाले इस जंगल को क्यों चुना गया होगा?’ मेरे इस सवाल पर नैचुरलिस्ट के जवाब देने से पहले ही पीले पंजों वाले हरियल कबूतरों (यैलो फुटेड ग्रीन पिजन) के एक झुंड ने महुआ की शाखों से उड़ान भरी और फुर्र हो गए। ज़रा आगे बढ़े तो लंबी पूंछ वाला रूफस ट्रीपाइ (जंगल का कव्वा) पलाश की डालियों पर उछल-कूद मचाता दिखा। कई साल पहले रणथंबौर की सफारी के दौरान इस पक्षी को देखा था और तब मालूम हुआ कि उस जंगल की शान बढ़ाने में इसका भी योगदान कम नहीं। इसकी शैतान फितरत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह जंगल में धमाल मचाने वाले बाघ तक से नहीं डरता और उसके दांतों में फंसे मांस के टुकड़े खरोंच-खरोंचकर निकालता है और अपना पेट भरता है। शिकार कर चुकने और डिनर के बाद सुस्ताहट के उन पलों में बाघ को भी बिना अपनी जीभ चलाए ही दांतों की यह ‘मुफ्त सफाई’ भाती है और वह रूफस ट्रीपाइ को उसकी इस जुर्रत पर कुछ नहीं कहता!

कूनो की अनुकूलता खाने-पीने व दौड़ने में

‘मध्यप्रदेश में विंध्य पर्वतमाला की गोद में पसरे कूनो को काफी सोच-विचार के बाद चीता प्रोजेक्ट के लिए चुना गया है। अफ्रीकन नस्ल के चीतों के आश्रय के लिए मध्यप्रदेश में ही नौरादेही अभयारण्य और राजस्थान में शाहगढ़ के जंगल पर भी विचार किया गया था, लेकिन अंततः कूनो ने बाजी मार ली।’ हमारी नैचुरलिस्ट मेरे सवाल को भूली नहीं थीं। ‘चंबल की सहायक कूनो नदी इस जंगल से बहती है, कुछेक छोटी-मोटी धाराएं भी हैं, यानि जंगली जीवों के लिए यहां पानी की कमी नहीं है। और जहां तक रही बात कूनो को चीता के रहवास के लिए चुनने की तो शायद आपको मालूम होगा कि चीता फर्राटा दौड़ लगाने वाला प्राणी है, धरती पर सबसे तेज धावक, बोले तो जीव-जगत का उसैन बोल्ट। उसे जंगलों का घनापन नहीं, शुष्क सवाना जैसी विरलता भाती है, इसीलिए घास के मैदान उसके प्रिय प्राकृतिक वास होते हैं। चीता रीइंट्रोडक्शन प्रोजेक्ट से जुड़े वन विशेषज्ञों ने बीते कई दशकों में इन तमाम पहलुओं पर विचार किया, कूनो में पानी के स्रोत और चीतल, सांभर, नील गाय, चौसिंगा, हिरण, जंगली सूअर, खरगोश जैसे शाकभक्षियों की मौजूदगी ने आश्वस्त किया कि चीतों के लिए यहां शिकार भी उपलब्ध है।’

चीतलों की टोली

नैचुरलिस्ट बोलते-बोलते अचानक चुप हो गई और इशारे से ड्राइवर को गाड़ी रोकने को कहा। हम समझ गए जरूर कोई बड़ा जानवर आसपास है। कार का इंजन बंद होते ही जंगल की नीरवता को चारों ओर महसूस किया जा सकता था। बायीं ओर चीतलों की एक छोटी टोली हमें ही घूर रही थी। इनमें तीन वयस्क और एक नन्हा चीतल था जो हमसे नज़रें मिलते ही लजाता हुआ यहां-वहां भागने लगा। फिर वयस्क चीतल भी पीछे मुड़े और कुलांचें भरते हुए जंगल की धुंध में समा गए। दायीं तरफ घास का लंबा मैदान दूर तक फैला था,जहां-जहां घास कुछ ऊंची थी उनके ऊपर से कुछ पक्षी इतनी तेज रफ्तार से उड़ान भर रहे थे कि उनकी पहचान करना मुश्किल था।

विंध्य पर्वतमाला, सुनहरी घास

‘ये इंडियन पैराडाइज़ फ्लाइकैचर हैं, मध्यप्रदेश के राज्यपक्षी।’ ‘हम इन्हें सुल्ताना बुलबुल कहते हैं, वैसे इन्हें दूधराज भी कहा जाता है।’, हमारे ड्राइवर ने भी ज्ञान बघारा। कुछ आगे बढ़ने पर दूर क्षितिज से सटी विंध्य पर्वतमाला दिखायी दी, जंगल की प्राकृतिक सरहद की तरह मुस्तैद। दूर-दूर तक सुनहरी घास ऐसे बिछी थी मानो सोना पिघला पड़ा हो और उसे आड़ देने के लिए ही जैसे विंध्य ने अपना कद ऊंचा उठा लिया था। विराट विंध्य की गोद में पसरी कूनो घाटी में मुझे अपना बित्ता भर वजूद महज़ एक धूल कण जैसा महसूस हुआ। ज़माने भर के शोरगुल से दूर, सुल्ताना बुलबुल की तीखी चें चें, घास के पतले-लंबे बदन को झुलाती हवा की सरसराहट और कार के इंजन की घरघराहट के सिवा वहां कोई और आवाज़ नहीं थी। शायद जंगल के सौंदर्य ने हम सभी को मौन कर दिया था। या शायद भूख-प्यास भी लग आयी थी। सामने खजूरी कैम्प का बोर्ड दिखते ही ड्राइवर ने कार वापस मोड़ ली, अहेरा गेट से यहीं तक आने की मंजूरी मिलती है। कैम्प शायद एकाध कमरे की इमारत रहा होगा जिसके आंगन में कुछ वन कर्मी चारपाई डाले बैठे थे। कुछ सब्जियों की क्यारियां भी दिखायी दे रही थी। बाकी चारों ओर सिर्फ जंगल का वीराना ही तो था। दिन-रात पोचर्स से जंगल और जंगली जीवों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी निभाने वाले ऐसे कर्मचारी ही वन संपदा के संरक्षक हैं। खुद साल भर बीहड़ों की खाक छानते हुए, इंसानी परिवेश से दूर, जंगली जानवरों के हमलों से खुद को बचाने के साथ-साथ उनका अवैध शिकार और तस्करी करने वालों से जीवों को बचाने के काम में ये दिन-रात एक किए रहते हैं।

कैमरे और रेडियो कॉलर

लौटते हुए हम सभी चुप थे। चीतों का जिक्र अब कहीं पार्श्व में खो चुका था। ड्राइवर ने एक छोटी पुलिया पर कार रोककर हमें पानी पर लहराते सांप को देखने का इशारा किया। कुछ आगे बढ़े तो महुआ के मोटे तने पर ज़मीन से एकाध फुट ऊपर कैमरा बंधा दिखायी दिया। ऐसे कैमरे जानवरों की चाल-ढाल और उनकी मूवमेंट पर निगरानी रखने के लिए पूरे जंगल में लगाए गए हैं। और चीतों की गर्दन में रेडियो कॉलर अलग से हैं जिनमें सेटेलाइट और रेडियो ट्रैकिंग सुविधा होती है जिससे उनकी सही-सही लोकेशन का पता चलता रहता। इसके अलावा, ड्रोन और रोबोट कैमरों की मदद भी ली जा रही है। पिछली गर्मियों में जब मादा चीता नीरवा को बाड़े से कूनो के जंगल में रिहा करने के कुछ ही समय बाद उसके रेडियो कॉलर ने काम करना बंद कर दिया था तो ड्रोन की मदद से उसे ट्रैक किया जा सका था।

जंगल मित्रों की तैनाती

जंगल में कुल-मिलाकर, सुरक्षा का अभेद्य किला तैयार किया गया है। यूं पालपुर का सदियों पुराना किला भी कूनो के अंदर है। टिकटोली गेट से जंगल में घुसने पर यह किला और कूनो नदी दिखायी देते हैं, लेकिन उस दिन सफारी का पहला दिन था और सिर्फ अहेरा से ही प्रवेश दिया जा रहा था। कूनो में जंगल मित्रों की अलग से तैनाती की गई है। ये दरअसल, कूनो राष्ट्रीय पार्क के आसपास बसे गांवों में रहने वाले ग्रामीण हैं जिन्होंने बिना किसी लाभ की आकांक्षा लिए खुद को वॉलन्टियर्स के रूप में कूनो से जोड़ा है। वन विभाग ने चीतों के व्यवहार के बारे में या उनसे जुड़ी किसी भी असामान्य घटना होने पर तुरंत अलर्ट करने और कूनो के आसपास बसे गांवों के लोगों को जागरूक बनाने के लिए इन्हें प्रशिक्षित किया है। यानि, परदेसी चीतों को हिंदुस्तान की माटी में खुद को सहज महसूस करवाने और सुरक्षा देने के लिए टैक्नोलॉजी तथा मनुष्यों का विशाल तंत्र काम पर लगा है। यह जरूरी भी है क्योंकि कूनो वन में हाल में बसाए चीतों के अलावा पहले से ही तेदुओं और बाघों का संसार भी है। गिद्ध कुल के भी तरह-तरह के पक्षी यहां बसते हैं। और सियारों की हुंआ हूं, हुंआ हूं का शोर तो रात में अपने टेंट में भी मुझे ऐसे सुनाई देता था जैसे उनकी टोली बाहर मेरा ही इंतज़ार कर रही है! सवेरे के दस बज चुके थे। चीतों से रूबरू हुए बगैर हमारी ऐतिहासिक सफारी करीब ढाई घंटे में पूरी होने को आयी थी। वायु और अग्नि उस रोज़ शायद कहीं दूर आखेट पर निकले होंगे, और हमें न उनका गुर्राना सुना, न चहचहाना, न म्याऊं जैसी मरियल आवाज़ और न सांप-सी फुसफुसाहट। जी हां, जंगल की बिल्ली जाति का ही सदस्य होने के बावजूद चीता न तो शेर जैसी गर्जना कर सकता है और न चीते या तेंदुए की तरह दहाड़ता है। कभी-कभार उसकी फीकी सी कराहट सुनी जा सकती है या प्यारी-सी म्याऊं-म्याऊं।
लौटते हुए सहरिया जनजाति के गांवों के सामने से गुजरते हुए बांस और मिट्टी के उनके घरों, घरों की चौखटों और दहलीज पर सजी कलाकारी देखने का मन हुआ मगर भूख और प्यास के आगे मन की एक न चली। एक-एक कर कई गांवों को पार कर हम लौट आए, खुद ही खुद से जल्द लौटने का वायदा लिए।

कैसे जाएं कूनो

नजदीकी हवाई अड्डा- ग्वालियर एयरपोर्ट (180 किमी)
नजदीकी रेलवे स्टेशन- शिवपुरी (60 किमी) और ग्वालियर (180 किमी)
एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन से निजी टैक्सी लें
सफारी के लिए बुकिंग के लिए देखें : https://www.kunonationalpark.org/

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