मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

आस्था-विश्वास का प्रतीक कालीघाट मंदिर

06:45 AM Jun 10, 2024 IST
Advertisement

अलका 'सोनी'
कोलकाता के लोगों के लिए, कालीघाट मंदिर न केवल पूजा का स्थान है, बल्कि शहर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी है। मंदिर का एक प्राचीन और आकर्षक इतिहास है। माना जाता है कि इसकी स्थापना 12वीं शताब्दी में हुई थी। यह मंदिर अनेक वर्षों से अनगिनत भक्तों के लिए आस्था व भक्ति का स्रोत रहा है। यहां भक्त अपने जीवन के सुख-दुख में देवी काली से आशीर्वाद लेने आते हैं। मंदिर के बाहर लगी दुकानों से प्रसाद की डलिया और मां को चढ़ाने के लिए ‘शंखा-पोला’ मिलता है। बंगाली संस्कृति में ‘शंखा-पोला’ पहनना विवाहित स्त्रियों के लिए बहुत शुभ और अनिवार्य माना जाता है।
मंदिर महात्म्य
कालीघाट मंदिर, हिंदू देवी काली को समर्पित है और यह भारत के सबसे प्रसिद्ध काली मंदिरों में से एक है। यह आदि गंगा के तट पर स्थित है, जो हुगली नदी से मिलने वाली एक छोटी-सी नहर है। हर दिन हज़ारों काली भक्त मंदिर में आते हैं और पूजा करते हैं। यह एक शक्ति पीठ है। माना जाता है कि कालीघाट मंदिर उस स्थान पर बनाया गया है जहां देवी सती के दाहिने पैर की उंगलियां गिरी थीं।

रोचक कहानी
कालीघाट मंदिर से जुड़ी कई कहानियां हैं। बहुचर्चित कहानियों में से एक आत्माराम नामक ब्राह्मण की है, जिसने भागीरथी नदी में एक मानव पैर के आकार की संरचना देखी। लोगों का मानना है कि उसे एक प्रकाश की किरण द्वारा निर्देशित किया गया था जो पानी से आती हुई प्रतीत हो रही थी। उसे सपने में बताया गया कि पैर की अंगुली देवी सती की है। उसे सपनों में मां काली का एक मंदिर स्थापित करने के लिए कहा गया। उसे नकुलेश्वर भैरव के स्वंभू लिंगम‌् की तलाश करने के लिए भी कहा गया। ब्राह्मण ने शंभु लिंगम‌् पाया, और लिंगम‌‌ और पैर के आकार की संरचना की पूजा करना शुरू कर दिया।
मंदिर का प्रसंग
कालीघाट मंदिर का संदर्भ पंद्रहवीं शताब्दी के मानसर भाषन के संश्लेषण और कवि चंडी में पाया गया है। कालीघाट काली मंदिर का उल्लेख लालमोहन बिद्यानिधि के ‘संबंदा निर्णय’ में भी किया गया है। वर्तमान मंदिर 200 साल पुराना है और इसे उन्नीसवीं शताब्दी में बनाया गया था। जेस्सोर के राजा राजा बसंत रॉय ने मूल मंदिर का निर्माण कराया था।
पौराणिक महत्व
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती ने अपने पिता के घर में अपने पति शिव को मान न देने पर खुद को यज्ञ की अग्नि में जिंदा जला दिया था। जिससे भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने सती के शरीर को अपने कंधे पर रख लिया। उन्होंने तांडव नृत्य करना शुरू कर दिया था। इससे देवता घबरा गए और भयभीत हो गए। उन्होंने भगवान विष्णु से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने तब सती की पार्थिव देह को खंडित किया तो ऐसा माना जाता है कि कालीघाट वह स्थान है जहां सती के दाहिने पैर की उंगलियां गिरी थीं।
यहां प्रतिदिन देवी काली की पूजा हजारों लोग करते हैं। जो भारत और दुनिया भर के हिस्सों से आते हैं। यहां देवी काली की मूर्ति, उनकी अन्य मूर्तियों से अलग है। मूर्ति में तीन आंखें, चार हाथ और एक लंबी उभरी हुई जीभ शामिल है। उनकी जीभ प्रतिमा में स्वर्ण से बनी है।
मूर्ति को आत्माराम गिरि और ब्रह्मानंद गिरि द्वारा बलुआ पत्थर से बनाया गया है। देवी के एक हाथ में राक्षस शुम्भ का सिर है। दूसरे हाथ में एक तलवार है जो दर्शाती है कि अहंकार का अंत होता है।
पूरी होती है मन्नत
इस मंदिर में यूं तो सालभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है लेकिन दुर्गा पूजा और काली पूजा के समय विशेष रूप से श्रद्धालु यहां आते हैं। दुर्गापूजा और काली पूजा यानी दिवाली के समय तो यहां की शोभा देखते बनती है।
काकू-कुंड
इस मंदिर की स्नान यात्रा भी बहुत प्रसिद्ध है। पुजारी अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर मूर्तियों को स्नान कराते हैं। मंदिर में लोगों की भीड़ हो जाती है, जिससे कभी-कभी भक्तों को संभालना मुश्किल हो जाता है। यह मंदिर अपनी खूबसूरत और अनोखी वास्तुकला के लिए जाना जाता है। यहां तीन पत्थर हैं जो देवी षष्ठी, शीतला और मंगल चंडी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां सभी पुजारी महिलाएं हैं। माना जाता है कि मंदिर में एक तालाब में गंगा का पानी है, जिसे बहुत पवित्र माना जाता है। इस स्थान को ‘काकू-कुंड’ के नाम से जाना जाता है। भक्तों का मानना है कि तालाब में स्नान करने से कई लाभ होते हैं। ऐसा माना जाता है कि कई निःसंतान दंपति संतान प्राप्ति के लिए यहां स्नान करते हैं। स्नान घाट को जोर-बांग्ला के नाम से जाना जाता है। यहां राधा-कृष्ण को समर्पित एक स्थान भी है, जिसे शमो-रे मंदिर के नाम से जाना जाता है।
वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना सन‌् 1809 में हुई थी। यह मंदिर कोलकाता के सबर्ण रॉय चौधरी नामक धनी व्यापारी के सहयोग से पूरा हुआ। इसके अलावा 15वीं और 17वीं शताब्दी की कुछ प्राचीन मूर्तियों में भी इस मंदिर का जिक्र मिलता है। कालीघाट मंदिर में गुप्त वंश के कुछ सिक्के मिलने के बाद यह पता चलता है कि गुप्त काल के दौरान भी इस मंदिर में लोगों का आना-जाना बना हुआ था। यह मंदिर जितना प्राचीन है उतना ही भव्य है।
कोलकाता का नाम भी कलकत्ता, इसी मंदिर के नाम पर रखा गया था। कालीघाट मंदिर, कोलकाता की पहचान है। जिसके प्रति न केवल यहां के लोग बल्कि दूसरे राज्यों और देशों के भक्तों की श्रद्धा भी उन्हें यहां खींच लाती है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement