जनकवि शैलेन्द्र को जानने की कुंजी
योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित डॉ. इंद्रजीत सिंह की पुस्तक ‘शैलेन्द्र’ सचमुच फिल्मी गीतकार शैलेन्द्र को जानने और परखने की कुंजी कही जा सकती है।
कुल चार परिच्छेदों 1. शैलेन्द्र - जीवन-यात्रा, 2. जनकवि शैलेन्द्र, 3. गीतों के जादूगर : शैलेन्द्र और 4. सिनेमा के आकाश में साहित्य का चांद - तीसरी कसम, में लेखक डॉ. इंद्र जीत सिंह ने ‘गागर में सागर’ भरने की उक्ति को चरितार्थ करते हुए कालजयी ‘जनकवि’ शैलेन्द्र को संपूर्णता के साथ पाठकों के समक्ष जीवित कर दिया है।
फक्कड़ कबीर के समान दर्शन को एक गीत में बांधते हुए शैलेंद्र जी ने फिल्म ‘सीमा’ में लिखा- ‘तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूंद के प्यासे हम, लौटा जो दिया तूने , चले जाएंगे जहां से हम।’
फिल्मी गीत में दर्शन की ऐसी सरस और सहज-सी अभिव्यक्ति सचमुच गीतकार शैलेन्द्र को कालजयी बना देती है।
‘अपनी बात’ में डॉ. इंद्रजीत ने शैलेन्द्र जी के प्रति हिन्दी के आलोचकों की उपेक्षा की बात लिखी है, लेकिन अंत में डॉ. नामवर जैसे आलोचक को भी कहना ही पड़ा था- ‘शैलेन्द्र जी ‘सही और सच्चे अर्थों में जनकवि’ रहे हैं।’ डॉ. इंद्रजीत लिखते हैं- ‘आग और राग, इश्क और इंकलाब के कवि शैलेन्द्र ने गीतों के नए प्रतिमान बनाए। कलात्मकता और लोकप्रियता की कसौटी पर चौबीस कैरेट खरे शैलेन्द्र के गीत आज भी श्रोताओं के दिलों में बसे हुए हैं।’
इस पुस्तक का प्रथम परिच्छेद ‘जीवन-यात्रा’ लेखक की शोध-दृष्टि का नमूना ही है। शैलेन्द्र जी के जीवन की ज्ञात-अज्ञात, छोटी-बड़ी सभी बातें इस पुस्तक को प्रामाणिक बना देती हैं। दूसरा अध्याय ‘जनकवि शैलेन्द्र’ मेरी दृष्टि में इस पुस्तक की वह ‘आत्मा’ है, जिसने शैलेन्द्र के गीतों की प्राणवत्ता को सहज रूप में पाठकों तक पहुंचाया है। ‘हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है।’ कवि शैलेन्द्र का ऐसा ‘नारापरक गीत’ है, जिसकी चमक और धमक आज भी जन-जन के मन में है।
कौन है, जो शैलेन्द्र जी के इस गीत के उन शब्दों के जादू को भुला सकता है, जो जन-जन की प्रेरणा बन गए हैं :-
‘तू ज़िंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर।’
फिल्मी दुनिया के ‘शोमैन कहे जाने वाले राज कपूर’ की सफलता में मुकेश जी की आवाज़, शैलेन्द्र जी के गीतों और शंकर जयकिशन की जो भूमिका रही है, उसमें सबसे मुख्य है शैलेन्द्र के गीत। याद करिए- ‘आवारा हूं, आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं।’ गीत ने राजकपूर को रूस तक में लोकप्रिय बना दिया। ‘तीसरी कसम’ के गीतों ने तो शैलेंद्र जी को निःसंदेह हिन्दी-जगत में स्थापित कर दिया है।
‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है। न घोड़ा है,न गाड़ी है, वहां पैदल ही जाना है।’
लेखक डॉ. इंद्रजीत की यह पुस्तक शैलेन्द्र पर पठनीय कृति है।