इंसानियत को तरजीह देती कृति
सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
समीक्ष्य कृति ‘जि़न्दगी ग़ज़ल होने लगी’ सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल का चौथा ग़ज़ल-संग्रह है। इसी के साथ लेखक साहित्य जगत को विभिन्न विधाओं में लगभग 150 पुस्तकें दे चुके हैं। इस संग्रह में 104 ग़ज़लियात की शुमारी है, जिनकी लिपि देवनागरी है। अधिकतर ग़ज़लियात मानवता की बात करती हैं, जिनमें प्रेरणा एवं आदर्शवाद का पुट मिलता है। कथ्य के केन्द्र में संदेशात्मकता एवं प्रेरणात्मकता विद्यमान है जो कि पाठक-मन को चिंतन के लिए प्रेरित करती हैं। इन ग़ज़लियात में कहीं-कहीं सामाजिक मान-मर्यादा का ताना-बाना भी बुनता है शायर।
‘जि़न्दगी ग़ज़ल होने लगी’ के कुछ अश्आर एहसासात को झिंझोड़ते है तो कुछेक आत्म-मंथन को विवश करते हैं। वातावरण के प्रति सजगता का उदाहरण है ये शे’र : ‘घर बनाना ठीक है, वातावरण भी तो बना/ आज बिगड़ा जा रहा पर्यावरण भी तो बना।’ इंसान की फि़तरत एवं उसकी कारगुज़ारी पर तन्ज़ कसते हुए शायर कहता है : ‘लब पे चाहत, दिल में नफऱत यूं उसके अंदाज़ मिले/ गहराई में जाकर देखा सब उससे नाराज़ मिले।’
सकारात्मक सोच को आगे लेकर चलने के पक्षधर इन अश्आर में निहित सार्थक अर्थ को बहुत ख़्ाूबसूरती से उभारा गया है : ‘बढ़ गये आगे तो पीछे देखना मत/ जो गया है छूट उसको कोसना मत।’
‘जि़न्दगी ग़ज़ल होने लगी’ का कलापक्ष तथा शैली साधारण होते हुए भी अपनी छाप छोड़ते हैं। कथ्य में सपाट बयानी के सहारे हक़ीक़त को हू-ब-हू पेश करता है शायर।
पुस्तक : जि़ंदगी ग़ज़ल होने लगी कवि : डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल प्रकाशक : श्वेतांशु प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 120 मूल्य : रु.270.